Monday, September 24, 2012

तुम धड़कन में

तुम धड़कन में तुम सांसों में, अनगिन बार गया दुहराय
तुम तो मेरे कम्प्यूटर के चित्रपटल पर छाई रहती
कान्फ़्रेनस की कालें हो या मींटिन्ग हो या हो कम्यूटिन्ग
लगता है हर घड़ी पास तुम आकर मुझसे बातें करतीं
 
तुम ही रही वर्ड एक्सेल में और कैड* में चित्र तुम्हारे
डेटा प्रासेसिंग को मैने जब भी कोई फ़ायल खोली

Thursday, February 9, 2012

जो लिखा था हाथ की रेखाओं में


प्रश्न हम सुलझा नहीं पाये कभी
जो लिखा था हाथ की रेखाओं में
और उसकी गुत्थियों को थाम कर
उत्तरों की राह में भटका किये

ज्ञान गीता का हमारे पास था
सत्य भी था माफ़लेषु का पता
वाधिकारस्ते हमें कर्मण्य है
सौंप कर हमको गया विश्वास था
किन्तु दर्पण की किसी परछाईम से
हम स्वयं को ही भ्रमित करते रहे
एक उजड़े और निर्जन पंथ में
बाल संध्यादीप को धरते रहे

राह में पग भी बढ़ाये, तो सदा
साथ अपने भोर का तारा लिये

भाग्य में जो है लिखा होगा वही
बन मलूकादास यह कहते रहे
जो हवा की झालरी आई निकट
उंगलियाँ उसकी पकड़ बहते रहे
ये ना सोचा एक पल को भी तनिक
और भी कुछ पृष्ठ हैं इस लेख के
काल की गतियां बदल सकते सहज
जोड़ कर निशचय स्वयं संकल्प से

बाँह में भर कर प्रतीक्षा रह गये
कल सुखद संदेश लायेम डाकिये

था भले सीमाओं का अपनी पता
जानते थे नभ पहुँच से दूर है
किन्तु अपने को छलावा दे कहा
दोष विधि का है, समय ही क्रूर है
ये नहीं स्वीकार पाये हम कभी
गंध रह सकती मिली झंझाओं में
हम उसी को शीश पर धरते रहे
जो लिखा था हाथ की रेखाओं में

ताक पर विज्ञान को लटका दिया
तर्क रख छोड़े उठा कर हाशिये

Wednesday, February 8, 2012

वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा


सीपियों में मोतियों की लग गईं लड़ियां संवरने
वाटिकाओं में कपोलों की लगे फिर फूल खिलने
कोर पर आकर अधर के रुक गया कोई सितारा
वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा

धुल गये पल सब अनिश्चय के ह्रदय से
खोल परदा रश्मियाँ फिर मुस्कुराईं
बन्दिनी थी भावना मन के विवर में
ज्योत्सना को ओढ़ फिर से जगमगाईं
रंग उजड़े रंग में फिर से भरे नव
फ़ाग छेड़े कुछ नये पुरबाईयों ने
एक बादल को लिया भुजपाश में भर
कसमसाकर थक रही अंगड़ाईयों ने

स्वप्न ने शॄंगार कर निज को संवारा
वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा

रात की सूनी पड़ी पगडंडियों पर
पालकी आई उतर निशिगंध वाली
वेणियों के पुष्पगुच्छों से इतर ले
माँग अपनी नव उमंगों से सजा ली
लग पड़ी बुनने छिटकती रश्मियों से
भोर के पथ में बिछाने को गलीचे
नीर ले सौगंध के आभास वाला
क्यारियाँ यों में फिर नये विश्वास सींचे

नोन राई ले कलुष सारा उतारा
वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा

कुछ नये अध्याय खोले रागिनी ने
पीर की सारंगियों की धुन बदलकर
चढ़ गईं मुंडेर अभिलाषायें नूतन
कामना की सीढ़ियों पर पांव धर कर
तोड़ कर तटबन्ध सारे संयमों के
जाह्नवी निर्बाध उमड़ी भावना की
ज़िन्दगी के तप्त मरुथल में लगा यौं
आ गईं घिर कर घटायें साधना की

ढल गया सारा सुधा में अश्रु खारा
वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा

Tuesday, February 7, 2012

खुली आज स्मृति की मंजूषा

संध्या के ढलने से पहले अम्बर की देहरी पर आकर
खड़ा हो गया चाँद दूज का प्रश्नसूचियाँ लिये हाथ में
उसकी दृष्टि साधनाओं से खुली आज स्मृति की मंजूषा
गीत लिख गये थे जब अनगिन बिना बात ही,बात बात में

यौवन से ले विदा गई थी मोड़ तलकउम्र साथ में लेकर बचपन की गठरी
नयन वादियों में सपनों की अठखेली,होती निशादिबस लहरों की करवट सी
तितली के पंखों पर बूटों सी आशा और भावना ओस गिरी ज्यों पांखुर पर
चित्र कल्पना दिन के पृष्ठों पर रँगती, डगर लगा करती थी हर इक पनघट सी

वे सब दिवस खुले पत्रों से उड़ते पंछी के पर जैसे
आज अचानक आकर मुझको आवाजें दे रहे रात में
उनके शब्दों की सरगम से खुली आज स्मृति की मंजूषा
गीत लिख गये थे जब अनगिन बिना बात ही,बात बात में

करती थी घोषणा घड़ी दस बजने की, दृष्टि गली में जाकर के बिछ जाती थी
हरकारे की पदचापें सुन पाने को, कान हवा से चुप रहने को कहते थे
आतुरता अधीर हो होकर खिड़की के पल्लों को बस थामे लटकी रहती थी
शकुन अपशकुन आशंकायें ले लेकर अभिलाषाओं को नित घेरे रहते थे

संदेशों के शब्द लिये जो हर पल मन को महकाते थे
वे गुलाब के फूल रहे जो छुप कर के मन की किताब में
उनकी उड़ी गंध सहसा ही खुली आज स्मृति की मंजूषा
गीत लिख गये थे जब अनगिन बिना बात ही,बात बात में

अग्नि लपट जब सूत्र एक सिन्दूरी बन, बांध गई थी मन के रसभीने बंधन
सिक्त चांदनी में जूही के फूलों से वे पल चित्र खींचते थे जो पाटल पर
उनसे छिटकी हुई रंगमय आभायें, कात कात सपनों के सतरंगी धागे
नये नये सन्दर्भ बनाया करती थीं आगत के नित कोरे श्वेता आँचल पर

कितने ढले शिल्प में अपने कितने फिर आधार हो गये
नीर चढ़ाया मनकामेश्वर कितनी संध्या साथ साथ में
वे पल फिर उभरे नयनों में खुली आज स्मृति की मंजूषा
गीत लिख गये थे जब अनगिन बिना बात ही,बात बात में

Monday, February 6, 2012

पुरबाई के साथ घड़ी भर को बह जाएँ (२०० वीं ) प्रस्तुति

उभरा करते भाव अनगिनत मन की अंगनाई में पल पल
कोई बैठे पास चार पल तो थोड़ा सा उसे बताएं

दालानॉ में रखे हुए गमलों में उगे हुए हम पौधे
जिनकी चाहत एक घड़ी तो अपनी धरती से जुड़ पायें
होठों को जो सौंप दिए हैं शब्द अजनबी आज समय ने
उनको बिसरा कर बचपन की बोली में कुछ तो गा पायें

लेकिन ओढ़े हुए आवरण की मोटी परतों के पीछे
एक बार फिर रह जाती है घुट कर मन की अभिलाषाएं

अटके हुए खजूरों पर हम चाहें देखें परछाई को
जो की अभी तक पदचिह्नों से बिना स्वार्थ के जुडी हुई है
पीठ फेर कर देख लिया था किन्तु रहे असफल हम भूलें
घुटनों की परिणतियाँ निश्चित सदा उदर पर मुडी हुई हैं

यद्यपि अनदेखा करते हैं अपने बिम्ब नित्य दर्पण में
फिर भी चाहत पुरबाई के साथ घड़ी भर को बह जाएँ

फागुन की पूनम कार्तिक की मावस करती है सम्मोहित
एक ज्वार उठता है दूजे पल सहसा ही सो जाता है
लगता तो है कुछ चाहत है मन की व्याकुलता के अन्दर
लेकिन चेतन उसको कोई नाम नहीं देने पाटा है

पट्टी बांधे हुए आँख पर एक वृत्त की परिधि डगर कर
सोचा करते शायद इक दिन हम अपना इच्छित पा जाएँ