Wednesday, December 29, 2010

बस इतना अधिकार मुझे दो

"बस इतना अधिकार मुझे दो"
तुमसे माँगू ? कैसे माँगू
याचक कब अधिकारी होता
माँग सके जो अपना इच्छित

मीत ! प्रीत सम्पूर्ण समर्पण
की ही परिभाषा होती है
अगर अपेक्षायें जुड़ जायें
प्रीत अर्थ अपना खोती है
और प्रीत में खोना पाना
देना लेना अर्थहीन सब
प्राप्ति और उपलब्धि प्रीत से
प्रियतम बँधी कहाँ बोलो कब ?

इच्छित ही जब शेष न रहता
खर्च करूँ क्यों शब्दों को फिर
अधिकारों की माँग करे जो
होता  अधिकारों से वंचित

युग ने कितनी बार कहा है
माँगे भीख नहीं मिलती है
झोली फ़ैली हुई सदा ही
भरने में अक्षम रहती है
जहाँ पात्रता है सीपी सी
मोती वहीं सुलभ होते हैं
मरुथल के हिरना बून्दों की
तृष्णा लिये हुए सोते हैं

"बस इतना अधिकार मुझे दो"
नहीं नहीं ये कह न सकूंगा
है संतुष्टि उसी से मेरी
जो आंजुरि में होता संचित.

Monday, November 22, 2010

फिर इक्कीस नवम्बर आया

प्राची और प्रतीची उत्तर दक्षिण सब ने मिल कर भेजे


एक एक कर सुमन पिरोकर अपने भाव भरे संदेशे

रजत जयन्ती के आँचल पर वे कढ़ गए बूटियाँ बन कर

वर्ष हुए उनतीस पंथ में जीवन के जो साथ सहेजे



लगता मगर बात कल की है जब परिचय ने जोड़े धागे

अग्निसाक्षी करके हमने जब अपने अनुबंधन बांधे

आंधी बिजली धूप पौष सावन सब मिल कर बंटे निरंतर

निर्णय रहे एक ही हमने जब जब आराधन आराधे



फिर भी जाने क्यों लगता है हर इक दिन कुछ नया नया सा

उगी भोर का पाखी कह कर कुछ अनचीन्हा आज गया सा

फिर से नूतन हो जाते हैं सात पगों के वचन सात वे

जिनकी धुन में जीवन ने पाया था सच में अर्थ नया सा

Thursday, November 11, 2010

हर दिवस ही यहाँ पर विजय पर्व हो.

नाम यौं विश्व में जगमगाने लगा
कुछ सितारे उगे आ गगन में नये
आँख में जो बसे स्वप्न बूढ़े हुए
यूँ लगा पी सुधा फिर युवा होगये
आस के इन्द्रधनुषी पटल ने कहा
अब ये आश्वासनों का भी सन्दर्भ हो
हर दिवस ही यहाँ पर विजय पर्व हो.


यूँ लगा इक नई भोर उगने लगी
रुत सुहानी हुई नव वधू की तरह
पाखियों के नये राग छिड़ने लगे
गन्ध से लग रहा भर रही हर जगह
और अँगनाई कहने लगी सांझ को
उसके प्रांगण में आ गान गन्धर्व ह
हर दिवस ही यहाँ पर विजय पर्व हो.



सूर्य की हर किरण छाँटने लग गई
जो तिमिर का खड़ा मूर्ति बन कर अहम
हर गलत प्रश्न हल हो गया आप ही
बह गया मन से हिम की शिला सा वहम
इस डगर पर चले कोई भी मैं नही
न ही तुम हो कोई, जो भी हो सर्व हो
हर दिवस ही यहाँ पर विजय पर्व हो.

Friday, November 5, 2010

जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रोशनी

जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रोशनी




आस के पौधे बढे बढ़ कर उनहत्तर हो गए

एक ही बस लक्ष्य बाकी द्रश्य सारे खो गए

वर्तिका जलती रही तेतीस धागों में बंटी

बंध गए बस एक डोरी में हजारों अजनबी

फिर अमावस में खिली आ कर कहे ये चांदनी

दीप ये जलते रहें कायम रहे ये रोशनी



बाद मंथन के सदा ही रत्न जिसने थे उलीचे

जब जलधि लगाने लगा थक सो गया है आँख मीचे

पर सतत भागीरथी आराधना फलने लगी तो

ईक नई सीपी उगाने लग गई नूतन फसल को

मुस्कुरा गाने लगी वह धूप जो थी अनमनी

दीप ये जलते रहें कायम रहे ये रोशनी



ये घटित कहता न धीमी आग हो विश्वास की

चूनारें धानी रहें मन में हमेशा आस की

ठोकरों का रोष पथ में चार पल ही के लिए

आ गए गंतव्य अपने आप जब निश्चय किये

और संवरी है शिराओं में निरंतर शिंजिनी

दीप ये जलते रहें,कायम रहे ये रोशनी

Thursday, October 28, 2010

प्रियतम तेरे इन्तज़ार में

प्रियतम तेरे इन्तज़ार में पिछले दो महीने में मैने

घर में जितनी मूँग रखी थी वो सारी की सारी दल दी



हफ़्ते भर का वादा करके गये पर्यटन को तुम बाहर

और कहा था थोड़ा सा है काम उसे कर के आता हूँ

थोड़े से पकवानों की तुम फ़रमाईश कर मुझे गये थे

कहकर अभी लौटकर इनको साथ तुम्हारे मिल खाता हूँ



इसीलिये मैने बज़ार से ताजा सभी मंगा कर रखे

जीरा,धनिया,सौंफ़ हींग के संग संग अजवायन और हल्दी



रबड़ी का कुल्ला मंगवाया था हलवाई से जो परसौं

डेढ़ किलो वह मैने ही बस जैसे तैसे निपटाया है

कलाकंद,रसगुल्ले,लड्डू, बालूसाही और जलेबी

इनके सिवा न कुछ भी मैने बिना तुम्हारे प्रिय,खाया है



पिट्ठी जो मँगवा रक्खी थी दहीबड़ों की खातिर मैने

दरवाजे पर नजर टिकाये,जाने कैसे मैने तल दी



लिए गिट्स के पैकेट जो थे चार रवे की इडली वाले

उन्हें बनाया, साथ ढोकला दो पैकेट तैयार किया था

और पड़ोसन ने भी परसौं चार पांच सौ बना लिए थे

दाल मूंग की भरे समोसों का मुझको उपहार दिया था



बाट जोहते मीत तुम्हारी पता नहीं क्या मुझे हो गया

मेरी परछाईं आकर के इन सब को खा पीकर औ चल दी

Tuesday, September 28, 2010

जाते हुए सितम्बर का एक दिन

लाल पीली चूनरी ओढ़े हुए शाखायें हँसतीं
ये सितम्बर मास जाने के लिये सामान बाँधे
साझ के पल ग्रीष्म में फ़ैले हुए थे धूप खाकर
ओढ़ने अब लग गये तन पर सलेटी शाल सादे

तापक्रम सीढ़ी उतरता आ रहा वापिस धरा पर
लग गयीं बहने हवा में कुछ अजानी सी तरंगें

खिड़कियों पर भोर की आ बैठता झीना कुहासा
सूर्य आंखों को मसलते ले रहा रह रह उबासी
रात की अंगनाईयों में दीप से जल कर सितारे
भूमिका लिखने लगे आये शरद की पूर्णमासी

एक सिहरन सी लगी है दौड़ने हर इक शिरा में
ले रही अंगड़ाईयां मन में उमग अनगिन उमंगें

पाखियों ने दूत भेजे हैं पुन: दक्षिण दिशा में
नेघ फ़सलें ला रहे सँग में कपासी ओटने को
ऊन के गोले सुलझ कर टँक गये फिर अलगनी पर
और बन पटुआ दिवस किरणें बटोरे पोटने को

घाटियों से लौट कर आती हुई आवाज़ कोई
उड़ रही आकाश पर मन के बनी पीली पतंगें

गीतकार
२७ सितम्बर २०१०

Monday, September 20, 2010

मुहब्बत में

लुटा उनकी अदाओं से जिसे सब दिल बताते हैं


न जाने क्यों हमें सब लोग अब गाफ़िल बताते हैं

मुहब्बत है नहीं सस्ती, बहुत खर्चा हुआ इसमें

ये आये आज क्रेडिट कार्ड वाले बिल बताते हैं



कहा हमने मुहब्बत में जो उनसे एक दिन गाकर

कहें तो मांग में भर दें, सितारे चांद हम लाकर

बड़े अन्दाज़ से बोले, न जाओ दूर इतना तुम

हमें बस पांच केरट का महज स्टोन दो लाकर

Friday, September 10, 2010

मैने तो बस शब्द लिखे हैं

जो गीतों का सॄजन कर रहा वो मैं नहीं और है कोई
मैने तो बस कलम हाथ में अपने लेकर शब्द लिखे हैं

जो ढले हैं छंद में वे भाव किसके हैं, न जाने
जो पिरोये बिम्ब हैं वे हैं नये या हैं पुराने
अन्तरों में कौन से सन्दर्भ की गांठें लगीं हैं
और किस की लय लगी है गीत की सरिता बहाने

भटक रहा हूँ मैं भी यह सब प्रश्न लिये द्वारे चौबारे
किन्तु अंधेरे ही छाये हर इक द्वारे पर मुझे दिखे हैं

किस तरह बन फूल संवरे कागज़ों पर आन अक्षर
रह गये हैं शब्द किसकी रागिनी में आज बंधकर
कौन करता है प्रवाहित इस सरित को, कौन जाने
मैं धुंये के बिम्ब में ही रह गया लगता उलझकर

शायद कोई किरन ज्योति की आये आकर मुझे बताये
क्या है वह जिस पर इस मन के आशा व विश्वास टिके हैं

कौन सहसा खींच देता चित्र,श्ब्दों में पिरोकर
व्योम भरता बिन्दु में, ला एक मुट्ठी में सम्न्दर
प्रेरणा में कल्पना में चेतना में भावना में
फूँकता अभिव्यक्तियों में धड़कनें अपनी समोकर

ढाल रहा है कौन न जाने स्वर के सांचे में शब्दों को
किसका है अलाव न जाने,जिसमें ये सब सदा सिके हैं

Friday, August 27, 2010

जाने क्यों उदास हो ते हम

जिन्हें छोड़ हम पीछे आये, उनकी दशा वही बस जानें
लेकिन सहसा एकाकीपन में उदास हो जाते हैं हम

पग चुम्बन को हमें विदित है आतुर अब भी वह पगडंडी
जिस पर से चौपाल निहारी थी आते,पीछे मुड़ कर के
पीपल की वह झुकी हुई सी बूढ़ी शाखा बाट जोहती
जिस पर लटकाते थे धागे,सन्ध्या को मन्नत कर कर के

उनकी मौन पुकारों का स्वर बादल के डोले चढ़ आता
है तब सांझ सवेरे आंखें अकस्मात हो जाती हैं नम
दरवाजे पर नजर टिकाये बैठा होगा लंगड़ा टेसू
दीवाली के दिये अनगिनत जिसके साथ जलाये हमने
अटक होगी अभी नीम की डालों पर वे कटी पतंगें
जिनके साथ उड़ा करते थे नभ में रंग बिरंगे सपने

होता है कुछ भान इस तरह,ये सब महज भुलावा ही है
किन्तु न जाने क्यों मन इनसे बचने का न करता उपक्रम
अब भी तीज तला करती है शायद वहां तई में घेवर
अब भी उलझा करते होंगें फ़ैनी के लच्छों में लोचन
अब भी पंडा हुआ प्रतीक्षित हो संभव विश्राम घाट पर
लहर घटायें करती होंगी मंदिर में अब भी सम्मोहन

बढ़ आये हैं लगता अपनी परछाई से भी अब आगे
प्रगति मान अपनाया जिसको,लगता है वह मति का था भ्रम
वह कुम्हार का चाक, और वह बूढ़े बैलों वाला तेली
धोबी ग्वाला और ठठेरा,तकनीकी वह सन्तराज भी
वे बजाज,दर्जी हलवाई नाई पनवाड़ी फ़रेटिया
सम्बोधित करते हैं हमको आवाज़ें दे, लगे आज भी

किन्तु रोशनी की वे किरणें हैं वितान के परे दृष्टि के
उठते नहीं पांव जाने को, जंजीरों में जकड़े है तम

Monday, August 16, 2010

मन में दृढ़ विश्वास लिये

पथ में उगती हौं बाधायें

उमड़ उमड़ आयें झंझायें

अवरोधों के फ़न फ़ैलायें

मंज़िल के अनुरागी बढ़ते रहते अनबुझ प्यास लिये

यायावर गति में रहते हैं, मन में दृढ़ विश्वास लिये



अगन उगलती हो दोपहरी

घिरी घटायें हौं या गहरी

लगें घड़ी की सुइयाँ ठहरी

संकल्पों को बाँध,तिमिर का रह रह कर उपहास किये

यायावर चलते रहते हैं,मन में दृढ़ विश्वास लिये



घिरता आये घ्हना कुहासा

पल पल ठोकर खाये आशा

साथ छोड़ती हो अभिलाषा

नये दिवस की अगवानी में दीप्त हुआ आकाश लिये

यायावर चलते रहते हैं,मन में दृढ़ विश्वास लिये



नज़्म कतओं की सभी विधायें

तुकविहीन रहती कवितायें

अपनी ढपली खूब बजायें

कालजयी बस गीत रहा है,अलंकार अनुप्रास लिये

और साधना करें उपासक,मन में दृढ़ विश्वास लिये.

Wednesday, August 11, 2010

टके सेर भी नहीं आजकल

लिखूँ गीत मैं क्योंकर बोलो, कोई नहीं है गाने वाला
और भावनाओं की कीमत टके सेर भी नहीं आजकल

सुविधाओं में बँधी हुई हैं परिभाषायें सम्बन्धों की
सूरज उगते बदला करतीं अनुबन्धों की सभी विधायें
सन्दर्भों पर गहरी परतें चढ़ी धूल की मोटी मोटी
चाहत के प्यालों से बंध कर रह जाती हैं सभी तॄषायें

चढ़े मुलम्मे में हो जातीं चकाचौंध रह रह कर नजरें
खोटे और खरे में अन्तर करता कोई नहीं आजकल

बन्द पड़ी हैं अनुरागों के विवरण थे जिनमें वे पुस्तक
भावों की जो नदियायें थीं वे सारी हो गईं मरुथली
पद्चिन्हों के अनुसरणों की गाथायें कल्पित लगती हैं
और भूमि का स्पर्श नहीं अब कर पाती है कोई पगतली

वाल्मीकि, तुलसी, सूरा के लिखे हुए शब्दों से दूरी
तय कर पाने का भी उपक्रम करता कोई नहीं आजकल
नयनों के सन्देशों में अब ढला नहीं करती है भाषा
मेघदूत से ले कपोत सब होकर  कार्यहीन बैठे हैं
भौतिकता के समीकरण में बंध कर हुए ह्रदय सब बन्दी
चुम्बक के ध्रुव भी लगता है साथ साथ अब तो रहते हैं

जितने भी मानक थे उनके अर्थ हुए हैं सारे नूतन
प्रासंगिकता के कारण को कोई पूछता नहीं आज्कल

Wednesday, August 4, 2010

प्रतिभाओं की कमी नहीं है--- दो पहलू

प्रतिभाओं की कमी नहीं है--१


चाहत यह वर्चस्व हमारा सदा रहे,हर घड़ी पली है

कुछ भी हो बस एक सदा ही ठकुरसुहाती लगी भली है

बिम्ब न अपना देख सकें पर चाहत है संजय कहलायें

तानसेन सब माने चाहे गर्दभ सुर में गाना गायें

दो लाइन में शब्द जोड़कर कह देते हैं लिखी गज़ल है

और लिख दिया है जो वह ही शाश्वत है सम्पूर्ण अटल है

इधर उधर के शब्द जमाकर उसको कविता कह देते हैं

नई विधा के नये रचयिता हैं, इस भ्रम में रह लेते हैं

प्रश्न उठाता है कोई तो मौन साध कर रह जाते हैं

पढ़ा नहीं साहित्य, भूमि से नाता है बस बतलाते हैं

ऊलजुलूल टिप्पणी देकर आशा बदले में पा जायें

होता हो गुणगान निरख कर पल पल फूलें और अघायें
जिनके बूते पर चलती है आत्मश्लाघा की परिपाटी

बाँटी कभी रेवड़ी जिसने रह रह कर निज को ही बाँटी

उनकी खरपतवारी फ़सलें निमिष मात्र भी थमी नहीं है

हर युग में कुछ ऐसी अद्भुत प्रतिभाओं की कमी नहीं है.



प्रतिभाओं की कमी नहीं है----२


कब आवश्यक यज्ञ होम ही केवल ईश धरा पर लायें

यह आवश्यक नहीं वेदपाठी ही केवल मंत्र सुनायें

राजकुंवर के ही हिस्से में आ पाये अधुनातन शिक्षा

कब आवश्यक बिना पुरोहित के शुभ कार्य नहीं हो पायें

जो अपना संकल्प उठा कर इच्छित प्राप्त किया करते हैं

एक कुदाली से पर्बत का सीना चीर दिया करते हैं

आंजुरि में भर सिन्धु पान की क्षमता जिनके पास रही है

अपनी निष्ठा से जो पाषाणों को प्राण दिया करते हैं

आँखें खुलने से पहले ही सीखा चक्रव्यूह का भेदन

एक गिलहरी के श्रम पर भी उमड़ा है जिनका संवेदन

कोई भी युग हो असफ़लता एकलव्य को नहीं मिली है

अंगुल अष्ट प्रमाण,सुना तो करते सहज लक्ष्य का बेधन

ध्रुव बन जिनकी कीर्ति निशा के नभ में हरपल बनी रही है

जिनके कारण अंतरिक्ष में धरा बिन्दु पर टिकी रही है

और आज की बात करें तो भी बस केवल हमी नहीं है

कोई युग हो, कोई चुनौती, प्रतिभाओं की कमी नहीं है

Monday, August 2, 2010

वह अनबूझ पल

घुल गये प्रश्न उठते हुए व्योम में
दृष्टि में अनगिनत आये उत्तर उतर
वक्त चलता हुआ भी ठिठक कर रुका
इस अछूते अजाने नये मोड़ पर
हो गया फिर दिवस का निमिष हर विलय
एक ही बिन्दु में दृष्टि की कोर पे
बन हवा की तरंगें बजे हर तरफ़
बांसुरी से उमड़ राग चितचोर के
एक पल यह न्हीं व्याख्यित हो सका
शब्द सब कोष के कोशिशें कर थके
नैन के गांव में आ बटोही बने
कुछ सितारे भरी पोटली धर रुके
मौन क ओढ़ बैठे रहे थे अधर
बोल पाये नहीं थरथरा रह गये
भाव कुछ बाहुओं के सिरे पर रहे
प ही आप में कसमसा रह गये
एक विस्तार आकर सिमटने लगा
स अनागत अनाभूत पल एक में
कुछ भी ज\कहना अस्म्भव हुआ जा रहा है
पास पाया न कहने को कुछ शेष मैं

Wednesday, July 28, 2010

कविता करना तेरे बस की बात नहीं

कविता करना तेरे बस की बात नहीं


तथाकथित कवि कविता करना तीर बस की बात नहीं
तू दिन को दिन कह न पाता और रात को रात नहीं


भरता है तू ठूँस ठूँस कर शब्द सभी बेमतलब के
तेरे अर्थ उड़ा करते हैं आंधी में बन कर तिनके
तू जो लिखता उसको शायद खुदा तलक न समझ सके
तू बदला लेता कविता के पाठक गण से गिन गिन के


सेहरा पहन समझता दूल्हा, लेकिन है बारात नहीं
तेरे बस की बात नहीं


एक पंक्ति में होतीं मात्रा सोलह,दूजी में बत्तीस
प्रश्न कोई पूछे तो रहता है तू सिर्फ़ निपोरे खीस
अपने भ्रम को ज्ञानकोष  का देता आया सम्बोधन
भावों से रहता है तेरा सदा आँकड़ा बस छत्तीस

सूखे हुए ठूँठ पर उगते हैं बासन्ती पात नहीं
तेरे बस की बात नही

तेरे सब सन्दर्भ हड़प्पा के जैसे अवशेष हुये
जिसने तुझे पढ़ा उसके ही मन में भारी क्लेश हुए
तू लाठी के जोर ठूँस देता शब्दों को कविता में
लहराते कुन्तल भी तुझको मैड्यूसा के केश हुए

टूटी तकली पर तू बिल्कुल धागे सकता कात नहीं
तेरे बस की बात नहीं

Monday, July 5, 2010

आँख का पानी--दो चित्र

भाव बन कर शिंजिनी गूँजें शिराओं में
पीर बासन्ती घुले महकी हवाओं में
करवटें मन की पिघलती हों अचानक ही
गूँज हर,रह जाये जब खोकर दिशाओं में
नव रसों में जब मिलें सहसा नये मानी
उस घड़ी बरसात करता आँख का पानी
रागिनी जब कोई आकर राग को छूले
रंग बिखराया हुआ जब फ़ाग को भूले
पाँव लौटें गांव को कर कालियामर्दन
गंध ओढ़े मोतिया, बेला महक फूले
चित्र बन जाये कोई परछाईं अनजानी
उस घड़ी आता उमड़ कर आँख का पानी
हाथ की रेखायें जन अनुकूल हो जायें
नीरजी पांखुर डगर के शूल हो जायें
जब गगनचुम्बी,समय के सिन्धु की लहरें
एक मैदानी नदी का कूल हो जायें
दोपहर में गुनगुनाये रात के रानी
तोड़ देता बांध उस पल आँख का पानी


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बहा आँख का पानी

टुती हुई सपन की डोरी
विरहा व्याकुल एक चकोरी
उस पर ये बरसात निगोड़ी
लिख देती है भिगो पीर में फिर से एक कहानी
बहे आँख का पानी

हिना हथेली आन रचाये
अँगनाई अल्पना सजाये
शहनाई मंगल सुर गाये
कदली खंभॊं पर तारों ने जब भी चूनर तानी
बहे आँख से पानी

साध संवर कर पूरी होले
विधना बंद पिटारी खोले
बिन रुत के पड़ जायें हिंडोले
उतर गोख में आकर गाये इक चिड़िया अनजानी
बहे आँख का पानी

Thursday, June 17, 2010

याद-पुरानी यादों की गठरी से

फूलों की पांखुर से फ़िसक रही शबनम सी
साज की मुंडेरों पर थिरक रही सरगम सी
सन्ध्या के आँचल में टाँक रही गुलमोहर
निशिगन्धी महकों में लिपट खड़े मधुवन सी
याद कोई सपना बन, आंखों में तैर गई
उस पल पर जीवन की एक सांस ठहर गई

गंगा की धारा में मांझी के गीतों सी
दादी से सुनी हुई पुरखों की रीतों सी
चम्पा के सिरहाने, जूही के गजरों सी
घूँघट से झाँक रही दुल्हन की नजरों सी
याद कोई सपना बन आँखों में तैर गई
उस पल पर जीवन की एक सांस ठहर गई

लहरों की दस्तक सी, सरिता के कूलों पर
बरखा की बून्दों सी, सावन के झूलों पर
चाँदनी में भीग रहे उपवन के प्रांगण में
पुरबा की सिहरन सी मुस्काते फूलों पर
याद कोई सपना बन, नयनों में तैर गई
उस पल पर जीवन की एक सां स ठहर गई



Monday, May 31, 2010

मन का इकतारा अब केवल

पता नहीं किसका प्रभाव लज्जा के बन्धन खोले है
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है

ओढ़ी हुई एक कमली की छायायें हो गईं तिरोहित
नातों की डोरी के सारे अवगुंठन खुल कर छितराये
बांधे अपने साथ सांस को द्रुत गति चले समय के पहिये
उगी भोर के साथ साथ ही संध्या के बादल घिर आये

वनपाखी मन द्वार तुम्हारे आने को पर तोले है
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है

कालिन्दी तट हो, सरयू हो पुष्पकुंज सुरपुर के चाहे
गन्धों के हर इक झोंके में सिमटे आई चित्र तुम्हारे
जुड़ कर रही नाम के अक्षर से सुधि की रेखायें सारीं
घिरे रात के अंधियारे हों या दोपहरी के उजियारे

संवरा शब्द अधर पर जब भी नाम तुम्हारा बोले है
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है

आईने के नयनों में जो बिम्ब संवरता तुम ही तो हो
तुम ही को तो झील बना कर चित्र टाँक देती बादल पर
तुमही तो हो बने अल्पना मन के बिछे हुए आंगन में
तुम ही हो चूनर प्राची की,तुम अंकित निशि के आंचल पर

धड़कन का पटवा सांसों की डोरी में तुमको पो ले है
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है

Tuesday, April 27, 2010

आज लगा अपवाद हो गये

जो अपने से हो न सका है अब तक वह संवाद हो गये
एक अजनबी सी भाषा का अनचाहा अनुवाद हो गये

कथाकार तो राजद्वार पर चाटुकारिता में उलझे थे
इसीलिये संदेसे जितने नीतिपरक थे गौण रह गये
ललित भैरवी के पदचिह्नों पर चल पाने में अक्षम था
बंसी के स्वर सारंगी की ओढ़ उदासी मौन रह गये

बलिदानों के इतिहासों पर जमीं धूल की मोटी परतें
जहाँ प्राप्ति गलहार बनी थी,केवल वह पल याद हो गये

रथवाहों का कार्य शेष बस द्वारे तक रथ को पहुँचना
मत्स्य वेध का कौशल भी तो नहीं धनुर्धर में अब बाकी
चीरहरण के नाटक में सब पात्र भूमिका भूल गये हैं
कितना कुछ अभिनीत हो गया,कितनी शेष अभी है झांकी

जयमालों के सम्मोहन ने सब कुछ भुला दिया है मन को
आर्त्तनाद के स्वर द्वारे तक आये तो जयनाद हो गये

अक्षर अक्षर चिन चिन रखते कविताओं के कारीगर तो
सहज भावना को शब्दों का कोई रूप नहीं दे पाता
मल्हारों के मौसम में भी राजगायकी के लालच में
कुशल गवैय्या भी अब केवल मालकोंस ही मिलता गाता

कविता तो बन गई चुटकुला मंचों की आपाधापी में
गीत गज़ल के सभी उपासक आज लगा अपवाद हो गये

Thursday, April 15, 2010

तुमने जो दे दी मंजूरी

यादों की पुस्तक के खुल कर लगे फ़ड़फ़ड़ाने वे पन्ने
जिन पर अंकित, मेरे प्रस्तावों को तुमने दी मंजूरी

पाणि ग्रहण के पावन पल की वह मॄदु बेला याद आ गई
नयनों की फुलवारी में जब रंग बिरंगे फूल खिले थे
मंत्रोच्चार जगाता था जब अनचीन्ही हर एक भावना
भावों का अतिरेक उमड़ता और मौन से अधर सिले थे

दीपशिखा के नयनों से उठ रहे धुए से बातें करती
लगती थी मंडप में उड़ती हुई गंध पावन कर्पूरी

जो पुरूरवा के अधरों ने लिखी उर्वशी के कपोल पर
भुजपाशों में बांध शची को जोकि पुरन्दर ने दोहराई
वह गाथा अँगड़ाई लेकर फिर मन में जीवन्त हो ग
पुलकित हुईं भावनाऒं में डूब डूब सुधियाँ बौराईं

हैं सुधियों में जगमग जगमग दीवाली के दिये बने वे
निमिष भीगकर हुई चाँदनी जिनमें सहसा ही सिन्दूरी

एक बिन्दु पर जहां धरा से मि्ला गगन बाँहें फ़ैलाकर
जहाँ शून्य के स्वर से मिल कर मन की वाणी छंद हो गई
जब अतॄप्ति की तॄषा पा गई अकस्मात ही सुधा कलश को
उस पल उड़ी धूल पतझड़ की भी जैसे रसगंध हो गई

खोल रहे मन वातायन पट, सुरभित वही हवा के झोंके
जिनमें तुमने घोल रखी है अपने तन मन की कस्तूरी

Monday, April 5, 2010

टिप्पणी ब्लाग ई मेल और पत्तागोभी के रसगुल्ले

भाई साहब, आप हमारे ब्लाग पोअर पधारें और अपनी अमूल्य टिप्पणी से नवाजें

लगभग रोजाना ही कम से कम ऐसे दस- बारह सन्देश ई मेल के बक्से में मिल जाते हैं. मन में एक प्रश्न उठता है क्यों भाई क्यों पढ़ें हम तुम्हारे ब्लाग को ? हम अपनी पसन्द के लेख अपने आप नहीं छा~ट सकते क्या ?ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत जो कल तक हमारी सहायता करते रहे हैं क्या वे बन्द हो गये हैं जो आप अपने बहुमूल्य (?) समय में से समय निकाल कर हमें लिन्क भेज रहे हैं या आपने हमको इतना अज्ञानी समझा है कि हम अपनी पसन्द के चिट्ठे और उन पर हुई पोस्ट न ढूँढ़ सकें जो आप हमारी सहायता करने पर तत्पर हैं.

ठीक है भाइ. हमने मान लिया कि हमें आपके चिट्ठे की जानकारी नहीं है परन्तु जबरदस्ती आप हमारे गले में तो मत ठूंसिये. और अगर बुला भी लिया आपने इस बहाने अपने चिट्ठे पर तो यह क्यों जरूरी है कि हम टिप्पणी भी दें.यह तो यूँ हुआ

भेज रहे हैं नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को
वालेट अपना संग में लाना बिल चुकता कर जाने को

निमंत्रण तो है ही आने का और फिर आने का हर्जाना भी भुगतें ? न बाबा न.

तुम ई मेल लिखो या चिट्ठे हमको फ़र्क नहीं पड़ता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है

गीत लिखो या नज़्म रचो तुम गज़लें गाओ याकि कहानी
याकि संवारो नये रूप में रोज रोज कविता कल्याणी
लिखो धर्म की बातें या फिर हमको योग तनिक सिखलाओ
और भली ही पंचम सुर में गाना मालकौंस सिखलाओ

माऊस मेरे कम्प्यूटर का लिन्कें क्लिक नहीं करता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है

सिखलाओ तुम कैसे बनते पत्तागोभी के रसगुल्ले
कैसे करें निवेश और फिर कैसे बैठे रहें निठल्ले
राजनीति के दांवपेंच हों ,नक्षत्रों की टेढ़ी चालें
कहां हजम करती हैं चारा कागज़ पर चलती घुड़सालें

नहीं जानना हमको, हमको तो प्यारी अपनी जड़ता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है

तो भाई अपने समय का सदुपयोग आप हमारे लिये न करें. हम आपके निमंत्रण पर न तो आपके ब्लाग पर आने वाले हैं और न ही टिप्पणी करने वाले. आप यह क्यों भूल जाते हैं कि अगर आपकी रचना में दम होगा, आपके लेख में गुंजायश होगी तो पाठक अपने आप ही टिप्पणी दे देगा बरसों पहले दूरदर्शी श्री श्री रहीम दास जी( उन्की आत्मा या रूह से क्षमायाचना सहित )कह गये थे न

बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख
असर लेख में मूढ़ कर, यह सद्गुरु की सीख


और आशा करता हूं कि आपके ईमेल आईडी को मेरा खाता स्पैम करार देकर अवांछित न बना दे.

Monday, March 29, 2010

बस वही बिकते नहीं हैं

भेजते हैं ज़िन्दगी को पल निराशा के निमंत्रण
और अस्वीकार करने को, पता लिखते नहीं हैं

द्वार पर आते लिपट कर भोर की अँगड़ाईयों में
मुस्कुराते हर दुपहरी धूप की परछाईयों में
और जब सिन्दूर भरती मांग में संध्या लजाकर
उस घड़ी सन्देश भरते गूँजती शहनाईयों में

रात के पथ में बिछे रहते संवरते स्वप्न के संग
हां अगोचर हैं, तभी प्रत्यक्ष ये दिखते नहीं हैं

स्वर उमड़ता है गले से कुछ कहे, पर रीत जाता
उत्तरों के व्यूह में घिर प्रश्न सहसा बीत जाता
शब्द की गोलाईयों में भूलतीं अनुभूतियां पथ
भाव हो जाता विफ़ल इक बार फिर से, गीत गाता

आस ने भर अंक अपने रात दिन पाला जिन्हें था
खो गये वे प्रीत के पल आजकल मिलते नहीं हैं

उग रहे हैं शाख पर दिन की निरन्तर पत्र काले
झर चुके हैं पतझरों के साथ, हो बूढ़े उजाले
दिख नहीं पाती कलाई भी बिना अब आरसी के
लड़खड़ाती गिर रही धड़कन नहीं संभले, संभाले

सांस के सौदाई थैली खोल कर पथ में खड़े हैं
चाहते हैं क्रय जिन्हें कर लें, वही बिकते नहीं हैं

Monday, February 15, 2010

जो हैं वही तुम्हारे होंगे

जो दर्पण से बिछुड़ गये हैं
वे प्रतिबिम्ब हमारे होंगे
सपनों से जुड़ सके नहीं तो
द्रवित नयन के तारे होंगें

संघर्षों की खिली धूप में
पांव तले खोती परछाईं
तपी आग की छाया पीती
चेहरे पर छाई अरुणाई
खुली उंगलियां पकड़ न पातीं
आशा की चादर के कोने
चाहत रहती बन कर रानी
किसी मंथरा की बहकाई

जो हैं बँधे रहे बंधन में
वे ही बहते धारे होंगें
उड़ते हैं जो बादल जैसे
वे संकल्प हमारे होंगे

दॄष्टि पलक की सीमाओं से
आगे जाकर नहीं विचरती
और खिलखिलाहट होठों की
दहलीजों से नहीं बिखरती
अपने ही प्रश्नों के उत्तर में
फिर प्रश्न उठाता है मन
शंकाओं की बस तस्वीरें
रह रह बनतीं और बिगड़ती

जो पल हैं कर चुके समर्पण
फिर जीवित भिनसारे होंगें
हार मान कर ज्पो गर्वित हैं
ढीठ और बजमारे होंगे

पछतावा करता है अपने
दोषों पर मन ही मन कोई
सज्जित करता है समाधि को
अपनी फूल लगा कर कोई
उठी हुई नजरों के आगे
मौन मुस्कुराता रह जाता
पीड़ाओं के अनुबन्धों को
निभा रहा पल पल पर कोई

एक उसी की सांस सांस में
मचले हुए शरारे होंगे
कुछ ऐसे हैं प्रहर, हमारे
जो हैं वही तुम्हारे होंगे

Friday, February 5, 2010

आपका फिर व्यर्थ है कहना लिखूँ मैं गीत कोई

शब्द से होता नहीं है अब समन्वय भावना का


रागिनी फिर गुनगुनाये, है न संभव गीत कोई



खो चुकी है मुस्कुराहट, पथ अधर की वीथिका का

नैन नभ से सावनी बादल विदा लेते नहीं हैं

कंठ से डाले हुए हैं सात फ़ेरे सिसकियों ने

पल दिवस के एक क्षण विश्रांति का देते नहीं है



टूट बिखरी डोरियों के हाथ में टुकड़े उठा कर

बिम्ब से अपने अपरिचित हो ह्रदय की प्रीत रोई



हो गईं वर्तुल सभी रेखायें हाथों में खिंची जो

लौट क आईं वहीं पर थीं चलीं इक दिन जहाँ से

ज़िन्दगी के पंथ की सारी दिशायें दिग्भ्रमित हैं

है अनिश्चित जायेंगी किस ओर आईं हैं कहाँ से



दीप सब अनुभूतियों के टिमटिमा कर बुझ रहे हैं

आस सूनी, इक शलभ को कर सकेगी मीत, खोई



डँस गया है स्वप्न के वटवॄक्ष, फ़न फैलाये पतझर

दॄष्टि के नभ पर उगे हैं सैंकड़ों वन कीकरों के

बुझ गईं सुलगी प्रतीक्षा की सभी चिंगारियाँ भी

चिन्ह पांवों के न बनते पंथ बिखरे ठीकरों पे



धुन न गूँजे बांसुरी की, शुश्क कालिन्दी हुई है

और गगरी रिक्त, संचय का गँवा नवनीत रोई

Tuesday, January 19, 2010

अब् मुस्कान् कहाँ आ पाये

परिणति, जलते हुए तवे पर गिरी हुई पानी की बूँदे
मन की आशा जब यथार्थ की धरती से आकर टकराये

अपने टूटे सपनों की अर्थी अपने कांधे पर ढोते
एकाकीपन के श्मशानों तक रोजाना ले जाते हैं
चुनते रहते हैं पंखुरियां मुरझा गिरे हुए फूलों की
जो डाली पर अंगड़ाई लेने से पहले झर जाते हैं

पथ की धूल निगल जाती है पदचिह्नों के अवशेषों को
सशोपंज में यायावर है, दिशाज्ञान अब कैसे पाये

सजी नहीं है पाथेयों की गठरी कब से उगी भोर में
संध्या ने दरवाज़ा खोला नहीं नीड़ जो कोई बनता
संकल्पों को लगीं ठोकरें देती नहीं दिलासा कोई
उमड़े हुए सिन्धु में बाकी नहीं कहीं पर कोई तिनका

बिखर गये मस्तूल, लहर ने हथिया लीं पतवारें सारी
टूटी हुई नाव सागर में, कब तक और थपेड़े खाये

शूल बीनते छिली हथेली में कोई भी रेख न बाकी
किस्मत के चौघड़िये मे से धुल बह गये लिखे सब अक्षर
बदल गई नक्षत्रों की गति, तारे सभी धुंध में लिपटे
सूरज निकला नहीं दुबारा गया सांझ जो अपने घर पर

अधरों के स्वर सोख लिये हैं विद्रोही शब्दों ने सारे
सन्नाटे की सरगम लेकर गीत कोई कैसे गा पाये

सने अभ्यागत बनकर अब आते नहीं नयन के द्वारे
खामशी का पर्वत बनकर बाधा खड़ा हुआ आंगन में
अभिलाषा का पथ बुहारते क्षत विक्षत होती हैं साधें
मन मरुथल है, बादल कोई उमड़ नहीं पाता सावन में
पतझर बन कर राज कुंवर, सता ले बैठा सिंहासन पर
संभव नहीं अंकुरित कोई अब मुस्कान कभी हो पाये

Monday, January 4, 2010

आज मुझे कुछ शब्द चाहिये

जी हाँ मुझको शब्द चाहिये


शब्द कि जिनकी संरचना में छुपे हुए हों कोई मानी
कोरे खाकों वाले केवल नहीं चाहता मैं बेमानी
शब्द कि जिनसे उड़ न पाये गंध तनिक भी वासीपन की

शब्द उतर जायें सीने में,जो प्रतिध्वनि बन कर धड़कन की

मुझको ऐसे शब्द चाहिये

शब्द हाँ मुझे शब्द चाहिये

शब्द कभी न लिखे गये हों,आकॄति में ढलने से पहले

शब्द,पीर का हर इक अक्षर जिनकी बाँह थाम कर बहले

शब्द कर सकें जो संप्रेषित मन में उठते उद्गारों को

शब्द मुट्ठियों में जो सीमित कर दे अगणित संसारों को

बस ऐसे कुछ शब्द चाहिये

शब्द हाँ मुझे शब्द चाहिये

शब्द कि जिनसे फूटें अंकुर आखों में कोमल सपनों के

शब्द बन सकें सावन के घन जो मन की गहरी तपनों के

शब्द निरन्तर गति पाता हो जिनसे अभिलाषा का निर्झर

शब्द तोड़ दें अविश्वास का सन्नाटा जो छाया भू पर.

बस कुछ ऐसे शब्द चाहिये

जी हाँ मुझको शब्द चाहिये.