Monday, October 27, 2008

दीपावली २००८


दीपावली २००८

चाहता तो हूँ लिखूँ हर ओर बिखरा धान्यधन है
चाहता तो हूँ लिखूँ उल्लास भी उमड़ा सघन है
चाहता लिख दूँ हज़ारों रंग सपनों में भरे हैं
चाहता लिख दूँ मगन प्रमुदित सभी का आज मन है

किन्तु मेरी लेखनी विद्रोह करती कह रही है
किसलिये तू सत्य को बिसरा, स्वयं छलता रहेगा

वर्त्तिका पर छा रहे हैं इन दिनों गहरे कुहासे
स्वप्न आंखों में सँवरते हैं, मगर होकर धुंआसे
घिर अनिश्चय के घनेरे जाल में हैं छटपटाते
शब्द आते होंठ पर लेकिन सभी होकर रुंआसे

किन्तु है विश्वास फिर भी इन अंधेरी वीथियों में
दीप इस दीपावली पर जगमगा जलता रहेगा

कामना के शब्द लगते खोखले हैं आज सारे
हैं खड़े निस्तब्ध आंगन, अल्पना से कट तिवारे
खील अक्षत हो गये रह कर बताशों से अपैरिचित
शोर करते बज रहे शंकाओं के दुन्दुभि नगाड़े

हर अंधेरी रात का अवसान कर देता सवेरा
है अमिट विश्वास मन में और यह पलता रहेगा

डर रही हैं उंगलियां भी फूल की पांखुर उठाते
लड़खड़ाते शब्द सारे आरती के गीत गाते
देख कर ॠण के तकाजे दीप मुंह ढाँपे खड़े हैं
हैं लरजते होंठ पढ़ते मंत्र लेकिन थरथराते

आस की डोरी पकड़ कर बस किरण इक कह रही है
है लगा छँटने अँधेरा और यह ढलता रहेगा

Thursday, October 16, 2008

कविता वह किन्तु न होती है

जब मन की बात उजागर कुछ
करने का मन हो जाता हो
लेकिन शब्दों की गलियों में
हर अर्थ भटक रह जाता हो
जब अपनी बात बताने को
भूमिका बनानी पड़ती है
दो पंक्ति सुनाने से पहले
सौ पंक्ति बतानी पड़ती है
तब होठों पर आकर वाणी
जैसे भी प्रस्फ़ुट होती है
तुम चाहे जो भी नाम रखो
कविता वह किन्तु न होती है
जब बिम्बों की परिभाषा से
जुड़ सकें न परिचय के धागे
व्याकरण, वाक्य के द्वारे पर
अपनी पहचानों को माँगे
जब भावों के उद्यानों से
कट जाते पंथ बहारों के
जब मन के उजियारे, बन्दी
हो जाते हैं अंधियारों के
तब किसी लेखनी से झरती
बून्दें जो पॄष्ठ भिगोती हैं
तुम नाम भले कुछ भी दे दो
कविता वह किन्तु न होती है
जब गज़ल गीतिका, नज़्में बस
नामों में सीमित रह जातीं
जब मुक्तक और रूबाई की
पहचान तलक भी खो जाती
जब सिर्फ़ सुनाने की खातिर
संयोजित शब्द किये जाते
जब परछाईं के सायों को
चित्रों के नाम दिये जाते
जब अर्थहीन बातों पर खुद
अनगिन शंकायें होती हैं
तुम नाम भले कुछ भी दे दो
कविता वह किन्तु न होती है