Monday, March 24, 2014

कुछ भीगी तानें होली की

हो गया आज आतुर यह मन, जाने को उस इक बस्ती में
चंगों पर जहाँ ठुमकती हों कुछ भीगी तानें होली की
 
घड़ियों की सुइयों से बँधकर हैं चले पांव निशिदिन गति में
हर निमिष डूबता गया दुपहरी की ढलती असफ़ल कृति में
लिखते लिखते चौराहों से जीवन का आत्मकथ्य पल पल
जो नहीं ज़िल्द में बँध पाई उस बिखरी बिखरी सी प्रति में
पर आज बाँध सब तोड़ चला इक पाखी सा विस्तृत हो मन
सुनने गलियों में आवाज़ें   रसियों की  गाती टोली की
चंगों पर जहाँ ठुमकती हों कुछ भीगी तानें होली की
जकड़े   रहता   नकाब  ओढ़ा, कैलेंडर  के  चौखानों  में
रह  जाता है मन  एकाकी इन   भीड़ भरे   वीरानों  में
होठों पर बिखरी कृत्रिमता, आँखों में नजर नहीं आती
इक आग सुलगती  रहती है  अन्तर्तल के तहखानों में
मन कहता सब कुछ छोड़ चलें उस जगह, जहाँ पर गुंजित है
आवाज़ें देवर-चुहलों की, भाभी की हँसी ठिठोली की
चंगों पर जहाँ ठुमकती हों कुछ भीगी तानें होली की
ये ट्विटर फ़ेसबूक के लफ़ड़े, ईमेलों के बढ़ते ववाल
ये हफ़्ते की मीटिंगें बीस, दिन में दस दस कान्फ़्रेन्स काल
ये डेड लाईन के फ़न फ़ैले बढ़ती रिपोर्ट्स की मांगों पर
इक उत्तर के सँग उगते हैं फ़िर से आधा दर्ज़न सवाल
इस सबसे ऊब चुका अब मन, चाहे जाना वृन्दावन में
कुंजों में जहाँ खनकती है, सरगम धुन वंसी बोली की
चंगों पर जहाँ ठुमकती हों कुछ भीगी तानें होली की
वे पनघट, गलियाँ, चौराहे, चौराहों  पर कीकरी  ढेर
सूखी, गोबर की थपी हुई उन पर अटकी अनगिन गुलेर
दादी, नानी का सूत बाँध   हल्दी  कुमकुम से रँग देना
होली पर सभी बलाओं को भस्मित करने के वार- फ़ेर
मन के गलियारों में उपजे फिर चित्र यही दीवारों पर
रह रह कर खेला करता है मन जिनसे आँखमिचौली सी
चंगों पर जहाँ ठुमकती हों कुछ भीगी तानें होली की