जो दर्पण से बिछुड़ गये हैं
वे प्रतिबिम्ब हमारे होंगे
सपनों से जुड़ सके नहीं तो
द्रवित नयन के तारे होंगें
संघर्षों की खिली धूप में
पांव तले खोती परछाईं
तपी आग की छाया पीती
चेहरे पर छाई अरुणाई
खुली उंगलियां पकड़ न पातीं
आशा की चादर के कोने
चाहत रहती बन कर रानी
किसी मंथरा की बहकाई
जो हैं बँधे रहे बंधन में
वे ही बहते धारे होंगें
उड़ते हैं जो बादल जैसे
वे संकल्प हमारे होंगे
दॄष्टि पलक की सीमाओं से
आगे जाकर नहीं विचरती
और खिलखिलाहट होठों की
दहलीजों से नहीं बिखरती
अपने ही प्रश्नों के उत्तर में
फिर प्रश्न उठाता है मन
शंकाओं की बस तस्वीरें
रह रह बनतीं और बिगड़ती
जो पल हैं कर चुके समर्पण
फिर जीवित भिनसारे होंगें
हार मान कर ज्पो गर्वित हैं
ढीठ और बजमारे होंगे
पछतावा करता है अपने
दोषों पर मन ही मन कोई
सज्जित करता है समाधि को
अपनी फूल लगा कर कोई
उठी हुई नजरों के आगे
मौन मुस्कुराता रह जाता
पीड़ाओं के अनुबन्धों को
निभा रहा पल पल पर कोई
एक उसी की सांस सांस में
मचले हुए शरारे होंगे
कुछ ऐसे हैं प्रहर, हमारे
जो हैं वही तुम्हारे होंगे
Monday, February 15, 2010
Friday, February 5, 2010
आपका फिर व्यर्थ है कहना लिखूँ मैं गीत कोई
शब्द से होता नहीं है अब समन्वय भावना का
रागिनी फिर गुनगुनाये, है न संभव गीत कोई
खो चुकी है मुस्कुराहट, पथ अधर की वीथिका का
नैन नभ से सावनी बादल विदा लेते नहीं हैं
कंठ से डाले हुए हैं सात फ़ेरे सिसकियों ने
पल दिवस के एक क्षण विश्रांति का देते नहीं है
टूट बिखरी डोरियों के हाथ में टुकड़े उठा कर
बिम्ब से अपने अपरिचित हो ह्रदय की प्रीत रोई
हो गईं वर्तुल सभी रेखायें हाथों में खिंची जो
लौट क आईं वहीं पर थीं चलीं इक दिन जहाँ से
ज़िन्दगी के पंथ की सारी दिशायें दिग्भ्रमित हैं
है अनिश्चित जायेंगी किस ओर आईं हैं कहाँ से
दीप सब अनुभूतियों के टिमटिमा कर बुझ रहे हैं
आस सूनी, इक शलभ को कर सकेगी मीत, खोई
डँस गया है स्वप्न के वटवॄक्ष, फ़न फैलाये पतझर
दॄष्टि के नभ पर उगे हैं सैंकड़ों वन कीकरों के
बुझ गईं सुलगी प्रतीक्षा की सभी चिंगारियाँ भी
चिन्ह पांवों के न बनते पंथ बिखरे ठीकरों पे
धुन न गूँजे बांसुरी की, शुश्क कालिन्दी हुई है
और गगरी रिक्त, संचय का गँवा नवनीत रोई
रागिनी फिर गुनगुनाये, है न संभव गीत कोई
खो चुकी है मुस्कुराहट, पथ अधर की वीथिका का
नैन नभ से सावनी बादल विदा लेते नहीं हैं
कंठ से डाले हुए हैं सात फ़ेरे सिसकियों ने
पल दिवस के एक क्षण विश्रांति का देते नहीं है
टूट बिखरी डोरियों के हाथ में टुकड़े उठा कर
बिम्ब से अपने अपरिचित हो ह्रदय की प्रीत रोई
हो गईं वर्तुल सभी रेखायें हाथों में खिंची जो
लौट क आईं वहीं पर थीं चलीं इक दिन जहाँ से
ज़िन्दगी के पंथ की सारी दिशायें दिग्भ्रमित हैं
है अनिश्चित जायेंगी किस ओर आईं हैं कहाँ से
दीप सब अनुभूतियों के टिमटिमा कर बुझ रहे हैं
आस सूनी, इक शलभ को कर सकेगी मीत, खोई
डँस गया है स्वप्न के वटवॄक्ष, फ़न फैलाये पतझर
दॄष्टि के नभ पर उगे हैं सैंकड़ों वन कीकरों के
बुझ गईं सुलगी प्रतीक्षा की सभी चिंगारियाँ भी
चिन्ह पांवों के न बनते पंथ बिखरे ठीकरों पे
धुन न गूँजे बांसुरी की, शुश्क कालिन्दी हुई है
और गगरी रिक्त, संचय का गँवा नवनीत रोई
Subscribe to:
Posts (Atom)