हमने हर आघात ह्रदय पर सहन किया है हंसते हंसते
लेकिन टूटा मन किरचौं में, जब सपने हरजाई निकले
नैनों की गलियों में हमने, फूल बिछा भेजा आमंत्रण
आश्वासन की पुरवाई को किया द्वार का तोरण वन्दन
पलकों के कालीन बना कर तत्पर हुए पगतली करने
लेकिन इन राहों पर मुड़ वे आये नहीं जरा कुछ कहने
हमने जिन शब्दों को सोचा हैं अशआर गज़ल के पूरे
अधरों पर आये तो वे सब, आधी लिखी रुबाई निकले
निशा बुलाती रही नींद को अँगनाई में दे आवाज़ें
और कल्पना भी आतुर थी साथ साथ ले ले परवाज़ें
देहरी ने रह रह उत्सुक हो करके सूना पंथ निहारा
किन्तु न खड़का पग आहट से एक बार भी यह चौबारा
हमने जिनको शतजन्मों की सौगंधें हैं मान रखा था
वे सब के सब शब्द-पुंज इक टूटी हुई इकाई निकले
धागा धागा चित्र बुने थे, आशाओं की लिये सलाई
महकी हुई एक फुलवारी, और एक बौरी अमराई
किन्तु कैनवस रहा निगलता, रंग तूलिकाओं के सारे
एक राख सी रंगत बिखरी,दिन दोपहरी सांझ, सकारे
खड़े हुए हम दरबारों में दिशा बोध से हीन धनुर्धर
इतने दर्शक घेरे हमको, कोई तो वरदाई निकले