Sunday, June 2, 2013

याद आई आज मुझको

याद आई आज मुझको सूचना के बिन तुम्हारी
 
चेतना के तार की झंकार पर तन्द्रा बिठाकर
आस की अनुभूतियों के केन्द्र पर निद्रा बिछाकर
नैन के आवास की दीवार को रंगीन कर के
डाल कर सम्मोहिनी,सुधियाँ सभी मेरी  भुलाकर
 
व्याकरण अनुभूतियों की इक नई रच कर सँवारी
याद आई आज मुझको सूचना के बिन तुम्हारी
 
डाउनटाउन सांझ को जाते हुये ज्यों ट्रेन खाली
में किसी भी सीट को सुविधाजनक कर बैठ जायें
ठीक वैसे कक्ष से मन के सभी का निष्क्रमण कर
थी तुम्हारी याद बन कर आ घिरी श्यामल घटायें
 
रह गई थी शेष जो परछाईं वो भी थी बुहारी
याद आई आज मुझको सूचना के बिन तुम्हारी
 
पार कर स्पैम फ़िल्टर आ गईं ज्य जंक मेलें
कोई अंकुश जिस तरह उनको नियंत्रित कर न पाये
उस तरह ही याद के दीपक तुम्हारे,बातियों बिन
बन गये दीपावली के दीप रह रह झिलमिलाये
 
खींच कर हर कोण पर बस एक ही आकृति तुम्हारी
याद आई आज मुझको सूचना के बिन तुम्हारी