Friday, February 29, 2008

लगा हूँ पलक मींचने

अतीत के झरोखों से

एक अनुभूति है जिसको चीन्हा नहीं
पर लगा हूँ उसे बाँह में भींचने

मेरे अहसास के दायरे में कहीं
हैं छुपे आप आते नहीं सामने
ढूँढते ढूँढते हैं निगाहें थकीं
पर बताया नहीं कुछ पता गाँव ने
एक आभास जैसे चली हो हवा
एक खुशबू कि जिसने मुझे है छुआ
एक सपना खडा नींद की कोर पर
एक मुट्ठी भरी धूप लाई उषा

रंग पानी से लेकर क्षितिज पर कहीं
रूप के चित्र फिर से लगा खींचने

कल्पना की सुराही से छलकी हुई
पी रहा हूँ मधुर ज्योत्सना की सुधा
चेतना का मेरी हर निमिष, आपके
ध्यान के सिन्धु में प्राण! डूबा हुआ
फूल की पाँखुरी में रही खोजती
चित्र बस आपके चांदनी की किरन
हर दिशा को रही खटखटा कामना
आरजुओं की कर प्रज्वलित इक अगन

फिर मिलन की उगें बेल कुछ, द्वार पर
दे के सौगन्ध उनको लगा सींचने

भोर की वीथियों में उगे ओस कण
आपके पाँव की हैं महावर बने
मोतियों सी सुघर एक पदचाप से
छन्द नूतन कई सरगमों के बने
आपके कुन्तलों से उठी इक घटा
नभ में बरखा के छींटे उडाने लगी
ओढनी के किनारे से पुरबा चली
वादियों में गज़ल गुनगुनाने लगी

आपका रूप आँखों से हो न विलग
दोपहर से लगा हूँ पलक मींचने


Wednesday, February 27, 2008

शब्द छिन गये

आज समय ने चलते चलते कुछ ऐसे करवट बदली है
खेल रहे थे जो अधरों पर मेरे, सारे शब्द छिन गये

इन्द्र धनुष पर बैठ खींचता रहता है जो नित तस्वीरें
बुनता वह रेशम के धागे, वही बांध देता जंज़ीरें
अपने इंगित से करता है संयम काल चक्र की गति को
कभी रंग भरता निर्जन में, कभी मिटाता खिंची लकीरें

साहूकार! लिये बैठा है खुली बही की पुस्तक अपनी
और सभी बारी बारी से उसे चुकाते हुए रिन गये

कब कहार निर्धारित करता कितनी दूर चले ले डोली
कब देहरी या आंगन रँगते खुद ही द्वारे पर रांगोली
कठपुतली की हर थिरकन का होता कोई और नियंत्रक
कब याचक को पता रहेगी रिक्त, या भरे उसकी झोली

जो बटोर लेता था अक्सर तिनके खंडित अभिलाषा के
वही धैर्य अब प्रश्न पूछता रहता मुझसे हर पल छिन है


यों लगता है चित्रकथायें आज हुई सारी संजीवित
अंधियारों ने बिखर बिखर कर, सारे पंथ किये हैं दीपित
कलतक जो विस्तार कल्पना का नभ के भी पार हुआ था
कटु यथार्थ से मिला आज तो, हुआ एक मुट्ठी में सीमित

कल तक जो असंख्य पल अपने थ सागर तट की सिकता से
बँधे हाथ में आज नियति के, एक एक कर सभी गिन गये

Wednesday, February 13, 2008

एक पागल बदरिया बरसती रही

कलेंडर बता रहा है कि कहीं बसन्त के दिन हैं. खिड़की से बाहर झांकने पर सब कुछ सुरमई दिखता है और दरवाज़ा खोलते ही बर्फ़ीली रजाइयां लपेटे हुए हवा सीधी अन्दर तक तीर की तरह चीरती चली जाती है. अब इसे बसन्त कहें, या फ़ागुन की अगवानी . जाते हुए माघ्का प्रकोप या आने वाले सुखद दिनों की कल्पना की गरमाहट. असमंजस, उथल पुथल और अनिश्चय के क्षण कलम को भी भटका देते हैं. ऐसे ही भटकते भटकते राह में मिलते हुए शब्दों को पकड़ पकड़ कर एक लाइन में बिठा कर आपके सामने.


न था सावन, न भादों न आषाढ़ ही
एक बदली नयन से बरसती रही

भोर की गुनगुनी धूप में घुल गये
स्वप्न आंखों के सब उड़ गये इत्र से
दर्द सीने से मुझको लगाये रहे
एक बचपन के बिछुड़े हुए मित्र से
पर कटा, बन कबूतर गई कल्पना
छटपटाती रही एक परवाज़ को
उंगलियां थक गईं छेड़ते छेड़ते
तार से रूठ बैठे हुए साज को

एक गमले की सीमाओं में मंजरी
शाख से टूट कर नित्य झरती रही

शंख की गूँज से जाग पाया नहीं
भाग्य सोया हुआ, जाने कब का थका
आरती की खनकती हुई घंटियों
का विफ़ल स्वर, स्वयं साथ में सो गया
कोष आशीष के काम आये नहीं
अर्चना की बिखर रह गईं थालियाँ
रात थी दूर से मुँह चिढ़ाती रही
दिन उड़ाता रहा रोज ही खिल्लियाँ

वक्त की मेज पर एक गुलदान में
पंखुड़ी फूल की थी सुबकती रही

खटखटाते हुए थी हथेली छिली
द्वार प्राची ने खोला नहीं तम घटे
कोई आई इधर को नहीं चल किरण
जिससे छाया हुआ ये कुहासा छँटे
नाव टूटी लिये चल दिये सिन्धु में
बाँध संतोष, पी घूँट भर चाँदनी
स्वप्न लेकिन तरल, सोख कर ले गईं
आ उमड़ती हुई इक घटा सावनी

भग्न इतिहास की एक प्रतिमा, मेरे
आज को प्रश्न का चिन्ह करती रही

Tuesday, February 5, 2008

लुढ़का हुआ हाशिये पर

ऐसा अक्सर होता है कि लिखने के लिये किसी बहाने की जरूरत होती है. कई बार तो यह बहाना ईज़ाद भी किया जाता है. परन्तु कभी कभी ऐसा भी होता है कि लिखने के लिये जिन चीजों की आवश्यकता होती है उनमें से किसी एक के भी पास न होने पर एकाएक विराम सा लग जाता है. लगभग ऐसी ही समस्या पिछले कुछ दिनों रही जब साथ के लेखक जिनका लेखन प्रेरणादायक होता था ऐसे नदारद हो गये जैसे भोर के आते ही अंधेरे का झुटपुटा. लेकिन अभी अभी कोहरे को चीरती हुई किरन जैसे अवतरित हुए हमारे मित्र की रचना पढ़ कर कलम सहसा स्वयं ही मचल उठी यह लिखने को:-

शब्द, शिल्प, अनुभूति और है कौशल भी
लेकिन कोई गीत नहीं बन पाता है

होठों पर आते आते अक्षर बेसुध
उंगली अपनी छुड़ा शब्द से बिखर रहे
पंक्ति बुलाती रही पास रह रह उनको
अपनी ज़िद पर अड़े हुए, हो तितर रहे
खो बैठे पहचान अकेले रह रह कर
कोई अर्थ नहीं छू पाया तन मन को
एकाकीपन के अजगर की कुंडलियां
रही निगलती उदासीन सी सरगम को

लुढ़का हुआ हाशिये पर जो, दीवना
बार बार मुझको आवाज़ लगाता है

जाने कितनी बार फ़िसल कर चेह्रे से
गिरती है, फिर रह रह उठती एक नजर
जैसे प्रश्नचिन्ह संबोधन बनने की
कोशिश में करता है सीधी झुकी कमर
उत्तर लेकिन उठते हुए सवालों के
एक बार फिर दूर नजर से रहते हैं
और चक्र ये उठते गिरते रहने के
फिर से द्रुतगति होकर बहने लगते हैं

कुछ तलाश है, ये होता महसूस मगर
क्या तलाश है ? समझ नहीं आ पाता है

चाह रहा था मैं मेघों के उच्छवासों
को रंगीन बना कर फ़ागुन बरसा दूँ
बाहों में सतरंग लपेटे वनफूलों को
कर छंद, द्वार पर लाकर बिखरा दूँ
आंखों में बो दूँ मैं सरगम खुश्बू की
भर दूँ ला सांसों में गंधों की छाया
रंगूँ तूलिका सिन्दूरी अहसासों से
कर दूँ पूनम सा हर रजनी का साया

किन्तु तुम्हारे बिना, चना मैं एकाकी
और भाड़ फिर से साबुत रह जाता है