Friday, December 19, 2008

तुम कैसे बिक जाओगे

नहीं कभी पनिहारिन ने गागर बेची
नहीं कभी बादल ने सागर बेचे हैं
राधा ने तो मोहन बेचा नहीं कभी
तुम कैसे बिक जाओगे ओ जीवन धन

तुम आधार हुए मेरे विश्वासों का
तुमने मंत्र दिये मेरे संकल्पों को
तुमने निष्ठाओं को नव आयाम दिया
तुमने अर्थ नये दे दिये विकल्पों को

छितरा दूंगा घिरा कुहासा पल भर में
नई ज्योति बो दूंगा रीते अम्बर में
तारों को फिर पंक्तिबद्ध हो चलने को
दिखला दूंगा एक तुम्हारा अनुशासन

तुम हो अभिलाषा का खिलता एक सुमन
तुम ही तो पीढ़ी का सपना हो प्रतिपल
तुमको नींव बनायेगा कल का आगत
तुम हो बिखरी हुई आस्था का संबल

कंटक वन ही घिरे सामने दिखते हों
लगता भी हो चाहे सपने बिकते हों
लेकिन विस्मृत कभी न हो यह सत्य तुम्हें
घिरे सर्प से ही रहते हैं चन्दन वन

बिकी धरोहर कभी नहीं संस्कृतियों की
कब बिकता निश्चय जो ठना हुआ मन में
बिकती नहीं विरासत जीवन जो पाता
और न बिकता भाव, बाँधता बन्धन में

रहे बेचते यों गलियों में सौदागर
हम जो बेचेंगे खरीद खुद ही लेंगे
चूड़ी,काजल कुमुकुम मेंहदी महावर सब
सुरभित करते रहे सदा ही तो मधुवन

मेरा विद्रोही मन भी कब स्वीकारा
कटी आस्था टूटी मर्यादा ओढूँ
मैं झरने सा जिधर हुआ मन बढ़ जाता
कभी न ऐसा लगा हठी सम्बल छोड़ूँ

आन्धी बरसातों में यह मन डिगा नहीं
तूफ़ानों में मेरा निश्चय झुका नहीं
तब ही प्यार उमड़ता करता जाता है
मेघ परी का नियमित पावन आराधन

1 comment:

Shar said...

"बिकी धरोहर कभी नहीं संस्कृतियों की
कब बिकता निश्चय जो ठना हुआ मन में
बिकती नहीं विरासत जीवन जो पाता
और न बिकता भाव, बाँधता बन्धन में"
Ati Sunder! shashvat Satya!