Wednesday, November 18, 2009

तुझे भेंट मे मैं क्या दूँ

ओ अनुरागी तुझे भेंट मे मैं क्या दूँ, तू ही है दाता
तेरे सिवा विश्च में जो भी प्राणी है, वो है इक याचक

तेरी अनुकम्पा की बारिश से जब भीगा मेरा आँचल
सुधा कलश बन गई हाथ में जो थी मेरे जल की छागल
दीपित हुईं दिशायें मेरी जिनपर परत जमी थी काली
तेरे आशीषों से मेरी हर मावस बन गई दिवाली

है बस इक ये ही अभिलाषा ओ मेरे प्राणेश ! सदा ही
तू आराध्य रहे नित मेरा ,और रहूँ मैं बन आराधक

जब जब तेरे अनुदानों की महिमा गाये मेरी वाणी
स्वत: झरा करती है तब तब होठों से कविता कल्याण
तू ही भाव और स्वर तू ही, तू ही तो है संवरा अक्षर
तू ही मन की अनुभूति है, तू ही अभिव्यक्ति का निर्झर
तेरे वरद हस्त की छाया रहती है जिसके मस्तक प
साहस नहीं किसी का उसके पथ में आये बन कर बाधक

तरे इंगित से जलती है ज्योति ज्ञान की अज्ञानों में
तेरी दॄष्टि बदल देती है विपदाओं को मुस्कानों में
तेरी इच्छा बिना न होती जग में कोई हलचल संभव
सांस सांस में व्याप्त रहा है मेरी बस तेरा ही अनुभव

तेरे दरवाजे पर आकर भिक्षा एक यही मैं माँगूं
धड़कन रहे ह्रदय की मेरे बनकर बस तेरी ही साधक.

Monday, November 2, 2009

एक तुम्हारा वॄन्दावन

अभिलाषा का दीप जला कर खड़ा हुआ हूँ द्वारे पर
अपनी करुणा के पारस से छू मुझको कर दो कंचन

जीवन की आपाधापी में भूल गया अपने को भी
लेकिन यह मेरी गति तुमसे आखिर कब है अनजानी
कर्म प्रकाशित मेरे जितने हैं बस ज्योति तुम्ही से पा
व्यथा हदय की तुमसे, तुमसे ही आंखों का है पानी

करता हूँ करबद्ध प्रार्थना बीन दया की छेड़ो तुम
भक्ति भाव की गूँजे मेरे प्राणों में जिससे सरगम

मन के आईने में दिख पाता है केवल धुंधलापन
सीमित है द्वारे तक मेरी नजरों की ये बीनाई
आओ बनकर ज्योति दिशा दो भ्रमित हुए पागल मन को
सारथि बन कर जैसे तुमने दिशा पार्थ को दिखलाई

फिर से फ़ूंको प्राण, प्राण की सोई हुई बाँसुरी में
गूँज उठे मीठी मोहक तानों से ये मन का आँगन

तुम्हें ज्ञात तुम ही भ्रम देते तुम्हीं ज्ञान सिखलाते हो
बिना तुम्हारे इंगित के मैं चलूँ एक भी पग ,मुश्किल
तुम ही गुरु हो, सखा तुम्ही हो और तुम्ही हो प्राणेश्वर
है विशालता नभ की तुम में, और सूक्ष्म तुम जैसे तिल

मुझको अपने विस्तारों के अंश मात्र में आज रखो
रोम रोम में आकर बस ले एक तुम्हारा वॄन्दावन