Monday, February 4, 2013

अभी गीत कोई नहीं होंठ छूता

अभी गीत कोई नहीं होंठ छूता  अभी भाव मन के सभी नींद में हैं
रही रोशनी  श्याम चूनर लपेटे, अभी कल्पनाएँ गगन सीप में हैं 
लहर कोई उमड़ी नहीं सिन्धु में जो किनारे से जा बात कोई संवारे
सपन को निमंत्रण रहा भेजता मैं,छुपी दस्तकें अजनबी द्वीप में हैं
 
 
रहे ताकते सरगमों के सभी सुर, हुये तार खामोश सारंगियों के
फ़िसल्ती रही होंठ की कोर पर से गज़ल ने कोई नज़्म जो गुनगुनाई
उबासी समेटे रहे खिड्कियूं पर सकल सरजना के निमिष लड़खड़ाते
हवाओं की थिरकन रही प्रश्न ओढ़े, न संभव हुआ पत्र कुछ भी सुनाते
 
बिछी पंथ पर दृष्टि की चादरें जो बिना स्पर्श के रह गईं चांदनी सी
क्षितिज के सिरे तक टंगा शून्य केवल धुँआसा न हो कोई आकार उभरा
उठा टुटती डोर के चन्द टुकड़े नहीं उंगलियां बुन सकी हैं दुशाला
ना आया पुन:: चित्र बन सामने भी गया डूब स्मृति की गली में जो मुखड़ा
 

बुने मंत्र जितने कभी साधना को नहीं कोई सुर की चढ़ा  पालकी में
रही दीप की वर्तिका थरथराती ना ढाढस अनिश्चय ने कोई बंधाया
सूना था टपकती सुधा है निशा में,टंके  व्योम पर चौदहवें चन्द्रमा से
हथेली बढी ड़ी की बढी रहगई  है  नहीं आंजुरी में अभी कुछ समाया

No comments: