Monday, February 16, 2015

इसलिए आओ हृदय में

नयन ने दिन रात दीपक इक प्रतीक्षा के जलाये
होंठ ने तव नाम सरगम में पिरो कर गीत गाये
साधना के मंत्र रह रह कर तुम्हें उच्चारते है
इसलिए आओ हृदय में, प्यास प्यासी रह न जाए

ज़िंदगी के कक्ष में बढ़ती हुई एकाकियत की
आँधियों में घिर रहा है पूर्ण यह अस्तित्व मेरा
रूप की खिलती हुई जब धूप का सान्निध्य पाउन
सहज ही मिट जाएगा बढता हुआ गहरा अन्धेरा
हर अलक्षित कल्पना के बंधनों को काट आओ
गंध में कस्तूरियों की ताकि मन न छटपटाये
 
ला रहीं पुरबाइयां चन्दन महक अँगनाई द्ववारे
कह रही हैं तुम अगोचर हो भले ,पर पास में हो
मैं तुम्हें अनुभूतियों की गोद में महसूसता हूँ
तुम गगन में रंग जैसे, सांस के विश्वास में हो
केंद्र हो तुम, लक्ष्य हो तुम ध्येय तुम हो अंत तक का
इसलिए आओ हृदय में साध हो सम्पूर्ण जाए
 
सिंधु की लहरें उमड़ती तीर आकर लौट जाती
सौंप कर सिकताओं को कुछ शंख सीपी अंजलि में
मैं विरूपित पुष्प बन कर एक सिकता कण खड़ा हूँ
प्राप्ति की अविरल सुधायें डाल दो कुछ पंखुरी में
 
उठ रहे झंझा झकोरे ताकि मन ना डगमगायें
इसलिये आओ ह्रदय में अर्थ नव सम्बन्ध पाये

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