Wednesday, July 28, 2010

कविता करना तेरे बस की बात नहीं

कविता करना तेरे बस की बात नहीं


तथाकथित कवि कविता करना तीर बस की बात नहीं
तू दिन को दिन कह न पाता और रात को रात नहीं


भरता है तू ठूँस ठूँस कर शब्द सभी बेमतलब के
तेरे अर्थ उड़ा करते हैं आंधी में बन कर तिनके
तू जो लिखता उसको शायद खुदा तलक न समझ सके
तू बदला लेता कविता के पाठक गण से गिन गिन के


सेहरा पहन समझता दूल्हा, लेकिन है बारात नहीं
तेरे बस की बात नहीं


एक पंक्ति में होतीं मात्रा सोलह,दूजी में बत्तीस
प्रश्न कोई पूछे तो रहता है तू सिर्फ़ निपोरे खीस
अपने भ्रम को ज्ञानकोष  का देता आया सम्बोधन
भावों से रहता है तेरा सदा आँकड़ा बस छत्तीस

सूखे हुए ठूँठ पर उगते हैं बासन्ती पात नहीं
तेरे बस की बात नही

तेरे सब सन्दर्भ हड़प्पा के जैसे अवशेष हुये
जिसने तुझे पढ़ा उसके ही मन में भारी क्लेश हुए
तू लाठी के जोर ठूँस देता शब्दों को कविता में
लहराते कुन्तल भी तुझको मैड्यूसा के केश हुए

टूटी तकली पर तू बिल्कुल धागे सकता कात नहीं
तेरे बस की बात नहीं

Monday, July 5, 2010

आँख का पानी--दो चित्र

भाव बन कर शिंजिनी गूँजें शिराओं में
पीर बासन्ती घुले महकी हवाओं में
करवटें मन की पिघलती हों अचानक ही
गूँज हर,रह जाये जब खोकर दिशाओं में
नव रसों में जब मिलें सहसा नये मानी
उस घड़ी बरसात करता आँख का पानी
रागिनी जब कोई आकर राग को छूले
रंग बिखराया हुआ जब फ़ाग को भूले
पाँव लौटें गांव को कर कालियामर्दन
गंध ओढ़े मोतिया, बेला महक फूले
चित्र बन जाये कोई परछाईं अनजानी
उस घड़ी आता उमड़ कर आँख का पानी
हाथ की रेखायें जन अनुकूल हो जायें
नीरजी पांखुर डगर के शूल हो जायें
जब गगनचुम्बी,समय के सिन्धु की लहरें
एक मैदानी नदी का कूल हो जायें
दोपहर में गुनगुनाये रात के रानी
तोड़ देता बांध उस पल आँख का पानी


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बहा आँख का पानी

टुती हुई सपन की डोरी
विरहा व्याकुल एक चकोरी
उस पर ये बरसात निगोड़ी
लिख देती है भिगो पीर में फिर से एक कहानी
बहे आँख का पानी

हिना हथेली आन रचाये
अँगनाई अल्पना सजाये
शहनाई मंगल सुर गाये
कदली खंभॊं पर तारों ने जब भी चूनर तानी
बहे आँख से पानी

साध संवर कर पूरी होले
विधना बंद पिटारी खोले
बिन रुत के पड़ जायें हिंडोले
उतर गोख में आकर गाये इक चिड़िया अनजानी
बहे आँख का पानी