Thursday, December 31, 2009

वर्ष प्रस्थान

झर गये पत्र सब पेड़ की शाख से

तीन सौ साठ के सँग रहे पाँच वे

कुछ हरे,पीत कुछ, कुछ थे सूखे हुए

पारदर्शी रहे ज्यों बने काँच के

कुछ किरण स्वर्ण से थी नहाई हुई

और कुछ ओढ़ कर चाँदनी को मिली

कुछ चलीं गांव को छोड़ कर, राह में

थी भटकती रहीं मंज़िलें न मिली

स्वप्न ने अल्पनायें रँगी नैन में

आस ने थे नये कुछ गलीचे बुने

कुछ स्वरों ने निरन्तर थी आवाज़ दी

और कुछ सुर किसी ने तनिक न सुने

बीत जाते पलों ने लिखे पॄष्ठ कुछ

खिंच गई याद की इक ्नई वीथिका

एक इतिहास फिर से संवारने लगा

दो कदम साथ बस जो चली प्रीत का

जम गई धूल पहले गिरे पत्र पर

एक अंकुर नया फिर दहकने लगा

एक बूढा बरस शायिका पर गिरा

बालपन का दिवस इक चहकने लगा

क्या खबर है उसे ? उसकी परिणति वही

जोकि जाते हुए की हुई आज है

आज आरोह ले जो खडा गा रहा

बस उसी ने ही कल खोनी आवाज़ है

इसलिए आओ हम आज को बाँध लें

हाथ अपने बढ़ा मुट्ठियाँ बंद कर

कौन जाने लिखे क्या समय की कलम

कल पुराने हुए एक अनुबंध पर

Thursday, December 10, 2009

पंकज सुबीरजी- प्रणय वर्षगाँठ शुभ हो

श्वेत पत्रों पे बैठी हुई शारदा, बीन के राग में गीत गाती रहे
रक्त वर्णी किये पांखुरी, विष्णु की प्रियतमा पायलें झनझनाती रहे
ज्योत्सना की परी आ धरा पे रँगे चान्दनी की किरन से दिवस आपके
और रेखा स्वयं जयश्री बन सदा, आपके भाल टीका लगाती रहे
 
शुभकामनायें
 
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पंकज के पत्रों पर रेखा लिखती है शबनम से पाती
लगी झूमने शुभ्र चांदनी तारों सा आँचल लहराती
परियां बन कर अभिलाषाएं उड़ती फिरती है आँगन में
नाच रही हर एक पंखुरी मलयज के संग संग बतियाती

मौसम ने ली ओढ़ अचानक फागुन सी रंगीन चुनरिया
प्रीत छेड़ती नई धुनों में भीगी हुई मिलन बाँसुरिया
करते हैं अभिषेक नयन की कोरों से रिस रिस कर सपने
लगा आज सीहोर आ गए राधा के संग में सांवरिया

दसों दिशाएँ हुई उल्लासित आज दिसंबर दस के दिन को
मढ़ कर स्वर्णमयी करती हैं उस रजताभ अनूठे छिन को
कमल पत्र पर उभर गई थी रेखाएं जब घनी प्रीत की
मन के इतिहासों ने सौंपा सत्र स्वयं का पूरा जिनको

नौ वर्षों के पथ में चलते कदम साथ हो गये नवग्रह
ढली प्रेरणाओं में मन की सहज भावना कर कर आग्रह
नयी नयी मंज़िल पायें नित, यही कामना सजती है अब
और लुटाते रहें आप दोनों मिल कर सब ही पर अनुग्रह

Wednesday, November 18, 2009

तुझे भेंट मे मैं क्या दूँ

ओ अनुरागी तुझे भेंट मे मैं क्या दूँ, तू ही है दाता
तेरे सिवा विश्च में जो भी प्राणी है, वो है इक याचक

तेरी अनुकम्पा की बारिश से जब भीगा मेरा आँचल
सुधा कलश बन गई हाथ में जो थी मेरे जल की छागल
दीपित हुईं दिशायें मेरी जिनपर परत जमी थी काली
तेरे आशीषों से मेरी हर मावस बन गई दिवाली

है बस इक ये ही अभिलाषा ओ मेरे प्राणेश ! सदा ही
तू आराध्य रहे नित मेरा ,और रहूँ मैं बन आराधक

जब जब तेरे अनुदानों की महिमा गाये मेरी वाणी
स्वत: झरा करती है तब तब होठों से कविता कल्याण
तू ही भाव और स्वर तू ही, तू ही तो है संवरा अक्षर
तू ही मन की अनुभूति है, तू ही अभिव्यक्ति का निर्झर
तेरे वरद हस्त की छाया रहती है जिसके मस्तक प
साहस नहीं किसी का उसके पथ में आये बन कर बाधक

तरे इंगित से जलती है ज्योति ज्ञान की अज्ञानों में
तेरी दॄष्टि बदल देती है विपदाओं को मुस्कानों में
तेरी इच्छा बिना न होती जग में कोई हलचल संभव
सांस सांस में व्याप्त रहा है मेरी बस तेरा ही अनुभव

तेरे दरवाजे पर आकर भिक्षा एक यही मैं माँगूं
धड़कन रहे ह्रदय की मेरे बनकर बस तेरी ही साधक.

Monday, November 2, 2009

एक तुम्हारा वॄन्दावन

अभिलाषा का दीप जला कर खड़ा हुआ हूँ द्वारे पर
अपनी करुणा के पारस से छू मुझको कर दो कंचन

जीवन की आपाधापी में भूल गया अपने को भी
लेकिन यह मेरी गति तुमसे आखिर कब है अनजानी
कर्म प्रकाशित मेरे जितने हैं बस ज्योति तुम्ही से पा
व्यथा हदय की तुमसे, तुमसे ही आंखों का है पानी

करता हूँ करबद्ध प्रार्थना बीन दया की छेड़ो तुम
भक्ति भाव की गूँजे मेरे प्राणों में जिससे सरगम

मन के आईने में दिख पाता है केवल धुंधलापन
सीमित है द्वारे तक मेरी नजरों की ये बीनाई
आओ बनकर ज्योति दिशा दो भ्रमित हुए पागल मन को
सारथि बन कर जैसे तुमने दिशा पार्थ को दिखलाई

फिर से फ़ूंको प्राण, प्राण की सोई हुई बाँसुरी में
गूँज उठे मीठी मोहक तानों से ये मन का आँगन

तुम्हें ज्ञात तुम ही भ्रम देते तुम्हीं ज्ञान सिखलाते हो
बिना तुम्हारे इंगित के मैं चलूँ एक भी पग ,मुश्किल
तुम ही गुरु हो, सखा तुम्ही हो और तुम्ही हो प्राणेश्वर
है विशालता नभ की तुम में, और सूक्ष्म तुम जैसे तिल

मुझको अपने विस्तारों के अंश मात्र में आज रखो
रोम रोम में आकर बस ले एक तुम्हारा वॄन्दावन

Sunday, October 11, 2009

पंकज सुबीर जी- जन्मदिन शुभ हो

भाल टीका लगाती रहे जयश्री
हो कथा सत्यनारायणी आँगना
दीप्त हो आपकी राह, हर मोड़ पर
और बाधाओं से हो नहीं सामना



हर सितारा चले चाल अनुकूल ही
औ’ दिशायें सभी आपकी मित्र हों
जो क्षितिज पर बनें भोर में सांझ में
आपके ही सभी रंगमय चित्र हों
द्वार गूँजे सदा प्रीत की बाँसुरी
भारती तान अपनी सुनाती रहे
पांव में सरगमें बाँध कर रागिनी
नॄत्य करती रहे, गुनगुनाती रहे



कोंपलें पल की होती रहें अंकुरित
ईश से कर रहा हूँ यही प्रार्थना



आपका पथ सजाती रहे रात दिन
ओस भीगी हुई फूल की पांखुरी
भोर गंगाजली से उंड़ेली हुई
सांझ हो अर्चना की भरी आंजुरी
मंत्रपूरित रहे दोपहर आपकी
हो निशा चाँदनी में नहाये हुए
और मौसम सुनाता रहे बस वही
गीत जो आपने गुनगुनाये हुए



आपकी लेखनी से सहज ही खुले
हो कहीं कोई भी एक संभावना



नित्य जलते रहें दीप विश्वास के
और संकल्प, संकल्प नूतन करें
लौ अखंडित रहे ज्ञान की प्रज्ज्वलित
प्राण निष्ठाओं के सौष्ठव से भरें
आपका पायें सान्निध्य जो भी वही
पुष्प की वाटिका से सँवरते रहें
गीत हो हो गज़ल या कहानी कोई
आपका स्पर्श पायें सँवरते रहें



लिख रहा हूँ ह्रदय में उठी भावना
जो समय मिल सके तो इसे बाँचना

Wednesday, September 2, 2009

मौन सभी प्रतिध्वनियां, तब भी

आंखों में चुभने लग जाये काँटा बन कर उगी रोशनी
धागा धागा छितरा जाये, सुधियों की रंगीन ओढ़नी
जब विराम का इक पल बढ़ कर पर्वत सा उँचा हो जाये
जब अपनी खाई सौगंधें पड़ जायें खुद आप तोड़नी
उस पल मन का वीरानापन और अधिक कुछ बढ़ जाता है
कोशिश तो करता है स्वर, पर गीत नहीं गाने पाता है

अक्षर अपना छोड़ नियंत्रण, भटका करते हैं आवारा
स्वप्न नयन की डगर ढूँढ़ता फिरता निशि में मारा मारा
स्वर ठोकर खा गिरा गले में. उठ कर संभल नहींहै पाता
और शून्य में डूबा करता उगने से पहले हर तारा
रिश्तों के सन्दर्भों से जो रह जाता पतंग सा कट कर
सौगन्धों का टूटा धागा दोबारा न जुड़ पाता है

आश्वासन की घुट्टी पीते, बड़ा हुआ जीवन संतोषी
अपने सिवा मानता कब है और किसी दूजे को दोषी
सन्नाटे से टकरा होतीं मौन सभी प्रतिध्वनियां, तब भी
आस लगाये रहता शायद टूट सके छाई खामोशी
अधिकारों की पुस्तक पर है रहती पर्त धूल की मोटी
किसको है अधिकार कहाँ तक, ज्ञात नहीं यह हो पाता है

किंवदन्ती हो जाती बदले, समय गये घूरे की काया
परिवर्तन का झोंका कोई भटक पंथ जब इधर न आया
उलझ गये जो रेखाओं में राह उसी पर चलते चलते
मंज़िल का आभास न होता, सफ़र सांस का तो चुक आया
वाणी छिना, लुटा शब्दों को, राहजनी करवा यायावर
पथ पर चलते हुए उम्र के आस न फिर भी खो पाता है

Monday, August 17, 2009

पॄष्ठ कोरा पड़ा मेज पर

पॄष्ठ कोरा पड़ा मेज पर पूछता रह गया शब्द मैने जड़े ही नहीं
लेखनी एक करती प्रतीक्षा र्रही, हाथ मेरे उठाने बढ़े ही नहीं
शब्द ने ये कहा गीत कोई लिखूँ,या नये रंग में एक रँग दूँ गज़ल
भावना का न उमड़ा मगर ज्वार फिर छंद ने शिल्प कोई गढ़े ही नहीं.
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स्याही आंसू की पीड़ा ने सौंपी नहीं लेखनी मेरी प्यासी की प्यासी रही
हाशिये पे पसारे हुए पांव को, छाई पन्नों पे गहरी उदासी रही
गीत गज़लों के आकार बन न सके, शिल्प के सारे औज़ार खंडित हुए
और नाकारियत वक्त की मेज पर, हाथ रख कर के लेती उबासी रही
-0-0-0-0-0-0-
वक्त ने छीन ली उंगलियों से कलम, भाव ने शब्द का वस्त्र पहना नहीं
छंद, उपमा, अलंकार सब पास हैं, काम आया मगर कोई गहना नहीं
कल्पना के पखेरू मेरे कैद हैं, व्बज़िन्दगी के बिछाये हुए जाल में
भावनाओं की गंगा बँधी बाँध में, और संभव हुआ उसका बहना नहीं
-0-0-0-0-0-

Tuesday, August 11, 2009

बासठ वर्षों की आज़ादी

हम स्वतंत्र हैं भूल न जायें, एक बार फिर हुई मुनादी
बासठ दिये जला कर अपना, जन्म दिवस करती आज़ादी

हम स्वतंत्र हैं जहां धरा पर चाहें वहीं बिछौना कर लें
हम स्वतंत्र हैं जहां चाह हो, अंबर के नीचे सो जायें
हम स्वतंत्र हैं, चाहें पानी पीकर अपना पेट पाल ले
और अगर चाहें तो प्यासे रह रह कर ही मंगल गायें

एक बार फिर लगी चमकने कलफ़ लगा कर उजली खादी
बासठ दिये जला कर अपना, जन्म दिवस करती आज़ादी

कान्हा के वंशज, स्वतंत्र हम दही दूध के हैं अधिकारी
हम स्वतंत्र, अनुकूल वात में अपनी गायें भेंसे पालें
हां स्वतंत्र हम जो भी मन में आये उनको वही खिलायें
हम स्वतंत्र हैं, हम चाहें तो खुद ही उमका चारा खालें

हम स्वतंत्र हैं, अर्ध शती में तीन गुणा कर लें आबादी
बासठ दिये जला कर अपना, जन्म दिवस करती आज़ादी

हम स्वतंत्र हैं जितने चाहें, खूब उछालें नभ में नारे
हम स्काटलेंड का पानी पीकर जल संकट सुलझायें
हम स्वतंत्र दोनों हाथों से घर की ओर उलीचें सब कुछ
अन्य सभी को सहन शक्ति का धीरज का हम पाठ पढ़ायें

लिखें कथायें सोच न पाईं जो सपनों में नानी दादी
बासठ दिये जला कर अपना, जन्म दिवस करती आज़ादी

हां हम हैं आज़ाद, बनायें दो सौ दर्ज़न नये संगठन
नित्य बनायें मंदिर, बरगद के नीचे पत्थर रंग रंग कर
हम आज़ाद बहायें नदियां दही दूध की प्रतिमाओं पर
हम आज़ाद करें बचपन को कैद, हाथ में फटका देकर

हम स्वतंत्र हैं टेढ़ी कर दें, बातें हों जो सीधी सादी
बासठ दिये जला कर अपना जन्मदिवस करती आज़ादी

Wednesday, August 5, 2009

एक धागा जोड़ रखता

कॄष्ण बन कर गा रहा है आज मेरा मन सुभद्रे
हो रहा प्रमुदित निरंतर मन, लिये नेहा तुम्हारा

ओ सहोदर, वर्ष का यह दिन पुन: जीवन्त करता
स्नेह के अदॄश्य धागे, बाँध जो तुमने रखे हैं
दीप बन आलोकमय करते रहे हैं पंथ मेरा
और जो अनुराग के पल हैं, सुधा डूबे पगे हैं

एक धागा जोड़ रखता ज़िन्दगी के हर निमिष को
और फिर प्रत्येक उसने चेतना का पल निखारा

शब्द में सिमटे कहाँ तक भावना मन में उगीं जो
और कितनी बात वाणी कह सकी तुमको विदित है
किन्तु मेरी मार्गदर्शक है तुम्हारी सहज बातें
और वे संकल्प जिनमें सर्वदा हित ही निहित है

मैं कभी हो पाऊँ उॠण, जानता संभव नहीं है
कामना है, हर जनम पाऊँ तुम्हारा ही सहारा

Wednesday, July 29, 2009

समीर भाई-जन्मदिन शुभ हो

दिन तो है उन्तीस जुलाई और वार हओ बुध
उसका जन्मदिवस आया जो कभी न होता क्रुद्ध
कभी न होता क्रुद्ध, सदा मुस्कान बिखेरे
सबके उसके चिट्ठे पर लगते हैं फ़ेरे
कोई रहता नहीं बधाई उसे दिये बिन
शुभ समीर हो आज जनम का फिर से ये दिन

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Monday, July 27, 2009

आज फिर बदली हुई हैं केंचुलें

लड़खड़ाते ज़िन्दगी के कुछ अधूरे प्रश्न लेकर

चाहना है उत्तरों की माल अपने हाथ आये

कंठ का स्वर हो गया नीलाम यों तो मंडियों में

आस लेकिन होंठ नूतन गीत इक नित गुनगुनाये

मुट्ठियों की एक रेखा में घिरीं झंझायें कितनी

और है सामर्थ्य कितनी, कौन अपनी जानता है

चक्रव्यूहों में पलों के घिर गये हैं उन पगों की

संकुचित सीमायें कितनी ? कौन है ! पहचानता है

दंभ के लेकिन विषैले नाग से जो डँस गये हैं

सोच के उनके भरम की हैं चिकित्सायें न बाकी

रिक्त पैमाना,सुराही, रिक्त सारे मधुकलश हैं

त्याग मदिरालय, विलय एकाकियत में आज साकी

खो चुके विश्वास की जो पूँजियाँ, अपने सफ़र में

वे छलावों के महज, सिक्के भुनाना जानते हैं

आईने में जो नजर आता उसे झुठला सके क्या

बिम्ब जितने भी बनें, क्या वे उन्हें पहचानते हैं ?

टूट कर बिखरे सभी घुँघरू, मगर कुछ पायलों की

चाह है इक बार फिर से नॄत्य में वे झनझनायें

शब्द से परिचय मिटा कर आज भाषा के विरोधी

माँगते हैं इक हितैषी की तरह सम्मान पायें

Friday, July 24, 2009

अब हैं नई नई उपमायें

बदल रहा परिवेश, बदलता समय, बदलती परिभाषायें
बदल रही हैं कविता में भी जो प्रयुक्त होती उपमायें


तुम अलार्म की घड़ी दूर जो रखती है वैरन निंदिया से
और मुझे दफ़्तर जाने में देर नहीं जो होने देती
और तुम्ही तो मोहक वाणी जीपीएस के निर्देशन की
कभी अजनबी राहों पर भी जो मुझको खोने न देती


तुमसे पल भी दूर रहूं मौं, सुभगे यह तो हुआ असंभव
तुम न साथ को छोड़ सकोगी कितनी भी आयें विपदायें


तुम रिपोर्ट वह ट्रैफ़िक वाली जिसके बिना गुजारा मुश्किल
तुम वह वैदर फ़ोरकास्ट हो, दिन को पल करती आवंटित
तुम मुझको प्रिय इतनी, जितनी सेल हुआ करती शापर को
या क्रिसमस पर किसी माल में हुई पार्किंग हो आरक्षित


तुम हो स्वर की डाक फोन की मोबाईल की लैंडलाईन की
बिना तुम्हारे क्या संभव है सामाजिक जीवन जी पायें


तुम ब्लकबैरी हो मेरी और नोटबूक प्रिये तुम्ही हो
और तुम्ही तो हो मीटिंग में साथ रहे जो लेजर पाईंटर
वेवनार की तुम्ही प्रणेता बिना तुम्हारे सब स्थिर होता
इर्द गिर्द सब हुआ तुम्हारे सूरज चन्दा जंतर मंतर


अंतरजाल विचरने वाली, एकरूप तुम पीडीएफ़ हो
बिना तुम्हारे सब अक्षम हैं खुद को परिभाषित कर पायें

Monday, July 13, 2009

बरखा- अतीत के झरोखों से

बरखा
किसी देवांगना के स्नात केशों से गिरे मोती
विदाई में अषाढ़ी बदलियों ने अश्रु छलकाए
किसी की पायलों के घुँघरुओं ने राग है छेड़ा
किसी गंधर्व ने आकाशमें पग आज थिरकाए

उड़ी है मिटि्टयों से सौंध जो इस प्यास को पीकर
किसी के नेह के उपहार का उपहार है शायद
चली अमरावती से आई हैयह पालकी नभ में
किसी की आस का बनता हुआ संसार है शायद

सुराही से गगन की एक तृष्णा की पुकारों को
छलकता गिर रहा मधु आज ज्यों वरदान इक होकर
ये फल है उस फसल का जोकि आशा को सँवारे बिन
उगाई धूप ने है सिंधु में नित बीज बो बो कर

- राकेश खंडेलवाल
5 सितंबर 2005

Tuesday, July 7, 2009

तुमने कहा न तुमको छेड़ा

तुमने कहा न तुमको छेड़ा कभी किसी ने ओ कुरूपिणे
इसीलिये छेड़ा है मैने तुमको सीटी एक बजाकर
हमदर्दी के कारण केवल कदम उठाया है ये सुन लो
अब ऐसा मत करना मेरे गले कहीं पड़ जाओ आकर

नहीं छेड़ती सुतली जैसी ज़ुल्फ़ तुम्हारी कभी हवा भी
बेचारी कोशिश करती है, लेकिन जुटा न पाती हिम्मत
एक बार चुनरी अटकी थी रेहड़ी से संकरी गलियों में
और किसी की हो पाती ये संभव हुआ नहीं है ज़ुर्रत

कोई पास तुम्हारे आकर खड़ा हो सके नामुमकिन है
जब तुम घर से निकला करती हो लहसुन की कली चबाकर

देह यष्टि का क्या कहना है, मिट्टी का लौंदा हो कोई
रखा हुआ ढेरी में जैसे कहीं चाक पर कुंभकार के
और तुम्हारी बोली की क्या बात कहूँ मैं शब्द नहीं हैं
संटी खाकर चीखा करता है भेंसा जैसे डकार के

मुँह को ढाँपे तुम्हें देख कर रात अमावस वाली शरमा
कोलतार ले गया तुम्हारे चेहरे से ही रंग चुरा कर

रहे चवन्नी छाप गली के जितने आशिक नजर चुराते
भूले से भी नहीं निगाहें नजर तुम्हारी से छू जायें
चमगादड़ सी आंखों वाली, कन्नी तुमसे सब ही काटें
तुम वह, जिसका वर्णन करती हैं डरावनी परी कथायें

नुक्कड पर बस एक तुम्हारी बातें होतीं भिन्डी-नसिके
साहस नहीं आईने का भी होता जाये सच बतलाकर

Saturday, July 4, 2009

मैं कौन हूँ

पूछते वे रहे नाम मेरा है क्या
सोच मैं भी रहा हूँ कि मैं कौन हूँ

मैं अधूरी तमन्नाओं की नज़्म हूँ
याकि आधा लिखा रह गया गीत हूँ
जोकि इतिहास के पृष्ठ में बन्द है
पीढ़ियों की बनाई हुई रीत हूँ
प्रश्न करता रहा हर नया दिन यही
क्या है परिचय मेरा और क्या नाम है
एक साया हूँ मैं जेठ की धूप का
या कि उमड़ा नहीं वो जलद श्याम है

उत्तरों की लिये प्यास भटका किया
अपने स्वर को गंवा कर खड़ा मौन हूँ
सोच मैं भी रहा हूँ कि मैं कौन हूँ

उंगलियों ने जिसे तार को छेड़ कर
नींद से न उठाया वो आवाज़ हूँ
कैद सीने की गहराईयों में रहा
उम्र भर छटपटाता वही राज हूँ
मैं हूँ निश्चय वही पार्थ के पुत्र का
व्यूह को भेदने के लिये जो चला
मैं, जो तम की उमड़ती हुई आंधियाँ
रोकने के लिये दीप बन कर जला

जो अपेक्षायें आधी हैं चौथाई हैं
उनको पूरा किये जा रहा पौन हूँ
आप जानें, तो बतलायें मैं कौन हूँ

बिम्ब जो आईने में खड़े हो गये
अजनबी और भी अजनबी से लगे
जान पाने की कोशिश न पूरी हुई
बिम्ब वे अपने प्रतिबिम्ब से ही ठगे
सांस की वादियों में हवा में घुली
धड़कनों के बिलखते हुए शोर में
ढूँढ़ता मैं स्वयं को अभी तक रहा
हर ढली सांझ में हर सजी भोर में

गीत तो लिख दिया आपने था कहा
प्रश्न ्ये कह रहा जौन का तौन हूँ
सोच मैं भी रहा हूँ कि मैं कौन हूँ

Thursday, June 25, 2009

नाम तुम्हारा आ जाता है

क्या बतलाऊँ कितना रोका है मैने अपना पागल मन
लेकिन होठों पर रह रह कर नाम तुम्हारा आ जाता है
उड़ती हुई कल्पनाओं ने देखा नहीं क्षितिज पर कोई
चित्र, स्वप्न बन कर वह लेकिन आंखों में आ छा जाता है

देहरी पर आकर रुक जाती है जब गोधूली की बेला
तब सहसा ही हो जाता है भावुक मन कुछ और अकेला
परिचय के विस्तारित नभ में दिखता नहीं सितारा कोई
लेकिन मन में लग जाता है अनचीन्ही सुधियों का मेला

एक अपरिचित सुर सहसा ही अपना सा, चिर परिचित होकर
कोई भूला हुआ गीत आ फिर से याद दिला जाता है
क्या बतलाऊँ कितना रोका है मैने अपना पागल मन
लेकिन होठों पर रह रह कर नाम तुम्हारा आ जाता है

दूरी के प्रतिमान सिमट कररह जाते हैं एक सूत भर
सब कुछ जैसे कह जाते हैं अधrरों के हो मौन रहे स्वर,
बैठा करते भावुकता के पाखी आ मन की शाखों पर.
तब संकल्प ह्रदय के जाते हैं उठती झंझा में बह कर

आंखों के आगे आकर के धुंआ कोई आकार बनाता
लगता है तुम हो, सहसा ही मन आनंदित हो जाता है
क्या बतलाऊँ कितना रोका है मैने अपना पागल मन
लेकिन होठों पर रह रह कर नाम तुम्हारा आ जाता है

रंग नहीं भर पाती कूची, रही अधूरी रेखाओं में
अनभेजे संदेसे घुल कर रह जाते सारे दिशाओं में
माना तुम हो दूर मगर यों पैठ गये गहरे अंतर में
अपना चित्र तलाशा करता मन, इतिहासिक गाथाओं में

लगता स्पर्श तुम्हारा है वह पंख एक झरता अम्बर से
और अचानक चातक सा मन नीर तॄप्ति का पा जाता है
क्या बतलाऊँ कितना रोका है मैने अपना पागल मन
लेकिन होठों पर रह रह कर नाम तुम्हारा आ जाता है

Thursday, May 14, 2009

अटक कर बैठ गई मैं संबोधन पर

ऐसा हुआ कि जब गीतकलश पर गीत आया था " लेकिन सम्बोधन पर " तो उसके आधार पर कई मित्रों ने अपने अपने ढंग से कलम चलाई. तो फिर उसी क्रम में दूसरा गीत लिखा गया.



दूसरे गीत के बाद से कई मित्रों के तकाजे हुए कि सिक्के का दूसरा पहलू भी दर्शाया जाये. अतएव यह पंक्तियाँ समर्पित हैं :-



मैने जब यह चाहा लिख दूँ पत्र प्रेम में भीगा तुमको
जाने क्या होगया अटक कर बैठ गई मैं संबोधन पर

जो चूल्हे पर चढ़ी दाल में उफ़ना है, तुम वही झाग हो
काकदूत के स्वर में गूँजा सुबह शाम जो वही राग हो
असमंजस है क्या कह कर मैं तुमको कोई सम्बोधन दूँ
जोकि पतीले के पैंदे में चिपका जलकर वही साग हो

आत्मसमर्पण किया कलम ने आंसू बहा और क्रन्दन कर
लिख न पाई पत्र तुम्हें, मैं अटकी केवल संबोधन पर

लिखूँ तुम्हें फ़ुटबाल गेम के लास्ट प्ले पर होता फ़ंबल
या फिर पहले से निर्धारित डब्लू एफ़ का कोई दंगल
फिर यह सोचा तुम्हें बुलाऊं मैं कह कर वह प्रेम पुजारी
अपने गले लगा कर रखती रही सदा ही जिसको चम्बल

लिख दूं तुमको घना कुहासा जो छाया रहता लंदन पर
निर्णय कोई ले न सकी मैं अटक गई हूँ संबोधन पर

फिर ये चाहा लिखूँ रेत के मरुथल में तुम उठे बगूले
तुम हो ठुड्डी जिसे भाड़ में छोड़ गये मक्की के फूले
फ़ास्ट फ़ूड्श के साथ मिला जो मुझको तुम क्या वही नेपकिन
या फिर हो वो पैनी जिसको गिरा जेब से सब ही भूले

तुम अंधड़ हो जो आ कर घिरने लग जाता है मधुवन पर
सर में दर्द हो गया मेरे अटके अटके सम्बोधन पर.

Sunday, May 10, 2009

माँ

चाहता था लिखूँ शब्द माँ के लिये
लेखनी एक भी किन्तु पा न सकी
जितनी ममता उमड़ गोद में है गिरी
सिन्धु से व्योम तक वह समा न सकी
ज़िन्दगी, ज्ञान, उपलब्धियाँ, प्राप्ति सब
एक वह ही रही सबका आधार है
सरगमों ने समर्पण उसे कर दिया
रागिनी कोई भी गुनगुना न सकी

शब्द अक्षम हुए कुछ भी बोले नहीं
स्वर झुका शीश अपना नमन कर रहा
भाव कर जोड़ कर आंजुरि भर सुमन
भावना के, पगों के कमल धर रहा
तेरे आशीष का छत्र छाया रहे
शीश पर हर घड़ी , बस यही कामना
आज नव सूर्य में, आज नव भोर में
यह अपेक्षा पुन: आज मैं कर रहा

राकेश
१० मई २००९

Monday, April 27, 2009

कह गई आकर हवा

केतकी वन, फूल उपवन, प्रीत मन महके

सांझ आई बो गई थी चाँदनी के बीज
रात भर तपते सितारे जब गये थे सीज
ओस के कण, पाटलों पर आ गये बह के

कह गई आकर हवा जब एक मीठी बात
भर गया फिर रंग से खिल कर कली का गात
प्यार के पल सुर्ख होकर गाल पर दहके

कातती है गंध को पुरबाई ले तकली
बादलों के वक्ष पर शम्पाओं की हँसली
कह रही है भेद सारे मौन ही रह के

Sunday, April 12, 2009

आखिर कौन कहो तुम मेरे

सुनो जरा सा समय मिले तो इतना मुझे बता जाना तुम
क्या कह कर मैं तुम्हें पुकारूँ , आखिर कौन कहो तुम मेरे
तुम हो सखा ? निमिष के परिचित ? या राहों के सहचर कोई
क्यो आकर के स्वप्न तुम्हारे डाल रहे नयनों में डेरे

मेरे दिवस निशा के गतिक्रम, उलझ गये हैं क्यों तुम ही में
और साफ़ क्यों नजर नहीं आता है मुझको चित्र तुम्हारा

मेरी नजरों की भटकन, लौटी है चेहरों से टकराकर
दृष्टि किरण को सोख रखे जो, अब तक मिला नही वह चेहरा
मेरे मन के आईने में टँका हुआ जो एक फ़्रेम है
उसमें चित्र नहीं दिखता है, दिखता केवल रंग सुनहरा

यद्यपि ज्ञात मुझे है केवल चित्र तुम्हारा वहाँ लगेगा
लेकिन जब तक कहो नहीं तुम, धुंधला ही रहता बेचारा

ऊहापोह और असमंजस घेरे हुए मुझे रहते हैं
संशय के उगने लगते हैं जाने क्यों पग पग पर साये
स्वीकॄति पाने की आतुरता में द्वारे तक जाकर लौटे
बार बार पग बिना दस्तकों के लगता है, हैं बौराये

मैं इक दिया प्रतीक्षा वाला दीपित करके खड़ा हुआ हूँ
शायद तुम संबोधन सुन लो, वह जो मैने नहीं उचारा

हां ये भी है विदित न जाने कितने प्रश्न उठेंगे इस पर
क्योंकि न तुमसे परिचित हूँ मैं, और न ही तुम मुझसे परिचित
और बात जो उठी ह्रदय सेर मैने वह ज्यों की त्यों लिख दी
जोड़ा नहीम विशेषण कोई , और न क्रम से ही की शिल्पित

हां यह संभव प्रतिउत्तर में मेरे प्रश्नों को सुलझाये
संध्या के ढलते ही आता जो रजनी का पहला तारा

Monday, April 6, 2009

गांव अपना याद करता है

वो जिसकी गौनियों से तुम डले गुड़ के चुराते थे
वो जिसके तास के बूरे में तुम फ़ंकी लगाते थे
जो तुमसे बांटता था गोलियां चूरन की रोजाना
वो जिसकी सायकिल हर शाम को तुम मांग लाते थे
कभी तो लौट कर आओगे तुम ये बात करता है
तुम्हें वो गांव का पप्पू पंसारी याद करता है

जहां तुमने बहस की थी खड़े होकर चुनावों की
जहां तुम बात करते थे ज़माने के गुनाहों की
हैं धब्बे पीक के दूकान के बाजू अभी मौजूद
जहां छोड़ी निशानी पान के तुमने लुआबों की
अभी चूना लगाने की तुम्हारी बात करता है
तुम्हें ले पान , वो कुन्दन कबाड़ी याद करता है

मियां जुम्मन रहे लाते थे जिस पर लाद कर कुल्लड़
कि जिसके साथ मचता था बरस का फ़ागुनी हुल्लड़
सवारी जिसकी करते थे बने होली पे तुम टेपा
घुमाता था तुम्हें जो रोज ही चौपाल से नुक्कड़
गधा वो फिर तुम्हारे साथ की फ़रियाद करता है
तुम्हें वह गांव का मोहन मदारी याद करता है

कभी जिसके कटोरे में न डाला एक भी पैसा
जो कहता था नहीं देखा कभी कोई भी तुम जैसा
वो जिसके हाथ की लाठी कभी तुम लेके भागे थे
न जिससे पूछ पाये थे हुआ है हाल क्यों ऐसा
तुम्हें मनहूसियत कह दर्द का इज़हार करता है
तुम्हें वो गांव का भीखू भिखारी याद करता है

सुनो ! संभव अगर हो एक दिन वापिस चले जाओ
नहीं बदले जरा सा भी, उन्हें ये बात बतलाऒ
कहो अब गुड़ नहीं चीनी के पैकेट तुम उठाते हो
गधे जैसी खटारा ही यहां पर तुम चलाते हो
यहां पानी का कूलर वक्त को बरबाद करता है
तुम्हारा दिल अभी भी गांव अपना याद करता है

Monday, March 30, 2009

मिला नहीं संदेश तुम्हारा

मिलती हैं ईमेल सैकड़ों हाटमेल, याहू गूगल पर
लेकिन जिसको ढूँढ़ रहा वह मिला नहीं संदेश तुम्हारा

भर जाता इनबाक्स रोज ही अनचाहे सन्देश प्राप्त कर
इसे खरीदो उसे खरीदो, इस सुविधा का लाभ उठा लो
ढेर सूचनायें होती हैं सच्ची झूठी और अफ़वाहें
जितना मर्जी आये उतना घर पर बैठे कर्जा पा लो

मैं दिलीट तो कर देता हूँ, लेकिन हूँ दस बार सोचता
ऐसा न हो कभी भूल से मिट जाये सन्देश तुम्हारा

कभी भेजने वाले का जो दिखता नाम सुपरिचित होता
पर जब खोले सन्देशे को तब होती खासी झुंझलाहट
दुनिया भर के एकाकी मिल लगता हमें बाँटना चाहें
और मित्रता करने की खातिर हैं रहे लगाये जमघट

पता नहीं क्यों नेटवर्ल्ड के हर इक वाशिन्दे ने पाया
बिना हमारी मंजूरी के पया और घर द्वार हमारा

कुछ सन्देशे मित्र तुम्हारे ने रच डाला मंडल कोई
और सूचना भेज रहे हैं आओ आकर इसमें जुड़ लो,
एक फ़ेसबूक, एक ओरकुट छह दर्ज़न याहू के ग्रुप हैं
छुटकारा है नहीं कहीं भी, किसी दिशा में चाहे मुड़ लो

सुनो आज से चिट्ठी मुझको सिर्फ़ डाक के द्वारा भेजो
ताकि अनर्ग्ल सन्देशों से मिल जाये मुझको छुटकारा
और नेट पर पत्र तुम्हारा ढूँढ़ू कभी नहीं दोबारा

Friday, March 27, 2009

इकानामी

लगा ये चान्दनी हमको जरा धुंधली लगी होने
तो पूछा चन्द्रमा क्या रोशनी अपनी लगा खोने
बताया बीस प्रतिशत की कटौती चल रही है अब
इकानामी का थोड़ा सा असर उस पर लगा होने

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पहले बोले बचत कीजिये, बिना बचत के पार नहीं है
अब कहते हैं खर्च कीजिये , बिना खर्च उद्धार नहीं है
हमने सोचा खर्चा तो हम कर लें, पर बिल भी आयेंगे
क्रेडिट कार्ड इश्युअर अपना कोई रिश्तेदार नहीं है

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मेरा महबूब अब मुझसे यहाँ मिलने नहीं आता
बिचारा फोन पर ही अब मुहब्बत की गज़ल गाता
जो पूछा माजरा क्या है,तो हो मायूस वो बोला
मैं अपनी कार में पेट्रोल बिलकुल भर नहीं पाता

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Wednesday, March 25, 2009

पीर के पन्ने पिचहत्तर

पीर के पन्ने पिचहत्तर सांत्वना के शब्द सत्रह
एक यह अनुपात लेकर चल रही है ज़िन्दगानी

जागती है भोर की पहली किरण की दस्तकों से
और चढ़ती धूप के संग पीर की चढ़ती जवानी
सांझ को ढलती हुई यह देख कर, ज्यादा निखरती
रात में यों महकती है, जिस तरह से रात रानी


एक यह थी कल, यही है आज, होगी कल सुनिश्चित
रोज ही दुहराई जाती बस इसी की तो कहानी

उंगलियों का स्पर्श हो या पांव का हो चिन्ह कोई
खिल उठे है झूम कलियों की मधुर मुस्कान जैसे
और रिसती है सपन की संधि की बारीकियों से
गूँजती तन में, वनों में बांसुरी की तान जैसी

ओस की पी ताजगी चिर यौवना हो कर खड़ी है
करवटों से जुड़ पलों की और हो जाती सुहानी

सांत्वना के हर निमिष का पान कर लेती ठठा कर
छोड़ती अधिपत्य अपना धड़कनों पर से नहीं ये
है सभी भंगुर धरा पर किन्तु शाश्वत बस यही है
सर्जना के आदि से लेकर अभी तक है यहीं ये

बोलता इतिहास जीवन का महज इसकी कहाअनी
हो कोई संदर्भ नूतन, याकि हो गाथा पुरानी

Tuesday, March 17, 2009

देह में बज रही बांसुरी

चांदनी में घुलीं भोर की रश्मियां
दूध में टेसुओं की घुली पांखुरी
केसरी क्यारियों से उठी गंध की
आपकी देह में बज रही बांसुरी
यों लगा आज रतिकान्त की चाहना
शिल्प में ढल के आई मेरे सामने
याकि वरदान बन कर संवर आई है
कामनाओं के जल से भरी आंजुरी

Tuesday, March 3, 2009

रोशनी गुनगुनाने लगी

रोशनी गुनगुनाने लगी
चाँदनी के मचलते हुए साज पर रोशनी गुनगुनाने लगी
रात भर जो कमल पत्र पर था लिखा
इक सितारे ने गंधों भरी ओस से
भोर वह गीत गाने लगी

जुगनुओं की चमक से गले मिल गई
गंध महकी हुई एक निशिगंध की
बादलों ने पकड़ चाँद की उंगलियाँ
याद फिर से दिलाई है सौगंध की
एक झोंका भटकता हुआ फ़ागुनी
थाम कर खिड़कियों को वहीं रुक गया
प्रीत के हाथ मेंहदी रचे देखने
और नीचे उतर कर गगन झुक गया

इक कली खिलखिलाने लगी
संधिवय पार कर उम्र की पालकी
पग को आगे बढ़ाने लगी
इक कली खिलखिलाने लगी

स्वाति के मेघ ने मुस्कुराते हुए
एक उपहार नव, सीपियों को दिया
चाँदनी से पिघल कर सुधा जो बही
ओक भर भर उसे प्यास ने पी लिया
उष्णता दीप की बन के पारस हँसी
देह तपता हुआ स्वर्ण करते हुए
तान पर मुरल्यों की शिरायें थिरक
झूमने लग गईं रास करते हुए

पेंजनी झनझनाने लगी
पाई झंकार तट से तरंगो ने जब
राग नूतन बजाने लगीं
पेंजनी झनझनाने लगी


एक कंदील थक ले उबासी रहा
अलगनी पे समय किन्तु ठहरा रहा
थरथराती हुई पंखुरी का परस
रात के होंठ पर और गहरा रहा
एक बिखरा हुआ जोकि बिखराव था
वो न सिमटा थकी कोशिशें रश्मि की
और विस्तार अपना बढ़ाती रही
एक मीठी तपन शीत सी अग्नि की


चाँदनी डूब जाने लगी
रात भर की जगी, बोझिलें ले पलक
और भी कसमसाने लगी

Thursday, February 12, 2009

जब सपने हरजाई निकले

हमने हर आघात ह्रदय पर सहन किया है हंसते हंसते
लेकिन टूटा मन किरचौं में, जब सपने हरजाई निकले

नैनों की गलियों में हमने, फूल बिछा भेजा आमंत्रण
आश्वासन की पुरवाई को किया द्वार का तोरण वन्दन
पलकों के कालीन बना कर तत्पर हुए पगतली करने
लेकिन इन राहों पर मुड़ वे आये नहीं जरा कुछ कहने

हमने जिन शब्दों को सोचा हैं अशआर गज़ल के पूरे
अधरों पर आये तो वे सब, आधी लिखी रुबाई निकले

निशा बुलाती रही नींद को अँगनाई में दे आवाज़ें
और कल्पना भी आतुर थी साथ साथ ले ले परवाज़ें
देहरी ने रह रह उत्सुक हो करके सूना पंथ निहारा
किन्तु न खड़का पग आहट से एक बार भी यह चौबारा

हमने जिनको शतजन्मों की सौगंधें हैं मान रखा था
वे सब के सब शब्द-पुंज इक टूटी हुई इकाई निकले

धागा धागा चित्र बुने थे, आशाओं की लिये सलाई
महकी हुई एक फुलवारी, और एक बौरी अमराई
किन्तु कैनवस रहा निगलता, रंग तूलिकाओं के सारे
एक राख सी रंगत बिखरी,दिन दोपहरी सांझ, सकारे

खड़े हुए हम दरबारों में दिशा बोध से हीन धनुर्धर
इतने दर्शक घेरे हमको, कोई तो वरदाई निकले

Monday, January 26, 2009

हाथ सरसों के पीले किये खेत ने

तारकों से टपकती हुई ओस में
रात भर थी घुली गुनगुनी चांदनी
एक नीहारिका के अधर पर टिकी
गुनगुनाती रही मुस्कुरा रागिनी
स्वर मिला ओस से, पांखुरी पर ठिठक
एक प्रतिमा उभरने लगी रूप की
चांद का बिम्ब चेहरा दिखाने लगा
ओढ़नी ओढ़ कर थी खड़ी धूप की

रत्नमय हो सजी वीथिकायें सभी
जैसे आभूषणों की पिटारी खुली


गंध निशिगन्ध की बात करती हुई
केतकी की महक से खड़ी मोड़ पर
बन दुल्हन सज गईम धान की बालियां
स्वर्ण गोटे के परिधान को ओढ़ कर
हाथ सरसों के पीले किये खेत ने
ताल की सीढ़ियां गीत गाने लगीं
पाग पीली धरे शीश टेसू हँसे
और चंचल घटा लड़खड़ाने लगी

पत्तियों पे रजत मुद्रिका सी सजी
ओस की बून्द कुछ हो गई चुलबुली

राह पनघट की जागी उठी नींद से
ले उबासी, खड़ी आँख मलती हुई
भोर दे फूँ क उनको बुझाने लगी
रात की ढिबरियाँ जो थीं जलती हुई
थाल पूजाओं के मंदिरों को चले
स्वर सजे आरती के नये राग में
गंध की तितलियां नॄत्य करने लगीं
शाख पर उग रही स्वर्ण सी आग में

रंग लेकर बसन्ती बही फिर हवा
बालियां कोंपलें गोद उसकी झुलीं

कंबलों को हटा लेके अंगड़ाइयाँ
धूप ने पांव अपने पसारे जरा
खोल परदा सलेटी, क्षितिज ने नया
रंग ला आसमानी गगन में भरा
डोर की शह मिली तो पतंगें उड़ीं
और सीमायें अपनी बढ़ाने लगीं
पेंजनी खूँटियों से उतर पांव में
आ बँधी और फिर झनझनाने लगीं

चढ़ गई आ खुनक देह पर किशमिशी
इक कनक की तुली, दूध में थी धुली

Friday, January 16, 2009

इसीलिये लिखा नहीं गीत नया कोई भी

पीर नहीं उपजी जो तूलिका डुबोता मैं
इसीलिये लिखा नहीं गीत नया कोई भी

कलियों के वादे तो सारे ही बिखर गये
उठे पांव इधर कभी, और कभी उधर गये
भावों ने ओढ़ी न शब्दों की चूनरिया
एकाकी साये थे जो, वे बस संवर गये

फूलों के पाटल पर टँगी नहीं बून्द कोई
रजनी में चन्दा ने शबनम तो बोई थी

आहों के आंसू से जितने अनुबन्ध हैं
और वे जो पलकों में अधरों में बन्द हैं
तोड़ नहीं पाये हैं कैद मगर सच ये है
वही मेरे गीतों के बिना लिखे छन्द हैं

हुआ नहीं चूम सके आकर के गालों को
आंखों में बदरी तो सुबह शाम रोई भी

आंखों में भरा रहा पतझड़ का सूनापन
सन्नाटा पीता सा चाहों का बौनापन
उंगली के पोरों पर रँगे हुए चित्रों में
अल्हड़ सी साधों की दिखती क्वांरी दुल्हन

आमंत्रण देती थी सेज सजी सपनों को
नींद मगर जागी थी, पल भर न सोई भी