Thursday, May 14, 2009

अटक कर बैठ गई मैं संबोधन पर

ऐसा हुआ कि जब गीतकलश पर गीत आया था " लेकिन सम्बोधन पर " तो उसके आधार पर कई मित्रों ने अपने अपने ढंग से कलम चलाई. तो फिर उसी क्रम में दूसरा गीत लिखा गया.



दूसरे गीत के बाद से कई मित्रों के तकाजे हुए कि सिक्के का दूसरा पहलू भी दर्शाया जाये. अतएव यह पंक्तियाँ समर्पित हैं :-



मैने जब यह चाहा लिख दूँ पत्र प्रेम में भीगा तुमको
जाने क्या होगया अटक कर बैठ गई मैं संबोधन पर

जो चूल्हे पर चढ़ी दाल में उफ़ना है, तुम वही झाग हो
काकदूत के स्वर में गूँजा सुबह शाम जो वही राग हो
असमंजस है क्या कह कर मैं तुमको कोई सम्बोधन दूँ
जोकि पतीले के पैंदे में चिपका जलकर वही साग हो

आत्मसमर्पण किया कलम ने आंसू बहा और क्रन्दन कर
लिख न पाई पत्र तुम्हें, मैं अटकी केवल संबोधन पर

लिखूँ तुम्हें फ़ुटबाल गेम के लास्ट प्ले पर होता फ़ंबल
या फिर पहले से निर्धारित डब्लू एफ़ का कोई दंगल
फिर यह सोचा तुम्हें बुलाऊं मैं कह कर वह प्रेम पुजारी
अपने गले लगा कर रखती रही सदा ही जिसको चम्बल

लिख दूं तुमको घना कुहासा जो छाया रहता लंदन पर
निर्णय कोई ले न सकी मैं अटक गई हूँ संबोधन पर

फिर ये चाहा लिखूँ रेत के मरुथल में तुम उठे बगूले
तुम हो ठुड्डी जिसे भाड़ में छोड़ गये मक्की के फूले
फ़ास्ट फ़ूड्श के साथ मिला जो मुझको तुम क्या वही नेपकिन
या फिर हो वो पैनी जिसको गिरा जेब से सब ही भूले

तुम अंधड़ हो जो आ कर घिरने लग जाता है मधुवन पर
सर में दर्द हो गया मेरे अटके अटके सम्बोधन पर.

3 comments:

Udan Tashtari said...

तुम अंधड़ हो जो आ कर घिरने लग जाता है मधुवन पर
सर में दर्द हो गया मेरे अटके अटके सम्बोधन पर.

-कुछ लेते क्यूँ नहीं- सेरीडोन ट्राई किआ.

-सही है महाराज!!

Shardula said...

हा, हा !
गुरुजी, आज पाठशाला की छुट्टी है क्या :) ?

रंजना said...

वाह वाह वाह !!!!!! आनंद आ गया....

अतिसुन्दर गीत !!