Thursday, November 11, 2010

हर दिवस ही यहाँ पर विजय पर्व हो.

नाम यौं विश्व में जगमगाने लगा
कुछ सितारे उगे आ गगन में नये
आँख में जो बसे स्वप्न बूढ़े हुए
यूँ लगा पी सुधा फिर युवा होगये
आस के इन्द्रधनुषी पटल ने कहा
अब ये आश्वासनों का भी सन्दर्भ हो
हर दिवस ही यहाँ पर विजय पर्व हो.


यूँ लगा इक नई भोर उगने लगी
रुत सुहानी हुई नव वधू की तरह
पाखियों के नये राग छिड़ने लगे
गन्ध से लग रहा भर रही हर जगह
और अँगनाई कहने लगी सांझ को
उसके प्रांगण में आ गान गन्धर्व ह
हर दिवस ही यहाँ पर विजय पर्व हो.



सूर्य की हर किरण छाँटने लग गई
जो तिमिर का खड़ा मूर्ति बन कर अहम
हर गलत प्रश्न हल हो गया आप ही
बह गया मन से हिम की शिला सा वहम
इस डगर पर चले कोई भी मैं नही
न ही तुम हो कोई, जो भी हो सर्व हो
हर दिवस ही यहाँ पर विजय पर्व हो.

1 comment:

निर्मला कपिला said...

सुन्दर सार्थक सन्देश देती रचना। बधाई।
इस डगर पर चले कोई भी मैं नही
न ही तुम हो कोई, जो भी हो सर्व हो
हर दिवस ही यहाँ पर विजय पर्व हो.
शुभकामनायें।