Monday, April 27, 2009

कह गई आकर हवा

केतकी वन, फूल उपवन, प्रीत मन महके

सांझ आई बो गई थी चाँदनी के बीज
रात भर तपते सितारे जब गये थे सीज
ओस के कण, पाटलों पर आ गये बह के

कह गई आकर हवा जब एक मीठी बात
भर गया फिर रंग से खिल कर कली का गात
प्यार के पल सुर्ख होकर गाल पर दहके

कातती है गंध को पुरबाई ले तकली
बादलों के वक्ष पर शम्पाओं की हँसली
कह रही है भेद सारे मौन ही रह के

Sunday, April 12, 2009

आखिर कौन कहो तुम मेरे

सुनो जरा सा समय मिले तो इतना मुझे बता जाना तुम
क्या कह कर मैं तुम्हें पुकारूँ , आखिर कौन कहो तुम मेरे
तुम हो सखा ? निमिष के परिचित ? या राहों के सहचर कोई
क्यो आकर के स्वप्न तुम्हारे डाल रहे नयनों में डेरे

मेरे दिवस निशा के गतिक्रम, उलझ गये हैं क्यों तुम ही में
और साफ़ क्यों नजर नहीं आता है मुझको चित्र तुम्हारा

मेरी नजरों की भटकन, लौटी है चेहरों से टकराकर
दृष्टि किरण को सोख रखे जो, अब तक मिला नही वह चेहरा
मेरे मन के आईने में टँका हुआ जो एक फ़्रेम है
उसमें चित्र नहीं दिखता है, दिखता केवल रंग सुनहरा

यद्यपि ज्ञात मुझे है केवल चित्र तुम्हारा वहाँ लगेगा
लेकिन जब तक कहो नहीं तुम, धुंधला ही रहता बेचारा

ऊहापोह और असमंजस घेरे हुए मुझे रहते हैं
संशय के उगने लगते हैं जाने क्यों पग पग पर साये
स्वीकॄति पाने की आतुरता में द्वारे तक जाकर लौटे
बार बार पग बिना दस्तकों के लगता है, हैं बौराये

मैं इक दिया प्रतीक्षा वाला दीपित करके खड़ा हुआ हूँ
शायद तुम संबोधन सुन लो, वह जो मैने नहीं उचारा

हां ये भी है विदित न जाने कितने प्रश्न उठेंगे इस पर
क्योंकि न तुमसे परिचित हूँ मैं, और न ही तुम मुझसे परिचित
और बात जो उठी ह्रदय सेर मैने वह ज्यों की त्यों लिख दी
जोड़ा नहीम विशेषण कोई , और न क्रम से ही की शिल्पित

हां यह संभव प्रतिउत्तर में मेरे प्रश्नों को सुलझाये
संध्या के ढलते ही आता जो रजनी का पहला तारा

Monday, April 6, 2009

गांव अपना याद करता है

वो जिसकी गौनियों से तुम डले गुड़ के चुराते थे
वो जिसके तास के बूरे में तुम फ़ंकी लगाते थे
जो तुमसे बांटता था गोलियां चूरन की रोजाना
वो जिसकी सायकिल हर शाम को तुम मांग लाते थे
कभी तो लौट कर आओगे तुम ये बात करता है
तुम्हें वो गांव का पप्पू पंसारी याद करता है

जहां तुमने बहस की थी खड़े होकर चुनावों की
जहां तुम बात करते थे ज़माने के गुनाहों की
हैं धब्बे पीक के दूकान के बाजू अभी मौजूद
जहां छोड़ी निशानी पान के तुमने लुआबों की
अभी चूना लगाने की तुम्हारी बात करता है
तुम्हें ले पान , वो कुन्दन कबाड़ी याद करता है

मियां जुम्मन रहे लाते थे जिस पर लाद कर कुल्लड़
कि जिसके साथ मचता था बरस का फ़ागुनी हुल्लड़
सवारी जिसकी करते थे बने होली पे तुम टेपा
घुमाता था तुम्हें जो रोज ही चौपाल से नुक्कड़
गधा वो फिर तुम्हारे साथ की फ़रियाद करता है
तुम्हें वह गांव का मोहन मदारी याद करता है

कभी जिसके कटोरे में न डाला एक भी पैसा
जो कहता था नहीं देखा कभी कोई भी तुम जैसा
वो जिसके हाथ की लाठी कभी तुम लेके भागे थे
न जिससे पूछ पाये थे हुआ है हाल क्यों ऐसा
तुम्हें मनहूसियत कह दर्द का इज़हार करता है
तुम्हें वो गांव का भीखू भिखारी याद करता है

सुनो ! संभव अगर हो एक दिन वापिस चले जाओ
नहीं बदले जरा सा भी, उन्हें ये बात बतलाऒ
कहो अब गुड़ नहीं चीनी के पैकेट तुम उठाते हो
गधे जैसी खटारा ही यहां पर तुम चलाते हो
यहां पानी का कूलर वक्त को बरबाद करता है
तुम्हारा दिल अभी भी गांव अपना याद करता है