Wednesday, March 25, 2009

पीर के पन्ने पिचहत्तर

पीर के पन्ने पिचहत्तर सांत्वना के शब्द सत्रह
एक यह अनुपात लेकर चल रही है ज़िन्दगानी

जागती है भोर की पहली किरण की दस्तकों से
और चढ़ती धूप के संग पीर की चढ़ती जवानी
सांझ को ढलती हुई यह देख कर, ज्यादा निखरती
रात में यों महकती है, जिस तरह से रात रानी


एक यह थी कल, यही है आज, होगी कल सुनिश्चित
रोज ही दुहराई जाती बस इसी की तो कहानी

उंगलियों का स्पर्श हो या पांव का हो चिन्ह कोई
खिल उठे है झूम कलियों की मधुर मुस्कान जैसे
और रिसती है सपन की संधि की बारीकियों से
गूँजती तन में, वनों में बांसुरी की तान जैसी

ओस की पी ताजगी चिर यौवना हो कर खड़ी है
करवटों से जुड़ पलों की और हो जाती सुहानी

सांत्वना के हर निमिष का पान कर लेती ठठा कर
छोड़ती अधिपत्य अपना धड़कनों पर से नहीं ये
है सभी भंगुर धरा पर किन्तु शाश्वत बस यही है
सर्जना के आदि से लेकर अभी तक है यहीं ये

बोलता इतिहास जीवन का महज इसकी कहाअनी
हो कोई संदर्भ नूतन, याकि हो गाथा पुरानी

5 comments:

Anonymous said...

पीर मन की ...
http://geetkalash.blogspot.com/2008/11/blog-post_25.html

"अर्श" said...

AAP JAISE BISHISHTH AUR GUNI KE LIYE MAIN KYA KAHUN..KOI SHABD DHUNDHANE SE NAHI MILTA... AAPKO TATHA AAPKE LEKHANI KO SALAAM...



ARSH

रंजना said...

आपकी रचनाओं को तो बस मौन हो पढना है और निःशब्द हो जाना है....

दिन सार्थक हुआ...आभार.

Shardula said...

इतने सुन्दर और दार्शनिक गीत पे टिप्पणी देने योग्य भी नहीं समझती मैं खुद को! याद सा हो गया है. बहुत गंभीर बात, बहुत सौन्दर्य और पीर समेटे है यह गीत !
रचना को नमन !

Shardula said...

कविता की पीर, दार्शनिकता के समक्ष मेरा पुनः नमन !