Thursday, March 27, 2008

कविता पढ़ने की कीमत

एक समाचार पढ़ा ( अंश नीचे लिखे हैं ) और उस समाचार ने सीधे साधे शब्दों को विद्रोह करने पर उतारू कर दिया. मचलते हुए शब्द पंक्ति बना कर आपके समक्ष आ गये हैं--

"April 11 Kavi Sammelan. This is clearly mentioned that only those people will get opportunity to present their poetic work who are registered and paid the fees. "

अभी नैट पर खबर पढ़ी यह, नया चलन लो शुरू हुआ है
कवियों को कविता पढ़ने की अब से फ़ीस चुकानी होगी

दोहों के दो, तीन हायकु, चौपाई के चार लगेंगे
आठ नज़म के, दस मुक्तक के और गज़ल के पन्द्रह डालर
और गीत की फ़ीस बीस से लेश मात्र भी कम न होगी
दुगनी कीमत देनी होगी अगर सुनाना चाहें गाकर

और किसी का केवल एक सुना देना नादानी होगी
कवियों को कविता पढ़ने की अब से फ़ीस चुकानी होगी

सौ डालर अर्नेस्ट मनी के बिना न छू पायेंगे माईक
बिना छंद की रचनाओं का जुर्माना है अस्सी प्रतिशत
और अगर यह बिना कथ्य के, बिना तथ्य के थोथी निकली
तो जितनी अर्नेस्ट जमा है वो सारी हो लेगी गारत

काली सूची में होने की जहमत और उठानी होगी
कविता पढ़ने की कवियों को कीमत बहुत चुकानी होगी

ताली अगर आप चाहें तो दें अतिरिक्त बहत्तर डालर
वाह वाह की बहुत खूब की कीमत मात्र चुनी है नव्वे
वन्स मोर की और मुकर्रर की आवाज़ें सुनना चाहें
तो कीमत के साथ लाईये काजू की कतली के डब्बे

नया चलन है इसकी चर्चा आगे बहुत बढ़ानी होगी
कवियों को कविता पढ़ने की कीमत यहाँ चुकानी होगी



Wednesday, March 26, 2008

मौसम का बदलाव

कैलेन्डर कहता बसन्त है, किन्तु न ज़िद्दी मौसम माने
भोर हाथ में अब भी पहने हुए माघ के ही दस्ताने
खिड़की के पल्लों पर बैठी, दोपहरी की धूप अनमनी
और सांझ की सारंगी पर नहीं गूँजते प्रेम तराने

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यह मौसम का बदलाव सुनहरी यादों को देता निखार
रंगीन रात अंगड़ाई ले, यूँ लगे लुटाती मादकता
वह धीमी सी दस्तक कोई आती वंशी के स्वर जैसी
उसका स्वर मेरे अंतर में भर रहा बेकसी आकुलता

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फ़ागुन की रंगीनी ओढ़े, चैती की धूप गुनगुनी सी
भुजपाशों में भरती है तन कुछ और कसमसा जाता है
नव-दुल्हन सा घूँघट ओढ़े, संध्या आकर अँगनाई मे
गाती है उस पल हर सपना शिल्पित होकर आ जाता है

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Monday, March 24, 2008

अब होली की उमंग थी या तरंग

रूप वर्णन --दूसरा पहलू.

अब होली की उमंग थी या तरंग. पता नहीं कैसे एक परछाईं सी बनी कल्पना आ गई और हाथ में कलम देकर लिखवा गई. जो कुछ उस कल्पना ने कहा, बिना किसी तोड़ मोड़ के प्रस्तुत है

कलाकार हे, शिल्पकार हे, नमन करो स्वीकार हमारा

बाद रामलीला के उखड़े पड़े हुए ढेरे में तम्बू
ले खराब इंजन को पथ में खड़े हुए टूटे बुलडोजर
तुम अमोनिया वाली खादों के इक फ़टे हुए बोरे से
जमा गैस के लिये किया जो गया कुंड में, तुम वो गोबर

तुम अनंग के उबटन के अवशेषों की कोई प्रतिमा हो
नमन करो स्वीकार हमारा

यज्ञकुंड में बाद हवन के बचे हुए कोयले के चूरे
जमे पतीली के पैंदे में जल जल कर, तुम हो वो छोले
पड़ी हजारों बार शीष पर, घिसी हुई चप्पल के तलवे
और तुम्ही हो चुल्लू भर पानी में भीग बुझे जो शोले

तुम कीचड़ से भरे कुंड में खड़ी भैंस का इक सपना हो
नमन करो स्वीकार हमारा

तुम ड्राउअर के लिन्ट त्रैप में जमा हुई दस दिन की पूँजी
बदला गया तेल के संग जो, गाड़ी के इंजन का फ़िल्टर
अरे मदन-सुत ! शब्द नहीं हैं करूँ रूप का कैसे वर्णन
जो पथ की कर रहा मरम्मत, बिट्यूमैन का तुम्ही बायलर

तुम हो अतुल तुम्ही अपरिम हो,ऐसी सॄष्टा की रचना हो
नमन करो स्वीकार हमारा

Tuesday, March 18, 2008

आज सौंवी पोस्ट है यह

आज सौंवी पोस्ट है यह

पर नया कुछ भी नहीं जो ये लगे मुझको हुआ है
या किसी नव भाव ने आ छंद गीतों का छुआ है
न बंधा सपना नया कोई सपन की डोर से ही
न किरन कोई नई आई निकल कर भोर से ही
और न बोली नदी ही ताल से आ साथ में बह
आज सौंवी पोस्ट है यह

शब्द वोही, है कलम वह, और वो ही भाव मेरे
ज्योति के पल भी वही,हैं बस वही छाये अंधेरे
न कोई परिचय बदल पाया, न बदला है अपरिचय
और वो ही संशयों की धुन्ध में लिपटा हुआ भय
साथ केवल पल जिन्हें अपना कहूँ हैं चार या छह
आज सौंवी पोस्ट है यह

क्या करूँ मैं, सोचता हूँ नाम को अपने बदल लूँ
रंग कलियों में भरूँ या पत्थरों के रुख मसल दूँ
या न कुछ भी मैं करूँ, हो मौन फिर से बैठ जाऊँ
या कहें जो आप अपना गीत अगला गुनगुनाऊँ
आज शायद लेखनी का जो पला भ्रम जायेगा ढह
आज सौंवी पोस्ट है यह

Sunday, March 9, 2008

ज्योति अंगड़ाई में टूटती रह गई

जिस डगर पर चले थे कदम सोचकर
मंज़िलों की दिशा उनको बतलायेगी
हो गई है दिशाहीन खुद वो डगर
एक ही चक्र में घूमती रह गई

थे चले अनवरत हर घड़ी के कदम
भोर में सांझ में दोपहर के तले
उग रहे सूर्य की रश्मियां थाम कर
साथ छोड़ा नहीं जब तलक वो ढले
नीड़ के हर निमंत्रण की अवहेलना
कर के पाथेय अक्सर नकारा किये
अपनी रफ़्तार को तेल करते हुए
प्रज्वलित कर रहे नित्य गति के दिये

काल ने पथ पे लेकिन लिखा और कुछ
थी निराशा जिसे चूमती रह गई

यामिनी के गगन से उतर चाँदनी
राह की धूल का करती श्रंगार थी
नभ की मंदाकिनी से उमड़ती हुई
हर लहर यूँ लगा एक उपहार थी
किन्तु परछाईयों के धुंधलके सघन
बिम्ब आकर नयन के मिटाते रहे
और कंदील की हर निगल रोशनी
बस अंधेरा उगल कसमसाते रहे

इसके पहले कि बांहों में लौ बन उठे
ज्योति अंगड़ाई में टूटती रह गई

हर कदम के परस से रही राह में
फूटती कोंपलें दुधमुंही आस की
चाह की ले संवरती हुई पांखुरी
शायिका बन सकें एक मधुमास की
किन्तु विषधर बना पतझड़ों का कहर
स्वप्न के हर सुमन को निगलता रहा
और ऐसे ही दिन जो उगा भोर में
सांझ की गोद में नित्य ढलता रहा

नैन में ले अधूरे से इक प्रश्न को
सांस हर द्वार कुछ पूछती रह गई

Wednesday, March 5, 2008

गीत कोई सुरों में सँवरता नहीं

रात की छत पे आकर ठहरता तो है, चाँदनी से मगर बात करता नहीं
जाने क्या हो गया चाँद को इन दिनों, पांखुरी की गली में उतरता नहीं
ये जो मौसम है, शायद शिथिल कर रहा, भावना,भाव,अनुभूतियाँ, कल्पना
शब्द आकर मचलते नहीं होंठ पर, गीत कोई सुरों में सँवरता नहीं
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कल्पना के अधूरे पड़े पॄष्ठ पर, नाम किसका लिखूँ सोचता रह गया
एक बादल अषाढ़ी उमड़ता हुआ, और एकाकियत घोलता बह गया
घाटियों में नदी के किसी मोड़ पर, राह भटकी हुई एक मुट्ठी हवा
साथ दे न सकी एक पल के लिये, पंख, पाखी ह्रदय तोलता रह गया
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एक कोरा रहा सामने

रंग सिमटे रहे तूलिका में सभी, कैनवस एक कोरा रहा सामने
जुड़ सका कोई परिचय की डोरी नहीं, नाम जो भी दिया याद के गांव ने
भावनाओं की भागीरथी में लहर,अब उठाते हैं झोंके हवा के नहीं
लड़खड़ाते हुए भाव गिरते रहे, शब्द आगे बढ़े न उन्हें थामने
इसलिये गीत शिल्पों में ढल न सका, छैनियां हाथ में टूट कर रह गईं
और सीने की गहराई में भावना, अपनी परछाईं से रूठ कर रह गई
गुनगुनाती हुए कल्पना थक गई, साज कोई नहीं साथ देने बढ़ा
और पलते हुए भ्रम की गगरी सभी, एक पल में गिरीं, टूट कर बह गईं