Monday, January 31, 2011

शब्द नहीं बतला पाते हैं.

जो कहते हैं शब्द सदा वह उनका अर्थ नहीं होता है
और अर्थ जो होता उसको शब्द कहाँ बतला पाते हैं

भाषा की सीमा तो केवल शब्दों की सामर्थ्य रही है
कितना व्यक्त करें निर्भर है कितना उनमें होती क्षमता
काट पीट कर एक भाव को बिठला देना है सांचे में
व्याख्यित न कर पाना सचमुच शब्दों की ही तो दुर्बलता

उड़ना चाहा करते मन के भाव निरन्तर नील गगन में
लेकिन शब्दों के पर उनको कब उड़ान भरवा पाते हैं

दृष्टि किरन के सम्मोहन से जागी हुई ह्रदय की धड़कन
कहाँ शब्द की सीमाओं में, विस्तारित ढलने पाती है
घड़ियाँ आतुर मधुर मिलन की या बिछोह के पल एकाकी
भला शब्द की सरगम उनको कब बतलाओ गा पाती है

तंत्री की वीणा ने छेड़ी जन भी कोई रागिनी कोमल
उलझे रह जाते अक्षर में शब्द नहीं बतला पाते हैं

शब्द नहीं जो शब्दों की कातरता को ही वर्णित कर दें
शब्द नहीं जो शब्दों में कर सकें व्यक्त मन की भाषायें
शब्द नहीं जो आ होठों पर करें शब्द की ही परिभाषा
शब्द नहीं जो ढाई अक्षर की बतला पायें गाथायें

रह रह कर अभिव्यक्त न कर पाने की अपनी असफ़लतायें
मन मसोस कर रह जाते हैं शब्द नहीं बतला पाते हैं

Wednesday, January 26, 2011

व्याख्यायें आज के गणतंत्र की

कहकहे तो रह गये सब
योजनाओं में उलझ कर
वक्ष में चुभते रहे
आश्वासनों के शूल तीखे
व्याख्यायें आज के
गणतंत्र की दूजी करें जो
प्रार्थना उससे जरा कुछ
इस समय के साथ सीखे

हो रही नित ही प्रगति तो
है कहाँ इंकार कोई
जो रखा रच राम ने
होता रहा हर बार सोई
फ़ायलों से तो निकल कर
गांव तक सड़कें चली थीं
किन्तु बिजली के अंधेरे में
हमेशा राह खोई

कान पर स्टीरियो के
हेडफोनों को लगाये
व्यस्त दरबारी सुने कब
द्वार कितना कोई चीखे
व्याख्यायें आज के
गणतंत्र की दूजी करें जो
प्रार्थना उससे जरा कुछ
इस समय के साथ सीखे

जी लगाने के लिये ही
था किया जी का प्रबन्धन
लग गया जी, हो गया जी
और विचलित क्या करें हम
मिल नहीं पाता सभी का
जी हमारे एक जी से
इसलिये दो जी बनाये
एक धड़के एक खन खन

रस्सियों को कुंडिय़ों को
जाँच कर टाँके सदा पर
टुटते आये यहाँ पर
बिल्लियों के भाग छींके
व्याख्यायें आज के
गणतंत्र की दूजी करें जो
प्रार्थना उससे जरा कुछ
इस समय के साथ सीखे

Monday, January 3, 2011

आ गया फिर नया साल है

फिर समय आ गया कामनायें करूँ



मोड़ पर आ गया फिर नया साल है






कामना है यही, आपके द्वार पर


चाँदनी सर्वदा मुस्कुराती रहे


धूप आँगन में पीढ़े पे बैठी रहे


और हवा मलयजी गुनगुनाती रहे






इन्द्रधनु के रँगोंं में रँगी सांझ हो


भोर केसर की क्यारी सी महकी रहे


पुरवा बाहों का झूला झुलाती रहे


आरजुयें पलाशों सी दहकी रहें






इस नये वर्ष में शिल्प पायें सपन


मंज़िलें चल स्वयं द्वार आती रहें


आपकी कीर्ति के भाल पर सूर्य की


रश्मियाँ हर घड़ी जगमगाती रहें.