Monday, February 18, 2013

ये कैदे बामशक्कत

ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है
मैं सोचता हूँ पाया किस बात का सिला है


दीवार हैं कहाँ जो घेरे हुए मुझे है
है कौन सी कड़ी जो बांधे हुए पगों को
मुट्ठी में भींचता है इस दिल को क्या हवाएं
है कौन सा सितम जो बांधे हुए रगों को
धमनी में लोहू जैसे जम कर के रुक गया है
धड़कन को ले गया है कोई उधार जैसे
साँसों की डोरियों में अवगुंठनों के घेरे
हर सांस मांगती है मज़दूरियों के पैसे

ये कौन से जनम की बतला मुझे खता है
जो कैदे वामाशाक्कत ये तूने की अता है
हो काफ़िये के बिन ज्यों ग़ज़लों में शेर कोई
बहरो वज़न से खारिज आधी लिखी रुबाई
इस ज़िंदगी का मकसद बिखरा हुआ सिफर है
स्याही में घुल चुकी है हर रात की जुन्हाई
आवारगी डगर की हैं गुमशुदा दिशायें
हर दर लगाये आगल उजड़े हुये ठिकाने
कल की गली में खोया लो आज ,कल हुआ फिर
अंजाम कल का दूजा होगा ये कौन माने

खाली फ़लक से लौटी दिल की हर इक सदाहै
क्या कैदे बामशक्कत ये तूने की अता है

काँधे की एक झोली उसमें भी हैं झरोखे
पांवों के आबलो की गिनती सफर न गिनता
सुइयां कुतुबनुमा की करती हैं दुश्मनी अब
जाना किधर है इसका कोई पता ना मिलता
हर एक लम्हा मिलता होकर के अजनबी ही
अपनी गली के पत्थर पहचान माँगते हैं
सुबह से सांझ सब ही सिमटे हैं दो पलों में
केवल अँधेरे छत बन मंडप सा तानते हैं

अपना कहीं से कोई मिलता नहीं पता है
क्या कैदे बामशक्कत ये तूने की अता है।

Monday, February 4, 2013

अभी गीत कोई नहीं होंठ छूता

अभी गीत कोई नहीं होंठ छूता  अभी भाव मन के सभी नींद में हैं
रही रोशनी  श्याम चूनर लपेटे, अभी कल्पनाएँ गगन सीप में हैं 
लहर कोई उमड़ी नहीं सिन्धु में जो किनारे से जा बात कोई संवारे
सपन को निमंत्रण रहा भेजता मैं,छुपी दस्तकें अजनबी द्वीप में हैं
 
 
रहे ताकते सरगमों के सभी सुर, हुये तार खामोश सारंगियों के
फ़िसल्ती रही होंठ की कोर पर से गज़ल ने कोई नज़्म जो गुनगुनाई
उबासी समेटे रहे खिड्कियूं पर सकल सरजना के निमिष लड़खड़ाते
हवाओं की थिरकन रही प्रश्न ओढ़े, न संभव हुआ पत्र कुछ भी सुनाते
 
बिछी पंथ पर दृष्टि की चादरें जो बिना स्पर्श के रह गईं चांदनी सी
क्षितिज के सिरे तक टंगा शून्य केवल धुँआसा न हो कोई आकार उभरा
उठा टुटती डोर के चन्द टुकड़े नहीं उंगलियां बुन सकी हैं दुशाला
ना आया पुन:: चित्र बन सामने भी गया डूब स्मृति की गली में जो मुखड़ा
 

बुने मंत्र जितने कभी साधना को नहीं कोई सुर की चढ़ा  पालकी में
रही दीप की वर्तिका थरथराती ना ढाढस अनिश्चय ने कोई बंधाया
सूना था टपकती सुधा है निशा में,टंके  व्योम पर चौदहवें चन्द्रमा से
हथेली बढी ड़ी की बढी रहगई  है  नहीं आंजुरी में अभी कुछ समाया

Sunday, February 3, 2013

नया आज इतिहास लिखें हम

नया आज इतिहास लिखें हम
 
लिखें कथायें जो अंकित हैं आज हुईं युग की करवट पर
शासन का अधिकार हाथ में लेकर यहाँ शिखंडी बैठे
धूर्त शकुनि के अभिमंत्रित पासों से कर गठजोड़ निरन्तर
हर बाजी पर अपनी जय का कर प्रबन्ध मन में हैं ऐंठे
 
यह भी लिखें कलम कहती है जितना लिखे वही पड़ता कम
नया आज इतिहास लिखें हम
 
लिखें गल्प का नाम पा गये यहाँ सभी वे नाम सुने जो
भगतसिंह,बटुकेश्वर, बिस्मिल सभी अलिफ़-लैला के किस्से
बोस ,शिवा,आज़ाद तांतिया सभी कल्पना की उड़ान थे
दरबारी हर एक अपरिचित होकर रहा सदा ही जिससे
 
लिखें उजाले को दोपहरी में आ निगल लिया करता तम
नया आज इतिहास लिखें हम
 
लिखें देश में चीर हरण की घटना होती थी रोजाना
लिखें नित्य ही दुशासन के अट्टहास से दिशा गूँजती
लिखें यहां पर न्यायपालिका रही कैद होकर मुट्ठी में
लिखें अंधेरे में अन्धों को यहां दूर की रही सूझती
 
लिखें यहां पर पीर देख कर आंख नहीं हो पाती थी नम
नया आज इतिहास लिखें हम
 
 
लिखें यहां पर आदर्शों की नई एक पीढ़ी जन्मी थी
यहां पान की दोकानें पर होती रहीं समस्यायें हल
छिद्रान्वेषण को तत्पर थी रही मानसिकता जन जन की
यहां भगीरथ रखे कैद में अपनी ही ला गंगा का जल
 
हर दिन ऐसा पहले जैसा कोई भी तो हुआ नहीं सम
नया आज इतिहास लिखें हम
 
लिखें यहाँ पर प्रतिपादित थी नित ही नूतन परिव्हाषायें
जिसका जैसा मन उसने था वैसा ही निष्कर्ष निकाला
लिखें प्रतिष्ठा पा लेने की अभिनव आकाँक्षा पलती थीं
लिखें पूज्य वह हुआ किया हि जिसने बड़ा कोई घोटाला
 
आर्त्तनाद को ढक लेती थी लिखें यहाँ पायल की छम छम
नया आज इतिहास लिखें हम.