Monday, November 22, 2010

फिर इक्कीस नवम्बर आया

प्राची और प्रतीची उत्तर दक्षिण सब ने मिल कर भेजे


एक एक कर सुमन पिरोकर अपने भाव भरे संदेशे

रजत जयन्ती के आँचल पर वे कढ़ गए बूटियाँ बन कर

वर्ष हुए उनतीस पंथ में जीवन के जो साथ सहेजे



लगता मगर बात कल की है जब परिचय ने जोड़े धागे

अग्निसाक्षी करके हमने जब अपने अनुबंधन बांधे

आंधी बिजली धूप पौष सावन सब मिल कर बंटे निरंतर

निर्णय रहे एक ही हमने जब जब आराधन आराधे



फिर भी जाने क्यों लगता है हर इक दिन कुछ नया नया सा

उगी भोर का पाखी कह कर कुछ अनचीन्हा आज गया सा

फिर से नूतन हो जाते हैं सात पगों के वचन सात वे

जिनकी धुन में जीवन ने पाया था सच में अर्थ नया सा

3 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

राकेश जी, इस बार तो मैं गलत नहीं हो सकती। विवाह की वर्षगाँठ पर बधाई स्‍वीकार करें।

निर्मला कपिला said...

विवाह की वर्षगाँठ पर बधाई।

विनोद कुमार पांडेय said...

राकेश जी, कविता के माध्यम से आपने अपने वैवाहिक वर्षगाँठ को खूब वर्णित किया..वैवाहिक वर्षगाँठ की बहुत बहुत बधाई..प्रणाम