फूलों की पांखुर से फ़िसक रही शबनम सी
साज की मुंडेरों पर थिरक रही सरगम सी
सन्ध्या के आँचल में टाँक रही गुलमोहर
निशिगन्धी महकों में लिपट खड़े मधुवन सी
याद कोई सपना बन, आंखों में तैर गई
उस पल पर जीवन की एक सांस ठहर गई
गंगा की धारा में मांझी के गीतों सी
दादी से सुनी हुई पुरखों की रीतों सी
चम्पा के सिरहाने, जूही के गजरों सी
घूँघट से झाँक रही दुल्हन की नजरों सी
याद कोई सपना बन आँखों में तैर गई
उस पल पर जीवन की एक सांस ठहर गई
लहरों की दस्तक सी, सरिता के कूलों पर
बरखा की बून्दों सी, सावन के झूलों पर
चाँदनी में भीग रहे उपवन के प्रांगण में
पुरबा की सिहरन सी मुस्काते फूलों पर
याद कोई सपना बन, नयनों में तैर गई
उस पल पर जीवन की एक सां स ठहर गई