Friday, December 13, 2013

मेरा तो बस स्पर्श मात्र है,

 
 

मेरा तो बस स्पर्श मात्र है, यह घनश्याम तुम्हीं कह सकते
तुम ही तो कनकी उंगली पर सकल चराचर को धर रहते
 
मथुरा गोकुल वृन्दावन की, नन्दगांव की वीथि वीथि में
उपवन की अलसाई शीतल कदम्ब कुंज की गहरी छाया
बांसुरिया की टेर निरन्तर एक तुम्हारे इंगित से है
जमना रज ने होकर प्रेरित जिससे प्रतिपल रास रचाया
 
अधर तुम्हारे बिना खुले ही शत शत गीतायें रच सकते
तुम ही तो कनकी उंगली पर सकल चराचर को धर रहते
 
संरचना का कारण तुम ही, और अंत भी तुम ही तो हो
तुम बोते नीहारिकाओं में एक सांस में शंख सितारे
आदि अनादि अनंत अंत सब एक तुम्हारे ही परिचायक
तुमने रचे शब्द, वे भी तो वर्णन करते करते हारे
 
धूप छांह ही तरह रात दिन तुम नूतन लीलायें रचते
तुम ही तो कनकी उंगली पर सकल चराचर को धर रहते
 
गगनों के क्रम से लेकर विस्तार अगिन लोकों का तुमसे
पलकों के विचलन से थिरकें नभ में लक्ष कोटि गंगायें
शांति,वायु,जल, अग्नि धरा सब और शून्य तुम ही हो केवल
एक तुम्हारे स्पर्श मात्र से रचने लगती हैं रचनायें
 
एक तुम्हारे स्पर्श मात्र के लिये अहर्निश वन्दन करते
तुम ही तो कनकी उंगली पर सकल चराचर को धर रहते

Wednesday, December 11, 2013

अंधेरा धरा पर कही रह न जाये

अंधेरा धरा पर कही रह जाये
 
 
 
 

रखो आज दीपक जलाकर रजत के
या मणियों जड़ी एक बाती जलाओ
रखो पूर कर चौक, आटे का दीपक
या टिमटिम कोई एक् ढिबरी जलाओ
मन याद रखो कि मन के अन्धेरें
हर इक कक्ष में रोशनी जाये पहुँचे
उठो है निमंत्रण तुम्हें वक्त देता
नई एक इक फिर कहानी से सुनाओ
 
है परिवर्तनों की अपेक्षायें तुमसे
कोई कमना अधखिली रह न जाये
 
अंधेरा चढायें है अनगिन मुखौटे
कभी कायदे का कभी सीरिया का
कभी सिन्धु की लहर कर नृत्य करता
कभी वेश धारे यह सोमालिया का
कभी रैलियों में ये विस्फ़ोट करहा
रहा ओढ़ कर स्वार्थ के कुछ कलेवर
न जड़ से मिटे न उभर फिर से आता
लिर्फ़ रूप यह फिर से ट्यूनीसिया सा
 
उठो आज तुम बाल लो एक बाती
अखंडित रहे, हर तिमिर को मिटाये
 
तिमिर कितना धर्मान्धता का बड़ा है
रहा रोकता ये मलालायें कितनी
मदरसों में तालीम का ले बहाना
रहा बोता नफ़रत की ज्वालायें कितनी
चलो आओ संकल्प लें इक नया अब
अंधेरा भरे ज्ञान की रोशनी से
रहे हर जगह पूर्व का ही सवेरा
जला कर रखें हम पताकायें इतनी
नई कूचिया ले लिखें नव कथानक
ये इतिहास खुद को कभी दुहरा न पाये
 

Monday, December 9, 2013

पग में गति आती है, छाले छिलने से..

पग में गति आती है, छाले छिलने से..
 
बिछुड़ नहीं पाया विश्वास डगर में से
भ्रमित नहीं कर सका मुझे कोई दर्पण
पग में गति आती है छाले छिलने से
बाधाओं से लड़ मैं हो जाता चन्दन
 
पग के छाले बने मेरे स्वर्णाभूषण  
स्वर दिया इन्होंने नव गीतों के छन्दों को
नये शिल्प में ढाला दृग के आंसू को
नया अर्थ दे दिया प्रीत की गंधों को
 
रहा भूलता बिसराता मैं सब अग जग
ठुकराता मिलते विश्रामों का वैभव
पग के छालों को सुविधायें मान लिया
रखा कोष में अपने प्राप्त हुआ यह धन
 
कब मेरे विद्रोही मन ने स्वीकारा
कटी आस्था टूटी मर्यादा ओढ़ूँ
मैं झरने सा जिधर हुआ मन बढ़ जाता
कभी न ऐसा लगा हठी सम्बल छूड़ूँ
 
आँधी बरसातों से यह मन डिगा नहीं
तूफ़ानिओं में मेरा निश्चय झुका नहीं
गति मैं लेता रहा छिल रहे छालों से
बाधाओं से झूझ महकता बन चन्दन
 
मैं पाथेय सजाता हूँ, सज जाते हैं
पथ पर साथ साथ नौचन्दी के मेले
तारे उगने लगते नभ की क्यारी में
मेरे पग के चिह्न डगर पर से ले ले
 
संध्या नीड़ लिये आती अगवानी में
नई गंध भर जाती निशि की रानी में
गति, गति लेती मेरे पग के छालों से
और चेतना पाया करती नवजीवन
 
चूड़ी,महावर,काजल,मेंहदी,कुमकुम से
बँधे एक पल, पर मेरे पग रुके नहीं
अवरोधों के झंझावात घने उभरे
पर मेरे संकल्प जरा भी झुके नहीं
 
मैं बन रहा उदाहरण नव इतिहासों का
गति से रिश्ता जुड़ा हुआ है सांसों का
पग में गति आती है छाले छिलने से
वाक्य हुआ यह यात्राओं का सम्बोधन.