Tuesday, August 13, 2013

छक कर सुख दुख

छक कर सुख दुख के घूँटों को
कांधे पर लटका कर छागल
पाथेय सजा फ़िर यायावर
चल दिया पंथ में मन पागल
 
बिन जाने दुर्गम राहों में
अपनत्व नहीं बिलकुल उगता
बस कंकर जोड़ा करते है
पांवों के छालों से रिश्ता
 
पर दीवाने ने मुट्ठी में
रख ली हैं अपनी निष्ठायें
जिनसे विचलित कर सकी नहीं
आंधी बरसातें झंझायें
 
मौसम की विद्रुपताओं से
पल भर को भी तो डरा नहीं
जिस ओर हवायें चली, पंख
फ़ैला उस पथ वो मुड़ा नहीं
 
पथ पर के नीड़ तले रहजन
कितना भी डेरा डाले हों
षड़यंत्रों की सीमाओं में
बन्दी हो रहे उजाले हौं
 
अपने अंतस को जला
रोशनी करता अपनी राहों पर
निर्माण नीड़ का किया नये
विश्वास उसे निज बाँहों पर
 
तूफ़ान भले कितने आये
पल भर भी निश्चय डिगा नहीं
पथ की बाधाओं के आगे
मन एक बार भी झुका नहीं
 
छक कर सुख दुख के घूँटों को
चिर काल दीप बन जलना है
है विदित प्रहर विश्रामों के

केवल पल भर का छलना है.

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