Wednesday, September 2, 2009

मौन सभी प्रतिध्वनियां, तब भी

आंखों में चुभने लग जाये काँटा बन कर उगी रोशनी
धागा धागा छितरा जाये, सुधियों की रंगीन ओढ़नी
जब विराम का इक पल बढ़ कर पर्वत सा उँचा हो जाये
जब अपनी खाई सौगंधें पड़ जायें खुद आप तोड़नी
उस पल मन का वीरानापन और अधिक कुछ बढ़ जाता है
कोशिश तो करता है स्वर, पर गीत नहीं गाने पाता है

अक्षर अपना छोड़ नियंत्रण, भटका करते हैं आवारा
स्वप्न नयन की डगर ढूँढ़ता फिरता निशि में मारा मारा
स्वर ठोकर खा गिरा गले में. उठ कर संभल नहींहै पाता
और शून्य में डूबा करता उगने से पहले हर तारा
रिश्तों के सन्दर्भों से जो रह जाता पतंग सा कट कर
सौगन्धों का टूटा धागा दोबारा न जुड़ पाता है

आश्वासन की घुट्टी पीते, बड़ा हुआ जीवन संतोषी
अपने सिवा मानता कब है और किसी दूजे को दोषी
सन्नाटे से टकरा होतीं मौन सभी प्रतिध्वनियां, तब भी
आस लगाये रहता शायद टूट सके छाई खामोशी
अधिकारों की पुस्तक पर है रहती पर्त धूल की मोटी
किसको है अधिकार कहाँ तक, ज्ञात नहीं यह हो पाता है

किंवदन्ती हो जाती बदले, समय गये घूरे की काया
परिवर्तन का झोंका कोई भटक पंथ जब इधर न आया
उलझ गये जो रेखाओं में राह उसी पर चलते चलते
मंज़िल का आभास न होता, सफ़र सांस का तो चुक आया
वाणी छिना, लुटा शब्दों को, राहजनी करवा यायावर
पथ पर चलते हुए उम्र के आस न फिर भी खो पाता है

4 comments:

Udan Tashtari said...

इस बेहतरीन रचना से पता चल गया कि क्म्प्यूटर काम करने लगा है..बहुत बधाई हो जी!!

Himanshu Pandey said...

रामावतार त्यागी और रमानाथ अवस्थी के गीतों की बानगी मिलती है आपकी रचनाओं में । लहर लहर लहरा रहा हूँ । आभार ।

Anonymous said...

Naya geet kab?

Shardula said...

वाणी छिना, लुटा शब्दों को, राहजनी करवा यायावर
पथ पर चलते हुए उम्र के आस न फिर भी खो पाता है!
--- निराशा के बदली में छुपी हुई आशा की किरण में कितनी ताकत होती है !