एक बार फिर हुए धमाके, फिर से हुआ सवाली मैं
फिर तूफ़ान उठेगा शायद एक चाय की प्याली में
एक बार फिर भाषण होंगें, कुछ नारे लग जायेंगे
एक बार फिर श्वेत कबूतर गगन उड़ाये जायेंगे
एक बार फिर दोहराया जायेगा, गौतम गान्धी को
शब्द उछाले जायेंगे, " हम रोकेंगे इस आन्धी को "
कब तक ओट शिखण्डी वाली कारण बने पराजय का
कब तक बूझ नहीं पायेंगे हम शकुनि का आशय क्या ?
कितनी बार गिनेंगे गिनती, शिशुपाली अपराधों की
कितनी बार५ एड़ियाँ अपनी लक्ष्य बनेंगी व्याधों की
कितनी बार परीक्षा आखिर लाक्षागॄह में देनी है
कब तक थोथे शान्ति-पर्व की हमें दुहाई देनी है
कब तक नगर जलेगा ? शासक वंशी में सुर फूँकेंगे
कब तक शुतुर्मुर्ग से हम छाये खतरों से जूझेंगे
कब तक ज़ाफ़र, जयचन्न्दों को हम माला पहनायेंगे
कब तक अफ़ज़ल को माफ़ी दे, हम जन गण मन गायेंगे
सोमनाथ के नेत्र कभी खुल पाये अपने आप कहो
उठो पार्थ गाण्डीव सम्भालो, और न कायर बने रहो
जो चुनौतियाँ न स्वीकारे, कायर वह कहलाता है
और नहीं इतिहास नाम के आगे दीप जलाता है
Friday, November 28, 2008
Wednesday, November 26, 2008
आप जो चल दिये हैं इधर की डगर
आप जो चल दिये हैं इधर की डगर
ओस में डूब कर फूल की पांखुरी भोर की इक किरन को लगी चूमने
गंध की तितलिया साथ लेकर हवा लग गई क्यारियो की डगर घूमने
बात इतनी हुई आपके नाम को छू के पत्ता कोई था इधर आ गया
आप हैं चल दिये इस तरफ़ को लगा, इसलिये बाग सारा लगा झूमने
ओस में डूब कर फूल की पांखुरी भोर की इक किरन को लगी चूमने
गंध की तितलिया साथ लेकर हवा लग गई क्यारियो की डगर घूमने
बात इतनी हुई आपके नाम को छू के पत्ता कोई था इधर आ गया
आप हैं चल दिये इस तरफ़ को लगा, इसलिये बाग सारा लगा झूमने
Saturday, November 22, 2008
चाँदनी और भी जगमगाने लगी
और उजरी जरा चांदनी हो गयी
चन्द्रमा से सुधायें बासने लगीं
ओस घुलने लगी जैसे निशिगंध में
भोर प्राची को दुल्हन बनाने लगी
यज्ञ की लौ मिली मंत्र की गूँज से
नैन में स्वप्न नूतन बनाती हुई
हाथ में फूल ले आ दिशायें खड़ीं
प्रीत की बांसुरी को बजाती हुई
वॄक्ष ने शाख अपनी हिला कर दिये
ढेर आशीष चिरकाल अनुराग के
द्वार मंगल बधाई बजाने लगे
गीत दहलीज गाने लगी फ़ाग के
होंठ से अपने शहनाईयों को लगा
मलयजें नाचती मुस्कुराने लगीं
सप्त नद नीर से, सप्त अभिषेक कर
सप्त पद के वचन फिर संजीवित हुए
और संकल्प नूतन लिये साथ में
ज़िन्दगी के नये पंथ दीपित हुए
एक पग से मिला दूसारा जो कदम
दूरियां राह की सब सिमटने लगीं
और परछाईयाँ जो रहीं राह में
आप ही आप हो दूर हटने लगीं
आरती का लिये थाल, आ मंज़िलें
शीश पर रक्त-टीका लगाने लगीं
प्रेम के पत्र लिखने लगी है नये
गंध उमड़ी हुई फूल के गाल पर
फिर दहकने लगा चिन्ह जो था बना
एक दिन मेरी सुधियों के रूमाल पर
जो उमा ने कहा गुनगुनाते हुए
जो रमा ने निकल सिन्धु से था कहा
शब्द वह आज आकर नये अर्थ में
मानसी मेरी अँगनाईयों में बहा
हाथ में आगतों की सजा मेंहदियाँ
कल्पना आज फिर से लजाने लगी
चन्द्रमा से सुधायें बासने लगीं
ओस घुलने लगी जैसे निशिगंध में
भोर प्राची को दुल्हन बनाने लगी
यज्ञ की लौ मिली मंत्र की गूँज से
नैन में स्वप्न नूतन बनाती हुई
हाथ में फूल ले आ दिशायें खड़ीं
प्रीत की बांसुरी को बजाती हुई
वॄक्ष ने शाख अपनी हिला कर दिये
ढेर आशीष चिरकाल अनुराग के
द्वार मंगल बधाई बजाने लगे
गीत दहलीज गाने लगी फ़ाग के
होंठ से अपने शहनाईयों को लगा
मलयजें नाचती मुस्कुराने लगीं
सप्त नद नीर से, सप्त अभिषेक कर
सप्त पद के वचन फिर संजीवित हुए
और संकल्प नूतन लिये साथ में
ज़िन्दगी के नये पंथ दीपित हुए
एक पग से मिला दूसारा जो कदम
दूरियां राह की सब सिमटने लगीं
और परछाईयाँ जो रहीं राह में
आप ही आप हो दूर हटने लगीं
आरती का लिये थाल, आ मंज़िलें
शीश पर रक्त-टीका लगाने लगीं
प्रेम के पत्र लिखने लगी है नये
गंध उमड़ी हुई फूल के गाल पर
फिर दहकने लगा चिन्ह जो था बना
एक दिन मेरी सुधियों के रूमाल पर
जो उमा ने कहा गुनगुनाते हुए
जो रमा ने निकल सिन्धु से था कहा
शब्द वह आज आकर नये अर्थ में
मानसी मेरी अँगनाईयों में बहा
हाथ में आगतों की सजा मेंहदियाँ
कल्पना आज फिर से लजाने लगी
Wednesday, November 12, 2008
मैं तुमको वन्दन करता हूँ
गीत गज़ल के ओ संशोधक
तथाकथित ओ गुणी समीक्षक
मैं आंसू पीड़ा लिखता हूँ, तुम कहते क्रन्दन करता हूँ
पार समझ का नहीं तुम्हारी, मैं तुमको वन्दन करता हूँ
तुमने कभी पुस्तकों के पन्नों के अन्दर जाकर झांका
सिवा एक अपनी छवि के क्या, तुमने कहीं और भी ताका
कभी उठा कर गर्दन तुमने देखा अपने दांये बांये
कभी किसी सूनी कॉलर तुमने पुष्प कोई ला टांका
धोबी के घर के रखवाले
तुम बजते आड़े चौताले
आज तुम्हारा भाषा की पुस्तक से अनुबन्धन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ
तुम जो लिखो खुदा ही बांचे, कहते हो खुद को जन लेखक
जो अपने को दे न सका है एक, वही हो तुम उपदेशक
जाना नहीं लेख कविता में और कहानी में क्या अंतर
लगा रखी सीने पर चिप्पी तुमने अपने ,हो विश्लेषक
सुघड़ पुत्र बैशाख मास के
फूल मेंड़ पर उगी घास के
शीश तुम्हारे फ़ार्महाउस की मिट्टी का चन्दन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ
अपनी भाषा में चिरकिन की तुमने पूरी लाज रखी है
तुमने केवल खर दूषण की छवि आंखों में आँज रखी है
सावन के अंधे को दिखता हरा रंग ही हर इक रँग में
यह परिपाटी तुमने अपने जीवन में भी मांज रखी है
ओ दो नम्बर वाले धन्धे
गऊशाला के खोये चन्दे
आज तुम्हारा फ़टी चप्पलों से मैं गठबन्धन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ करता हूँ.
तथाकथित ओ गुणी समीक्षक
मैं आंसू पीड़ा लिखता हूँ, तुम कहते क्रन्दन करता हूँ
पार समझ का नहीं तुम्हारी, मैं तुमको वन्दन करता हूँ
तुमने कभी पुस्तकों के पन्नों के अन्दर जाकर झांका
सिवा एक अपनी छवि के क्या, तुमने कहीं और भी ताका
कभी उठा कर गर्दन तुमने देखा अपने दांये बांये
कभी किसी सूनी कॉलर तुमने पुष्प कोई ला टांका
धोबी के घर के रखवाले
तुम बजते आड़े चौताले
आज तुम्हारा भाषा की पुस्तक से अनुबन्धन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ
तुम जो लिखो खुदा ही बांचे, कहते हो खुद को जन लेखक
जो अपने को दे न सका है एक, वही हो तुम उपदेशक
जाना नहीं लेख कविता में और कहानी में क्या अंतर
लगा रखी सीने पर चिप्पी तुमने अपने ,हो विश्लेषक
सुघड़ पुत्र बैशाख मास के
फूल मेंड़ पर उगी घास के
शीश तुम्हारे फ़ार्महाउस की मिट्टी का चन्दन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ
अपनी भाषा में चिरकिन की तुमने पूरी लाज रखी है
तुमने केवल खर दूषण की छवि आंखों में आँज रखी है
सावन के अंधे को दिखता हरा रंग ही हर इक रँग में
यह परिपाटी तुमने अपने जीवन में भी मांज रखी है
ओ दो नम्बर वाले धन्धे
गऊशाला के खोये चन्दे
आज तुम्हारा फ़टी चप्पलों से मैं गठबन्धन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ करता हूँ.
Monday, November 3, 2008
कौन हो तुम ?
कौन हो तुम ?
भोर की पहली किरण की अरुणिमा हो
या छिटक कर चाँद से बिखरी हुई तुम चाँदनी हो
तुम सुरभि हो मलयजों की बाँह पकड़े खेलती सी
झील में जल की तरंगों की बजी इक रागिनी हो ?
कौन हो तुम ?
क्या वही तुम कैस ने जिसके लिये सुध बुध गंवाई
क्या तुम्हीं जिसके लिये फ़रहाद पर्वत से लड़ा था
क्या तुम्ही तपभंग विश्वामित्र का कारण बनी थीं
क्या तुम्हारे ही लिये छल इन्द्र ने इक दिन करा था ?
कौन हो तुम ?
कल्पना की वीथियों का गुनगुनाता गीत कोई
भावना की प्रेरणा का क्या तुम्ही आधार कोमल
क्या तुम्ही जिसके लिये इतिहास ने गाथा रची हैं
क्या तुम्ही हो ध्याम में जिसके गय युग बीत, हो पल ?
कौन हो तुम ?
भोर की पहली किरण की अरुणिमा हो
या छिटक कर चाँद से बिखरी हुई तुम चाँदनी हो
तुम सुरभि हो मलयजों की बाँह पकड़े खेलती सी
झील में जल की तरंगों की बजी इक रागिनी हो ?
कौन हो तुम ?
क्या वही तुम कैस ने जिसके लिये सुध बुध गंवाई
क्या तुम्हीं जिसके लिये फ़रहाद पर्वत से लड़ा था
क्या तुम्ही तपभंग विश्वामित्र का कारण बनी थीं
क्या तुम्हारे ही लिये छल इन्द्र ने इक दिन करा था ?
कौन हो तुम ?
कल्पना की वीथियों का गुनगुनाता गीत कोई
भावना की प्रेरणा का क्या तुम्ही आधार कोमल
क्या तुम्ही जिसके लिये इतिहास ने गाथा रची हैं
क्या तुम्ही हो ध्याम में जिसके गय युग बीत, हो पल ?
कौन हो तुम ?
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