Wednesday, December 31, 2008

मंगलमय हों भोर निशा सब

शुभ हो नये वर्ष में हर दिन, रातें बीतें हुई रुपहली
रहे चाँदनी रात, न छाये चन्दा पर कोई भी बदली
सपने ढलें एक प्रतिमा में, चाहों को उत्कर्ष मिल सके
सावन छेड़े नित मृदंग औ फ़ागुन पंथ बजाये ढपली

Thursday, December 25, 2008

समीर भाई-- हार्दिक बधाई

आज का दिन चिट्ठा जगत के लाड़ले समीर लाल ( उड़नतश्तरी ) के लिये ऐतिहासिक है. आज उनका सपना पूरा हो रहा है. उनके सुपुत्र का प्रणय बन्धन आज शाम हो रहा है. इस अवसर पर उन्हें हार्दिक बधाई

पुष्प सुगन्धित मलय समीरं महकाये घर द्वारा
प्रगति और अनुपम हो मंगल, पावन प्रणय तुम्हारा

लगा गूँजने पुण्य साधना के मंत्रों का मृदु स्वर
सुषमा करे कन्हैया की पथ को प्रशस्त मह मह कर
शिखा दीप की ललक ललक कर, फिर फिर शगुन बताये
महिमा आज तुम्हारी राहों को आकर महकाये

शहनाई का उठा गूँजकर स्वर ये आज पुकारा
प्रगति पंथ पर रहे अग्रसर, अनुपम प्रणय तुम्हारा

मधुपूरित सपने सुशील मन, अनुभव नया बातायें
नभ पर आ राजेन्द्र मुदित मन सुरभित सुमन लुटायें
लिये सुनीति, विभा बिखराते हैं राकेश गगन पर
महामहिम के स्वप्न हो रहे शिल्पित आज निरन्तर

वीणा के सितार के संग में गाता है इकतारा
पावन मंगलमय हो अनुपम, परिणय प्रगति तुम्हारा

जो समवेत उठे स्वर वह हो गीता जैसा पावन
मुट्ठी में सिमटे आकर के मल्हारें ले सावन
सहराही जीवन के सारे सपने शिल्पित कर दे
और ईश तुमको बिन मांगे, वांछित हर इक वर दे

दिशा दिशा से दिक्पालों ने आज यही उच्चारा
प्रगति और अनुपम मंगल हो पावन प्रणय तुम्हारा

Friday, December 19, 2008

तुम कैसे बिक जाओगे

नहीं कभी पनिहारिन ने गागर बेची
नहीं कभी बादल ने सागर बेचे हैं
राधा ने तो मोहन बेचा नहीं कभी
तुम कैसे बिक जाओगे ओ जीवन धन

तुम आधार हुए मेरे विश्वासों का
तुमने मंत्र दिये मेरे संकल्पों को
तुमने निष्ठाओं को नव आयाम दिया
तुमने अर्थ नये दे दिये विकल्पों को

छितरा दूंगा घिरा कुहासा पल भर में
नई ज्योति बो दूंगा रीते अम्बर में
तारों को फिर पंक्तिबद्ध हो चलने को
दिखला दूंगा एक तुम्हारा अनुशासन

तुम हो अभिलाषा का खिलता एक सुमन
तुम ही तो पीढ़ी का सपना हो प्रतिपल
तुमको नींव बनायेगा कल का आगत
तुम हो बिखरी हुई आस्था का संबल

कंटक वन ही घिरे सामने दिखते हों
लगता भी हो चाहे सपने बिकते हों
लेकिन विस्मृत कभी न हो यह सत्य तुम्हें
घिरे सर्प से ही रहते हैं चन्दन वन

बिकी धरोहर कभी नहीं संस्कृतियों की
कब बिकता निश्चय जो ठना हुआ मन में
बिकती नहीं विरासत जीवन जो पाता
और न बिकता भाव, बाँधता बन्धन में

रहे बेचते यों गलियों में सौदागर
हम जो बेचेंगे खरीद खुद ही लेंगे
चूड़ी,काजल कुमुकुम मेंहदी महावर सब
सुरभित करते रहे सदा ही तो मधुवन

मेरा विद्रोही मन भी कब स्वीकारा
कटी आस्था टूटी मर्यादा ओढूँ
मैं झरने सा जिधर हुआ मन बढ़ जाता
कभी न ऐसा लगा हठी सम्बल छोड़ूँ

आन्धी बरसातों में यह मन डिगा नहीं
तूफ़ानों में मेरा निश्चय झुका नहीं
तब ही प्यार उमड़ता करता जाता है
मेघ परी का नियमित पावन आराधन

Wednesday, December 17, 2008

हम भी बिक जायेंगे

हम भी बिक जायेंगे


बेच रही पनिहारी गागर
लगता बादल बेचे सागर
कुछ ऐसा लगता है अब तो
राधा बेचे नटवर नागर
सिंहासन पर हर नगरी में
बैठे कंस नजर आयेंगे
आज बिक रहा जाने क्या क्या,
लगता कल हम बिक जायेंगे

नन्द गांव की नांदों में जब छल प्रपंच ही गया बिलोया
बरसाने में बारिश न कर उमड़ आँख में सावन रोया
गोकुल के गलियारे सारे हुए पूतना की जागीरें
दूध दही का सपना भी अब किसी सिन्धु में जाकर खोया

हुई होंठ की स्मित भी चोरी, टूटी हुई आस की डोरी
आगे बढ़ते हुए पांव जब बैसाखी पर टिक जायेंगे
हम भी बिक जायेंगे

वॄन्दावन के कुंजों में अब वॄन्द नहीं व्यापार उग रहा
आदर्शों के हर मोती को व्यभिचारी हो हंस चुग रहा
होता जब अभिषेक तिमिर का तब ही दीप करें दीवाली
सूरज की अगवानी होती, गया बीतता एक युग रहा

बुझी हुई हैं सभी मशालें और हाथ में केवल ढालें
खिड़की द्वारे तहखानों पर अब जब डाले चिक जायेंगे
हम भी बिक जायेंगे

दग्ध द्वारका कालयवन के अतिक्रमणों से होती रह रह
प्रद्द्युम्नी संकल्प सँवरते हैं पर दूजे पल जाते ढह
और रगों में अनिरुद्धों की होता नहीं प्रवाहित शोणित
हर आतंक और शोषण को होकर मौन सहज जाते सह

नहीं देखता कोई दर्पण, कर देता है सिर्फ़ समर्पण
निश्चित है भविष्य के पन्ने, सबको कह कर धिक जायेंगे
हम भी बिक जायेंगे

Tuesday, December 9, 2008

दोपहर से लगा हूँ पलक मींचने

एक अनुभूति है जिसको चीन्हा नहीं
पर लगा हूँ उसे बाँह में भींचने

मेरे अहसास के दायरे में कहीं
हैं छुपे आप आते नहीं सामने
ढूँढते ढूँढते हैं निगाहें थकीं
पर बताया नहीं कुछ पता गाँव ने
एक आभास जैसे चली हो हवा
एक खुशबू कि जिसने मुझे है छुआ
एक सपना खडा नींद की कोर पर
एक मुट्ठी भरी धूप लाई उषा

रंग पानी से लेकर क्षितिज पर कहीं
रूप के चित्र फिर से लगा खींचने

कल्पना की सुराही से छलकी हुई
पी रहा हूँ मधुर ज्योत्सना की सुधा
चेतना का मेरी हर निमिष, आपके
ध्यान के सिन्धु में प्राण! डूबा हुआ
फूल की पाँखुरी में रही खोजती
चित्र बस आपके चांदनी की किरन
हर दिशा को रही खटखटा कामना
आरजुओं की कर प्रज्वलित इक अगन

फिर मिलन की उगें बेल कुछ, द्वार पर
दे के सौगन्ध उनको लगा सींचने

भोर की वीथियों में उगे ओस कण
आपके पाँव की हैं महावर बने
मोतियों सी सुघर एक पदचाप से
छन्द नूतन कई सरगमों के बने
आपके कुन्तलों से उठी इक घटा
नभ में बरखा के छींटे उडाने लगी
ओढनी के किनारे से पुरबा चली
वादियों में गज़ल गुनगुनाने लगी

आपका रूप आँखों से हो न विलग
दोपहर से लगा हूँ पलक मींचने