जिन्हें छोड़ हम पीछे आये, उनकी दशा वही बस जानें
लेकिन सहसा एकाकीपन में उदास हो जाते हैं हम
पग चुम्बन को हमें विदित है आतुर अब भी वह पगडंडी
जिस पर से चौपाल निहारी थी आते,पीछे मुड़ कर के
पीपल की वह झुकी हुई सी बूढ़ी शाखा बाट जोहती
जिस पर लटकाते थे धागे,सन्ध्या को मन्नत कर कर के
उनकी मौन पुकारों का स्वर बादल के डोले चढ़ आता
है तब सांझ सवेरे आंखें अकस्मात हो जाती हैं नम
दरवाजे पर नजर टिकाये बैठा होगा लंगड़ा टेसू
दीवाली के दिये अनगिनत जिसके साथ जलाये हमने
अटक होगी अभी नीम की डालों पर वे कटी पतंगें
जिनके साथ उड़ा करते थे नभ में रंग बिरंगे सपने
होता है कुछ भान इस तरह,ये सब महज भुलावा ही है
किन्तु न जाने क्यों मन इनसे बचने का न करता उपक्रम
अब भी तीज तला करती है शायद वहां तई में घेवर
अब भी उलझा करते होंगें फ़ैनी के लच्छों में लोचन
अब भी पंडा हुआ प्रतीक्षित हो संभव विश्राम घाट पर
लहर घटायें करती होंगी मंदिर में अब भी सम्मोहन
बढ़ आये हैं लगता अपनी परछाई से भी अब आगे
प्रगति मान अपनाया जिसको,लगता है वह मति का था भ्रम
वह कुम्हार का चाक, और वह बूढ़े बैलों वाला तेली
धोबी ग्वाला और ठठेरा,तकनीकी वह सन्तराज भी
वे बजाज,दर्जी हलवाई नाई पनवाड़ी फ़रेटिया
सम्बोधित करते हैं हमको आवाज़ें दे, लगे आज भी
किन्तु रोशनी की वे किरणें हैं वितान के परे दृष्टि के
उठते नहीं पांव जाने को, जंजीरों में जकड़े है तम
Friday, August 27, 2010
Monday, August 16, 2010
मन में दृढ़ विश्वास लिये
पथ में उगती हौं बाधायें
उमड़ उमड़ आयें झंझायें
अवरोधों के फ़न फ़ैलायें
मंज़िल के अनुरागी बढ़ते रहते अनबुझ प्यास लिये
यायावर गति में रहते हैं, मन में दृढ़ विश्वास लिये
अगन उगलती हो दोपहरी
घिरी घटायें हौं या गहरी
लगें घड़ी की सुइयाँ ठहरी
संकल्पों को बाँध,तिमिर का रह रह कर उपहास किये
यायावर चलते रहते हैं,मन में दृढ़ विश्वास लिये
घिरता आये घ्हना कुहासा
पल पल ठोकर खाये आशा
साथ छोड़ती हो अभिलाषा
नये दिवस की अगवानी में दीप्त हुआ आकाश लिये
यायावर चलते रहते हैं,मन में दृढ़ विश्वास लिये
नज़्म कतओं की सभी विधायें
तुकविहीन रहती कवितायें
अपनी ढपली खूब बजायें
कालजयी बस गीत रहा है,अलंकार अनुप्रास लिये
और साधना करें उपासक,मन में दृढ़ विश्वास लिये.
उमड़ उमड़ आयें झंझायें
अवरोधों के फ़न फ़ैलायें
मंज़िल के अनुरागी बढ़ते रहते अनबुझ प्यास लिये
यायावर गति में रहते हैं, मन में दृढ़ विश्वास लिये
अगन उगलती हो दोपहरी
घिरी घटायें हौं या गहरी
लगें घड़ी की सुइयाँ ठहरी
संकल्पों को बाँध,तिमिर का रह रह कर उपहास किये
यायावर चलते रहते हैं,मन में दृढ़ विश्वास लिये
घिरता आये घ्हना कुहासा
पल पल ठोकर खाये आशा
साथ छोड़ती हो अभिलाषा
नये दिवस की अगवानी में दीप्त हुआ आकाश लिये
यायावर चलते रहते हैं,मन में दृढ़ विश्वास लिये
नज़्म कतओं की सभी विधायें
तुकविहीन रहती कवितायें
अपनी ढपली खूब बजायें
कालजयी बस गीत रहा है,अलंकार अनुप्रास लिये
और साधना करें उपासक,मन में दृढ़ विश्वास लिये.
Wednesday, August 11, 2010
टके सेर भी नहीं आजकल
लिखूँ गीत मैं क्योंकर बोलो, कोई नहीं है गाने वाला
और भावनाओं की कीमत टके सेर भी नहीं आजकल
सुविधाओं में बँधी हुई हैं परिभाषायें सम्बन्धों की
सूरज उगते बदला करतीं अनुबन्धों की सभी विधायें
सन्दर्भों पर गहरी परतें चढ़ी धूल की मोटी मोटी
चाहत के प्यालों से बंध कर रह जाती हैं सभी तॄषायें
चढ़े मुलम्मे में हो जातीं चकाचौंध रह रह कर नजरें
खोटे और खरे में अन्तर करता कोई नहीं आजकल
बन्द पड़ी हैं अनुरागों के विवरण थे जिनमें वे पुस्तक
भावों की जो नदियायें थीं वे सारी हो गईं मरुथली
पद्चिन्हों के अनुसरणों की गाथायें कल्पित लगती हैं
और भूमि का स्पर्श नहीं अब कर पाती है कोई पगतली
वाल्मीकि, तुलसी, सूरा के लिखे हुए शब्दों से दूरी
तय कर पाने का भी उपक्रम करता कोई नहीं आजकल
नयनों के सन्देशों में अब ढला नहीं करती है भाषा
मेघदूत से ले कपोत सब होकर कार्यहीन बैठे हैं
भौतिकता के समीकरण में बंध कर हुए ह्रदय सब बन्दी
चुम्बक के ध्रुव भी लगता है साथ साथ अब तो रहते हैं
जितने भी मानक थे उनके अर्थ हुए हैं सारे नूतन
प्रासंगिकता के कारण को कोई पूछता नहीं आज्कल
और भावनाओं की कीमत टके सेर भी नहीं आजकल
सुविधाओं में बँधी हुई हैं परिभाषायें सम्बन्धों की
सूरज उगते बदला करतीं अनुबन्धों की सभी विधायें
सन्दर्भों पर गहरी परतें चढ़ी धूल की मोटी मोटी
चाहत के प्यालों से बंध कर रह जाती हैं सभी तॄषायें
चढ़े मुलम्मे में हो जातीं चकाचौंध रह रह कर नजरें
खोटे और खरे में अन्तर करता कोई नहीं आजकल
बन्द पड़ी हैं अनुरागों के विवरण थे जिनमें वे पुस्तक
भावों की जो नदियायें थीं वे सारी हो गईं मरुथली
पद्चिन्हों के अनुसरणों की गाथायें कल्पित लगती हैं
और भूमि का स्पर्श नहीं अब कर पाती है कोई पगतली
वाल्मीकि, तुलसी, सूरा के लिखे हुए शब्दों से दूरी
तय कर पाने का भी उपक्रम करता कोई नहीं आजकल
नयनों के सन्देशों में अब ढला नहीं करती है भाषा
मेघदूत से ले कपोत सब होकर कार्यहीन बैठे हैं
भौतिकता के समीकरण में बंध कर हुए ह्रदय सब बन्दी
चुम्बक के ध्रुव भी लगता है साथ साथ अब तो रहते हैं
जितने भी मानक थे उनके अर्थ हुए हैं सारे नूतन
प्रासंगिकता के कारण को कोई पूछता नहीं आज्कल
Wednesday, August 4, 2010
प्रतिभाओं की कमी नहीं है--- दो पहलू
प्रतिभाओं की कमी नहीं है--१
चाहत यह वर्चस्व हमारा सदा रहे,हर घड़ी पली है
कुछ भी हो बस एक सदा ही ठकुरसुहाती लगी भली है
बिम्ब न अपना देख सकें पर चाहत है संजय कहलायें
तानसेन सब माने चाहे गर्दभ सुर में गाना गायें
दो लाइन में शब्द जोड़कर कह देते हैं लिखी गज़ल है
और लिख दिया है जो वह ही शाश्वत है सम्पूर्ण अटल है
इधर उधर के शब्द जमाकर उसको कविता कह देते हैं
नई विधा के नये रचयिता हैं, इस भ्रम में रह लेते हैं
प्रश्न उठाता है कोई तो मौन साध कर रह जाते हैं
पढ़ा नहीं साहित्य, भूमि से नाता है बस बतलाते हैं
ऊलजुलूल टिप्पणी देकर आशा बदले में पा जायें
होता हो गुणगान निरख कर पल पल फूलें और अघायें
जिनके बूते पर चलती है आत्मश्लाघा की परिपाटी
बाँटी कभी रेवड़ी जिसने रह रह कर निज को ही बाँटी
उनकी खरपतवारी फ़सलें निमिष मात्र भी थमी नहीं है
हर युग में कुछ ऐसी अद्भुत प्रतिभाओं की कमी नहीं है.
प्रतिभाओं की कमी नहीं है----२
कब आवश्यक यज्ञ होम ही केवल ईश धरा पर लायें
यह आवश्यक नहीं वेदपाठी ही केवल मंत्र सुनायें
राजकुंवर के ही हिस्से में आ पाये अधुनातन शिक्षा
कब आवश्यक बिना पुरोहित के शुभ कार्य नहीं हो पायें
जो अपना संकल्प उठा कर इच्छित प्राप्त किया करते हैं
एक कुदाली से पर्बत का सीना चीर दिया करते हैं
आंजुरि में भर सिन्धु पान की क्षमता जिनके पास रही है
अपनी निष्ठा से जो पाषाणों को प्राण दिया करते हैं
आँखें खुलने से पहले ही सीखा चक्रव्यूह का भेदन
एक गिलहरी के श्रम पर भी उमड़ा है जिनका संवेदन
कोई भी युग हो असफ़लता एकलव्य को नहीं मिली है
अंगुल अष्ट प्रमाण,सुना तो करते सहज लक्ष्य का बेधन
ध्रुव बन जिनकी कीर्ति निशा के नभ में हरपल बनी रही है
जिनके कारण अंतरिक्ष में धरा बिन्दु पर टिकी रही है
और आज की बात करें तो भी बस केवल हमी नहीं है
कोई युग हो, कोई चुनौती, प्रतिभाओं की कमी नहीं है
चाहत यह वर्चस्व हमारा सदा रहे,हर घड़ी पली है
कुछ भी हो बस एक सदा ही ठकुरसुहाती लगी भली है
बिम्ब न अपना देख सकें पर चाहत है संजय कहलायें
तानसेन सब माने चाहे गर्दभ सुर में गाना गायें
दो लाइन में शब्द जोड़कर कह देते हैं लिखी गज़ल है
और लिख दिया है जो वह ही शाश्वत है सम्पूर्ण अटल है
इधर उधर के शब्द जमाकर उसको कविता कह देते हैं
नई विधा के नये रचयिता हैं, इस भ्रम में रह लेते हैं
प्रश्न उठाता है कोई तो मौन साध कर रह जाते हैं
पढ़ा नहीं साहित्य, भूमि से नाता है बस बतलाते हैं
ऊलजुलूल टिप्पणी देकर आशा बदले में पा जायें
होता हो गुणगान निरख कर पल पल फूलें और अघायें
जिनके बूते पर चलती है आत्मश्लाघा की परिपाटी
बाँटी कभी रेवड़ी जिसने रह रह कर निज को ही बाँटी
उनकी खरपतवारी फ़सलें निमिष मात्र भी थमी नहीं है
हर युग में कुछ ऐसी अद्भुत प्रतिभाओं की कमी नहीं है.
प्रतिभाओं की कमी नहीं है----२
कब आवश्यक यज्ञ होम ही केवल ईश धरा पर लायें
यह आवश्यक नहीं वेदपाठी ही केवल मंत्र सुनायें
राजकुंवर के ही हिस्से में आ पाये अधुनातन शिक्षा
कब आवश्यक बिना पुरोहित के शुभ कार्य नहीं हो पायें
जो अपना संकल्प उठा कर इच्छित प्राप्त किया करते हैं
एक कुदाली से पर्बत का सीना चीर दिया करते हैं
आंजुरि में भर सिन्धु पान की क्षमता जिनके पास रही है
अपनी निष्ठा से जो पाषाणों को प्राण दिया करते हैं
आँखें खुलने से पहले ही सीखा चक्रव्यूह का भेदन
एक गिलहरी के श्रम पर भी उमड़ा है जिनका संवेदन
कोई भी युग हो असफ़लता एकलव्य को नहीं मिली है
अंगुल अष्ट प्रमाण,सुना तो करते सहज लक्ष्य का बेधन
ध्रुव बन जिनकी कीर्ति निशा के नभ में हरपल बनी रही है
जिनके कारण अंतरिक्ष में धरा बिन्दु पर टिकी रही है
और आज की बात करें तो भी बस केवल हमी नहीं है
कोई युग हो, कोई चुनौती, प्रतिभाओं की कमी नहीं है
Monday, August 2, 2010
वह अनबूझ पल
घुल गये प्रश्न उठते हुए व्योम में
दृष्टि में अनगिनत आये उत्तर उतर
वक्त चलता हुआ भी ठिठक कर रुका
इस अछूते अजाने नये मोड़ पर
हो गया फिर दिवस का निमिष हर विलय
एक ही बिन्दु में दृष्टि की कोर पे
बन हवा की तरंगें बजे हर तरफ़
बांसुरी से उमड़ राग चितचोर के
एक पल यह न्हीं व्याख्यित हो सका
शब्द सब कोष के कोशिशें कर थके
नैन के गांव में आ बटोही बने
कुछ सितारे भरी पोटली धर रुके
मौन क ओढ़ बैठे रहे थे अधर
बोल पाये नहीं थरथरा रह गये
भाव कुछ बाहुओं के सिरे पर रहे
प ही आप में कसमसा रह गये
एक विस्तार आकर सिमटने लगा
स अनागत अनाभूत पल एक में
कुछ भी ज\कहना अस्म्भव हुआ जा रहा है
पास पाया न कहने को कुछ शेष मैं
दृष्टि में अनगिनत आये उत्तर उतर
वक्त चलता हुआ भी ठिठक कर रुका
इस अछूते अजाने नये मोड़ पर
हो गया फिर दिवस का निमिष हर विलय
एक ही बिन्दु में दृष्टि की कोर पे
बन हवा की तरंगें बजे हर तरफ़
बांसुरी से उमड़ राग चितचोर के
एक पल यह न्हीं व्याख्यित हो सका
शब्द सब कोष के कोशिशें कर थके
नैन के गांव में आ बटोही बने
कुछ सितारे भरी पोटली धर रुके
मौन क ओढ़ बैठे रहे थे अधर
बोल पाये नहीं थरथरा रह गये
भाव कुछ बाहुओं के सिरे पर रहे
प ही आप में कसमसा रह गये
एक विस्तार आकर सिमटने लगा
स अनागत अनाभूत पल एक में
कुछ भी ज\कहना अस्म्भव हुआ जा रहा है
पास पाया न कहने को कुछ शेष मैं
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