Wednesday, December 31, 2008

मंगलमय हों भोर निशा सब

शुभ हो नये वर्ष में हर दिन, रातें बीतें हुई रुपहली
रहे चाँदनी रात, न छाये चन्दा पर कोई भी बदली
सपने ढलें एक प्रतिमा में, चाहों को उत्कर्ष मिल सके
सावन छेड़े नित मृदंग औ फ़ागुन पंथ बजाये ढपली

Thursday, December 25, 2008

समीर भाई-- हार्दिक बधाई

आज का दिन चिट्ठा जगत के लाड़ले समीर लाल ( उड़नतश्तरी ) के लिये ऐतिहासिक है. आज उनका सपना पूरा हो रहा है. उनके सुपुत्र का प्रणय बन्धन आज शाम हो रहा है. इस अवसर पर उन्हें हार्दिक बधाई

पुष्प सुगन्धित मलय समीरं महकाये घर द्वारा
प्रगति और अनुपम हो मंगल, पावन प्रणय तुम्हारा

लगा गूँजने पुण्य साधना के मंत्रों का मृदु स्वर
सुषमा करे कन्हैया की पथ को प्रशस्त मह मह कर
शिखा दीप की ललक ललक कर, फिर फिर शगुन बताये
महिमा आज तुम्हारी राहों को आकर महकाये

शहनाई का उठा गूँजकर स्वर ये आज पुकारा
प्रगति पंथ पर रहे अग्रसर, अनुपम प्रणय तुम्हारा

मधुपूरित सपने सुशील मन, अनुभव नया बातायें
नभ पर आ राजेन्द्र मुदित मन सुरभित सुमन लुटायें
लिये सुनीति, विभा बिखराते हैं राकेश गगन पर
महामहिम के स्वप्न हो रहे शिल्पित आज निरन्तर

वीणा के सितार के संग में गाता है इकतारा
पावन मंगलमय हो अनुपम, परिणय प्रगति तुम्हारा

जो समवेत उठे स्वर वह हो गीता जैसा पावन
मुट्ठी में सिमटे आकर के मल्हारें ले सावन
सहराही जीवन के सारे सपने शिल्पित कर दे
और ईश तुमको बिन मांगे, वांछित हर इक वर दे

दिशा दिशा से दिक्पालों ने आज यही उच्चारा
प्रगति और अनुपम मंगल हो पावन प्रणय तुम्हारा

Friday, December 19, 2008

तुम कैसे बिक जाओगे

नहीं कभी पनिहारिन ने गागर बेची
नहीं कभी बादल ने सागर बेचे हैं
राधा ने तो मोहन बेचा नहीं कभी
तुम कैसे बिक जाओगे ओ जीवन धन

तुम आधार हुए मेरे विश्वासों का
तुमने मंत्र दिये मेरे संकल्पों को
तुमने निष्ठाओं को नव आयाम दिया
तुमने अर्थ नये दे दिये विकल्पों को

छितरा दूंगा घिरा कुहासा पल भर में
नई ज्योति बो दूंगा रीते अम्बर में
तारों को फिर पंक्तिबद्ध हो चलने को
दिखला दूंगा एक तुम्हारा अनुशासन

तुम हो अभिलाषा का खिलता एक सुमन
तुम ही तो पीढ़ी का सपना हो प्रतिपल
तुमको नींव बनायेगा कल का आगत
तुम हो बिखरी हुई आस्था का संबल

कंटक वन ही घिरे सामने दिखते हों
लगता भी हो चाहे सपने बिकते हों
लेकिन विस्मृत कभी न हो यह सत्य तुम्हें
घिरे सर्प से ही रहते हैं चन्दन वन

बिकी धरोहर कभी नहीं संस्कृतियों की
कब बिकता निश्चय जो ठना हुआ मन में
बिकती नहीं विरासत जीवन जो पाता
और न बिकता भाव, बाँधता बन्धन में

रहे बेचते यों गलियों में सौदागर
हम जो बेचेंगे खरीद खुद ही लेंगे
चूड़ी,काजल कुमुकुम मेंहदी महावर सब
सुरभित करते रहे सदा ही तो मधुवन

मेरा विद्रोही मन भी कब स्वीकारा
कटी आस्था टूटी मर्यादा ओढूँ
मैं झरने सा जिधर हुआ मन बढ़ जाता
कभी न ऐसा लगा हठी सम्बल छोड़ूँ

आन्धी बरसातों में यह मन डिगा नहीं
तूफ़ानों में मेरा निश्चय झुका नहीं
तब ही प्यार उमड़ता करता जाता है
मेघ परी का नियमित पावन आराधन

Wednesday, December 17, 2008

हम भी बिक जायेंगे

हम भी बिक जायेंगे


बेच रही पनिहारी गागर
लगता बादल बेचे सागर
कुछ ऐसा लगता है अब तो
राधा बेचे नटवर नागर
सिंहासन पर हर नगरी में
बैठे कंस नजर आयेंगे
आज बिक रहा जाने क्या क्या,
लगता कल हम बिक जायेंगे

नन्द गांव की नांदों में जब छल प्रपंच ही गया बिलोया
बरसाने में बारिश न कर उमड़ आँख में सावन रोया
गोकुल के गलियारे सारे हुए पूतना की जागीरें
दूध दही का सपना भी अब किसी सिन्धु में जाकर खोया

हुई होंठ की स्मित भी चोरी, टूटी हुई आस की डोरी
आगे बढ़ते हुए पांव जब बैसाखी पर टिक जायेंगे
हम भी बिक जायेंगे

वॄन्दावन के कुंजों में अब वॄन्द नहीं व्यापार उग रहा
आदर्शों के हर मोती को व्यभिचारी हो हंस चुग रहा
होता जब अभिषेक तिमिर का तब ही दीप करें दीवाली
सूरज की अगवानी होती, गया बीतता एक युग रहा

बुझी हुई हैं सभी मशालें और हाथ में केवल ढालें
खिड़की द्वारे तहखानों पर अब जब डाले चिक जायेंगे
हम भी बिक जायेंगे

दग्ध द्वारका कालयवन के अतिक्रमणों से होती रह रह
प्रद्द्युम्नी संकल्प सँवरते हैं पर दूजे पल जाते ढह
और रगों में अनिरुद्धों की होता नहीं प्रवाहित शोणित
हर आतंक और शोषण को होकर मौन सहज जाते सह

नहीं देखता कोई दर्पण, कर देता है सिर्फ़ समर्पण
निश्चित है भविष्य के पन्ने, सबको कह कर धिक जायेंगे
हम भी बिक जायेंगे

Tuesday, December 9, 2008

दोपहर से लगा हूँ पलक मींचने

एक अनुभूति है जिसको चीन्हा नहीं
पर लगा हूँ उसे बाँह में भींचने

मेरे अहसास के दायरे में कहीं
हैं छुपे आप आते नहीं सामने
ढूँढते ढूँढते हैं निगाहें थकीं
पर बताया नहीं कुछ पता गाँव ने
एक आभास जैसे चली हो हवा
एक खुशबू कि जिसने मुझे है छुआ
एक सपना खडा नींद की कोर पर
एक मुट्ठी भरी धूप लाई उषा

रंग पानी से लेकर क्षितिज पर कहीं
रूप के चित्र फिर से लगा खींचने

कल्पना की सुराही से छलकी हुई
पी रहा हूँ मधुर ज्योत्सना की सुधा
चेतना का मेरी हर निमिष, आपके
ध्यान के सिन्धु में प्राण! डूबा हुआ
फूल की पाँखुरी में रही खोजती
चित्र बस आपके चांदनी की किरन
हर दिशा को रही खटखटा कामना
आरजुओं की कर प्रज्वलित इक अगन

फिर मिलन की उगें बेल कुछ, द्वार पर
दे के सौगन्ध उनको लगा सींचने

भोर की वीथियों में उगे ओस कण
आपके पाँव की हैं महावर बने
मोतियों सी सुघर एक पदचाप से
छन्द नूतन कई सरगमों के बने
आपके कुन्तलों से उठी इक घटा
नभ में बरखा के छींटे उडाने लगी
ओढनी के किनारे से पुरबा चली
वादियों में गज़ल गुनगुनाने लगी

आपका रूप आँखों से हो न विलग
दोपहर से लगा हूँ पलक मींचने

Friday, November 28, 2008

उठो पार्थ गाण्डीव सम्भालो

एक बार फिर हुए धमाके, फिर से हुआ सवाली मैं
फिर तूफ़ान उठेगा शायद एक चाय की प्याली में
एक बार फिर भाषण होंगें, कुछ नारे लग जायेंगे
एक बार फिर श्वेत कबूतर गगन उड़ाये जायेंगे
एक बार फिर दोहराया जायेगा, गौतम गान्धी को
शब्द उछाले जायेंगे, " हम रोकेंगे इस आन्धी को "
कब तक ओट शिखण्डी वाली कारण बने पराजय का
कब तक बूझ नहीं पायेंगे हम शकुनि का आशय क्या ?
कितनी बार गिनेंगे गिनती, शिशुपाली अपराधों की
कितनी बार५ एड़ियाँ अपनी लक्ष्य बनेंगी व्याधों की
कितनी बार परीक्षा आखिर लाक्षागॄह में देनी है
कब तक थोथे शान्ति-पर्व की हमें दुहाई देनी है
कब तक नगर जलेगा ? शासक वंशी में सुर फूँकेंगे
कब तक शुतुर्मुर्ग से हम छाये खतरों से जूझेंगे
कब तक ज़ाफ़र, जयचन्न्दों को हम माला पहनायेंगे
कब तक अफ़ज़ल को माफ़ी दे, हम जन गण मन गायेंगे
सोमनाथ के नेत्र कभी खुल पाये अपने आप कहो
उठो पार्थ गाण्डीव सम्भालो, और न कायर बने रहो
जो चुनौतियाँ न स्वीकारे, कायर वह कहलाता है
और नहीं इतिहास नाम के आगे दीप जलाता है

Wednesday, November 26, 2008

आप जो चल दिये हैं इधर की डगर

आप जो चल दिये हैं इधर की डगर

ओस में डूब कर फूल की पांखुरी भोर की इक किरन को लगी चूमने
गंध की तितलिया साथ लेकर हवा लग गई क्यारियो की डगर घूमने
बात इतनी हुई आपके नाम को छू के पत्ता कोई था इधर आ गया
आप हैं चल दिये इस तरफ़ को लगा, इसलिये बाग सारा लगा झूमने

Saturday, November 22, 2008

चाँदनी और भी जगमगाने लगी

और उजरी जरा चांदनी हो गयी
चन्द्रमा से सुधायें बासने लगीं
ओस घुलने लगी जैसे निशिगंध में
भोर प्राची को दुल्हन बनाने लगी

यज्ञ की लौ मिली मंत्र की गूँज से
नैन में स्वप्न नूतन बनाती हुई
हाथ में फूल ले आ दिशायें खड़ीं
प्रीत की बांसुरी को बजाती हुई
वॄक्ष ने शाख अपनी हिला कर दिये
ढेर आशीष चिरकाल अनुराग के
द्वार मंगल बधाई बजाने लगे
गीत दहलीज गाने लगी फ़ाग के

होंठ से अपने शहनाईयों को लगा
मलयजें नाचती मुस्कुराने लगीं

सप्त नद नीर से, सप्त अभिषेक कर
सप्त पद के वचन फिर संजीवित हुए
और संकल्प नूतन लिये साथ में
ज़िन्दगी के नये पंथ दीपित हुए
एक पग से मिला दूसारा जो कदम
दूरियां राह की सब सिमटने लगीं
और परछाईयाँ जो रहीं राह में
आप ही आप हो दूर हटने लगीं

आरती का लिये थाल, आ मंज़िलें
शीश पर रक्त-टीका लगाने लगीं

प्रेम के पत्र लिखने लगी है नये
गंध उमड़ी हुई फूल के गाल पर
फिर दहकने लगा चिन्ह जो था बना
एक दिन मेरी सुधियों के रूमाल पर
जो उमा ने कहा गुनगुनाते हुए
जो रमा ने निकल सिन्धु से था कहा
शब्द वह आज आकर नये अर्थ में
मानसी मेरी अँगनाईयों में बहा

हाथ में आगतों की सजा मेंहदियाँ
कल्पना आज फिर से लजाने लगी

Wednesday, November 12, 2008

मैं तुमको वन्दन करता हूँ

गीत गज़ल के ओ संशोधक
तथाकथित ओ गुणी समीक्षक
मैं आंसू पीड़ा लिखता हूँ, तुम कहते क्रन्दन करता हूँ
पार समझ का नहीं तुम्हारी, मैं तुमको वन्दन करता हूँ

तुमने कभी पुस्तकों के पन्नों के अन्दर जाकर झांका
सिवा एक अपनी छवि के क्या, तुमने कहीं और भी ताका
कभी उठा कर गर्दन तुमने देखा अपने दांये बांये
कभी किसी सूनी कॉलर तुमने पुष्प कोई ला टांका

धोबी के घर के रखवाले
तुम बजते आड़े चौताले
आज तुम्हारा भाषा की पुस्तक से अनुबन्धन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ

तुम जो लिखो खुदा ही बांचे, कहते हो खुद को जन लेखक
जो अपने को दे न सका है एक, वही हो तुम उपदेशक
जाना नहीं लेख कविता में और कहानी में क्या अंतर
लगा रखी सीने पर चिप्पी तुमने अपने ,हो विश्लेषक

सुघड़ पुत्र बैशाख मास के
फूल मेंड़ पर उगी घास के
शीश तुम्हारे फ़ार्महाउस की मिट्टी का चन्दन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ

अपनी भाषा में चिरकिन की तुमने पूरी लाज रखी है
तुमने केवल खर दूषण की छवि आंखों में आँज रखी है
सावन के अंधे को दिखता हरा रंग ही हर इक रँग में
यह परिपाटी तुमने अपने जीवन में भी मांज रखी है

ओ दो नम्बर वाले धन्धे
गऊशाला के खोये चन्दे
आज तुम्हारा फ़टी चप्पलों से मैं गठबन्धन करता हूँ
मैं तुमको वन्दन करता हूँ करता हूँ.

Monday, November 3, 2008

कौन हो तुम ?

कौन हो तुम ?

भोर की पहली किरण की अरुणिमा हो
या छिटक कर चाँद से बिखरी हुई तुम चाँदनी हो
तुम सुरभि हो मलयजों की बाँह पकड़े खेलती सी
झील में जल की तरंगों की बजी इक रागिनी हो ?

कौन हो तुम ?

क्या वही तुम कैस ने जिसके लिये सुध बुध गंवाई
क्या तुम्हीं जिसके लिये फ़रहाद पर्वत से लड़ा था
क्या तुम्ही तपभंग विश्वामित्र का कारण बनी थीं
क्या तुम्हारे ही लिये छल इन्द्र ने इक दिन करा था ?

कौन हो तुम ?

कल्पना की वीथियों का गुनगुनाता गीत कोई
भावना की प्रेरणा का क्या तुम्ही आधार कोमल
क्या तुम्ही जिसके लिये इतिहास ने गाथा रची हैं
क्या तुम्ही हो ध्याम में जिसके गय युग बीत, हो पल ?

कौन हो तुम ?

Monday, October 27, 2008

दीपावली २००८


दीपावली २००८

चाहता तो हूँ लिखूँ हर ओर बिखरा धान्यधन है
चाहता तो हूँ लिखूँ उल्लास भी उमड़ा सघन है
चाहता लिख दूँ हज़ारों रंग सपनों में भरे हैं
चाहता लिख दूँ मगन प्रमुदित सभी का आज मन है

किन्तु मेरी लेखनी विद्रोह करती कह रही है
किसलिये तू सत्य को बिसरा, स्वयं छलता रहेगा

वर्त्तिका पर छा रहे हैं इन दिनों गहरे कुहासे
स्वप्न आंखों में सँवरते हैं, मगर होकर धुंआसे
घिर अनिश्चय के घनेरे जाल में हैं छटपटाते
शब्द आते होंठ पर लेकिन सभी होकर रुंआसे

किन्तु है विश्वास फिर भी इन अंधेरी वीथियों में
दीप इस दीपावली पर जगमगा जलता रहेगा

कामना के शब्द लगते खोखले हैं आज सारे
हैं खड़े निस्तब्ध आंगन, अल्पना से कट तिवारे
खील अक्षत हो गये रह कर बताशों से अपैरिचित
शोर करते बज रहे शंकाओं के दुन्दुभि नगाड़े

हर अंधेरी रात का अवसान कर देता सवेरा
है अमिट विश्वास मन में और यह पलता रहेगा

डर रही हैं उंगलियां भी फूल की पांखुर उठाते
लड़खड़ाते शब्द सारे आरती के गीत गाते
देख कर ॠण के तकाजे दीप मुंह ढाँपे खड़े हैं
हैं लरजते होंठ पढ़ते मंत्र लेकिन थरथराते

आस की डोरी पकड़ कर बस किरण इक कह रही है
है लगा छँटने अँधेरा और यह ढलता रहेगा

Thursday, October 16, 2008

कविता वह किन्तु न होती है

जब मन की बात उजागर कुछ
करने का मन हो जाता हो
लेकिन शब्दों की गलियों में
हर अर्थ भटक रह जाता हो
जब अपनी बात बताने को
भूमिका बनानी पड़ती है
दो पंक्ति सुनाने से पहले
सौ पंक्ति बतानी पड़ती है
तब होठों पर आकर वाणी
जैसे भी प्रस्फ़ुट होती है
तुम चाहे जो भी नाम रखो
कविता वह किन्तु न होती है
जब बिम्बों की परिभाषा से
जुड़ सकें न परिचय के धागे
व्याकरण, वाक्य के द्वारे पर
अपनी पहचानों को माँगे
जब भावों के उद्यानों से
कट जाते पंथ बहारों के
जब मन के उजियारे, बन्दी
हो जाते हैं अंधियारों के
तब किसी लेखनी से झरती
बून्दें जो पॄष्ठ भिगोती हैं
तुम नाम भले कुछ भी दे दो
कविता वह किन्तु न होती है
जब गज़ल गीतिका, नज़्में बस
नामों में सीमित रह जातीं
जब मुक्तक और रूबाई की
पहचान तलक भी खो जाती
जब सिर्फ़ सुनाने की खातिर
संयोजित शब्द किये जाते
जब परछाईं के सायों को
चित्रों के नाम दिये जाते
जब अर्थहीन बातों पर खुद
अनगिन शंकायें होती हैं
तुम नाम भले कुछ भी दे दो
कविता वह किन्तु न होती है

Monday, September 22, 2008

फिर अधूरी रही, पूर्ण हो न सकी

हो दिशाहीन पथ में भटकती रही
पांव ने जो सफ़र की डगर थी चुनी

पॄष्ठ जितने भी थे पुस्तकों के खुले
दॄष्टि के चुम्बनों से परे रह गये
चाह कर शब्द पा न सके अस्मिता
धब्बे पन्नों पे केवल जड़े रह गये
जो पिघल कर ह्रदय ने किया व्यक्त था
अर्थ पा न सका शून्य में खो गया
और अहसास की चादरों पे बिछा
वक्त का एक पल मौन हो रो गया

फिर अधूरी रही, पूर्ण हो न सकी
ज़िन्दगी ने नई जो कहानी बुनी

जो बनाये गये चित्र थे पंथ का
रंग गहरा तन्कि कोई उनका न था
इसलिये वक्त यायावरी था सदा
मंज़िलों से परे, दोष उसका न था
किन्तु स्वीकार निर्णय गलत, कर सके
चेतना को हुआ ये गवारा नहीं
और जिस मोड़ पावस ठिठक कर रुकी
आज भी है खड़ी बस वहीं की वहीं

चाहतें चाहती इक दुशाला बुनें
किन्तु अब तक जरा भी रुई न धुनी

रीते घट पनघटों से उठा ले गई
आई आषाढ़ की एक काली घटा
पंथ भागीरथी का निगल ती रही
राह में एक उलझी हुई सी जटा
सोच में जो न संभव हुआ, वह हुआ
लक्ष्य बेध्जा नहीं पार्थ के तीर ने
रेत पर था लिखा सीपियों का पता
जो मिटा रख दिया सिन्धु के नीर ने

लौट कर आई हर एक ध्वनि-प्रतिध्वनि
हर दिशा बात करती रही अनसुनी

Thursday, September 4, 2008

जी हम भी कविता करते हैं

अभी पिछले सप्ताह एक कार्यक्रम के आयोजक के पास किसी कवि का सिफ़ारिशी पत्र देखा
जिसमें उन्हें काव्य पाठ हेतु बुलाने का आग्रह किया गया था. शब्दों के पीछे छुपे हुए असली
भाव जब हम्ने पढ़े तो यह असलियत सामने आई जिसे आपके साथ बाँट रहे हैं



मान्य महोदय हमें बुलायें सम्मेलन में हम भी कवि हैं
हर महफ़िल में जकर कविता खुले कंठ गाया करते हैं

हमने हर छुटकुला उठा कर अक्सर उसकी टाँगें तोड़ीं
और सभ्य भाषा की जितनी थीं सीमायें, सारी छोड़ी
पहले तो द्विअर्थी शब्दों से हम काम चला लेते थे
बातें साफ़ किन्तु अब कहते , शर्म हया की पूँछ मरोड़ी

हमने सरगम सीखी है वैशाखनन्दनों के गायन से
बड़े गर्व से बात सभी को हम यह बतलाया करते हैं

अभियंता हम, इसीलिये शब्दों से अटकलपच्ची करते
हम वकवास छाप कर अपनी कविता कह कर एंठा करते
देह यष्टि के गिरि श्रंगों को हमने विषय वस्तु माना है
केवल उनकी चर्चा अपनी तथाकथित कविता में करते

एक बार दें माईक हमको, फिर देखें हम हटें न पीछे
शब्द हमारे होठों से पतझर के पत्तों से झरते हैं

महाकवि हम, हम दिन में दस खंड-काव्य भी लिख सकते हैं
जो करते हैं वाह, वही तो अपने मित्र हुआ करते हैं
जो न बजा पाता है ताली, वो मूरख है अज्ञानी है
उसे काव्य की समझ नहीं ये साफ़ साफ़ हम कह सकते हैं

सारे आयोजक माने हैं हम सचमुच ही लौह-कवि हैं
इसीलिये आमंत्रित हमको करने में अक्सर डरते हैं

जो सम्मेलन बिना हमारे होता, उसमें जान न होती
हमको सुनकर सब हँसते हैं, बाकी को सुन जनता रोती
हुए हमारे जो अनुगामी, वे मंचों पर पूजे जाते
हम वसूलते संयोजक से, न आने की सदा फ़िरौती

नीरज, सोम, कुँअर, भारत हों, हसुं चाहे गुलज़ार, व्यास या
ये सब एक हमारी कविता के आगे पानी भरते हैं

हम दरबारी हैं तिकड़म से सारा काम कराते अपना
मौके पड़ते ही हर इक के आगे शीश झुकाते अपना
कुत्तों से सीखा है हमने पीछे फ़िरना पूँछ हिलाते
और गधे को भी हम अक्सर बाप बना लेते हैं अपना

भाषा की बैसाखी लेकर चलते हैं हम सीना ताने
जिस थाली में खाते हैं हम, छेद उसी में ही करते हैं

जी हम भी कविता करते हैं

Monday, August 18, 2008

मैं टिप्पणियां नहीं करूंगा

हालांकि हमें संभल जाना चाहिये था . चेतावनी तो समीर भाई ने पहले ही आंशिक तौर पर दे दी थी, परन्तु हम अपनी धुन में भलमन्साहत का दामन पकड़े सोचते रह गये कि समीर जी ने बस अपनीए ही बात की है और अपनी टिप्पणियां टिकाने में आने वाली दिक्कतों का खिलासा किया है.

अब क्योंकि हमारे धीरज का घड़ा भी भर ही गया तो हमने भी यह निश्चय किया है कि



मैं टिप्पणियां नहीं करूंगा




मैं टिप्पणियां नहीं करूंगा

अब तक तो चिट्ठाकारी की परिपाटी है खूब निभाई
हर मनभावन रचना पर जा, मैने इक टिप्पणी टिकाई
लेकिन इसका अर्थ भयंकर हो सकता है ये न जाना
भर जायेगी सन्देशों से आगत बक्से की अंगनाई
अब तक तो कर लिया सहन है अब आगे से नहीं करूंगा

मैं टिप्पणियां नहीं करूंगा
कभी कभी तो टिप्पणियों के दरवाज़े पर था रखवाला
शब्द पुष्टि का अलीगढ़ी इक लगा हुआ था मोटा तला
जैसे तैसे उससे आगे नजर बचाकर पांव बढ़ाया
मुश्किल आई जब टिप्पणियां निगल शान से वो मुस्काया
अब निश्चित है उस द्वारे से मैं तो कभी नहीं गुजरूंगा

मैं टिप्पणियां नहीं करूंगा
और बाद में टिप्पणियों के बदले जो सन्देशे आये
राम दुहाई इनसे आकर अब मुझको बस खुदा बचाये
एक टिप्पणी के बदले में छह दर्ज़न सुझाव पाये हैं
आयें पढ़ें देखिये क्या क्या चिट्ठे पर हम ले आये हैं
मेरा निर्णय, मैं सुझाव वाला अब कुछ भी नहीं पढ़ूंगा

मैं टिप्पणियां नहीं करूंगा
कुछ् सन्देशे मित्रमंडली में उनकी शामिल हो जाऊँ
वोजो लिखते हैं उसको ही पढ़ूँ साथ में मिलकर गाऊँ
मेरा अपना नहीं नियंत्रण रहे समय पर बिल्कुल अपने
चिट्ठों की उनकी दुनिया में अपना पूरा समय बिताऊँ
उनका लेखन वॄथा बात यह अब कहने से नहीं डरूँगा

मैं टिप्पणियां नहीं करूंगा

Monday, August 11, 2008

डुगडुगी अपनी बजाता जा रहा हूँ

जानता संभव, नहीं ये आपका आशीष पायें
गीत मैं फिर भी नये रच गुनगुनाता जा रहा हूँ

शब्द तो कठपुतलियों से लेखनी के हाथ में हैं
जिस तरह चाहे चमत्कॄत ढंग से इनको सजाये
कंगनों की खनखनाहट टाँक दे इनके सुरों में
आंसुओं के रंग भर कर सावनी गाथा सुनाये

उंगलियों पर मैं नियंत्रण कर नहीं पाया अभी तक
इसलिये, जिस राह पर चलती, चलाता जा रहा हूँ

है सभी के चंग अपने, राग अपने ढोल अपने
चाहता हर कोई अपनी ही सदा ढपली बजना
केन्द्र बन आकर्षणों का वाहवाही को बटोरे
कामना रखता सफ़ल हो इस तरह मजमा लगाना

जानता हूँ मैं विलग इस भीड़ से बिल्कुल नहीं हूँ
इसलिये ही डुगडुगी अपनी बजाता जा रहा हूँ

नित्य ही आशा सँवरती हों अलग कुछ भीड़ से हम,
रोज हमने भेष बदले, शीश पर टीके लगाये
गंध में लाकर डुबोये कागज़ी कुछ फूल फिर से
चित्र से आभूषणों के आस के मोती लुटाये

पास में मेरे नहीं है कोई सूखी पंखुड़ी भी
किन्तु फिर भी हार फूलों के चढ़ाता जा रहा हूँ

Wednesday, July 30, 2008

समीर लाल जी का जन्मदिन

पता नहीं कैसे १२२वीं पोस्ट की तलाश में भटकते हुए जहां समीरभाई की टिप्पणी का उपयोग होता, हम ऐसे भटके कि भूल गये कि आज यानी कि २९ जुलाई को सर्वप्रिय समीर लाल जी का जन्मदिन है.
दिन के पलों को उधेड़ कर बुनते हु्ये कब रात भी ढल गई पता ही नहीं चला. आज सुबह याद आया तो बिलम्ब से ही ही सही उन्हें जन्म दिवस की हार्दिक शुभकामनायें

सुखमय जन्मदिवस हो, हम सब नवल पुरातन हर्ष संजोयें
अभिनन्दन के भाव भेंट में भेज रहा स्वीकारो
भावी जीवन के सपनों की मूर्त्तिमान खुशियों से
विविध रूप में रँगा आपका वर्त्तमान सजता हो

Wednesday, July 23, 2008

पूजा की थाली तो सजती

पूजा की थाली तो सजती रहती है नित सांझ सकारे
लेकिन श्रद्धा बिना तुम्हारे आशीषों के नहीं जागती

रोली अक्षत फूल धूप का कितना भी अम्बार लगाऊँ
पंचम सुर में नाम तुम्हारा जितना भी चाहे चिल्लाऊँ
एक हाथ में दीप उठाकर दूजे से घन्टी झन्कारूँ
मस्तक पर चन्दन के टीके विविध रूप में नित्य सजाऊँ

किन्तु तुम्हारी कॄपा न हो तो ये सब आडम्बर ही तो है
बिना तुम्हारे इच्छा के विधि अपना लेखा नहीं बाँचती

जो भ्रम है मुझको, मेरा है! मुझे विदित वह कब मेरा है
एक तुम्हारी माया के सम्मोहन ने ही तो घेरा है
जो है वो है नहीं और जो नहीं वही तो सचमुच ही है
यह मंज़िल है कहाँ ? महज दो पल की ही तो ये डेरा है

तेरी चाहत अगर न हो तो कोई योगी भी क्या समझे
तेरे इंगित बिना ज्ञान के सूरज की न किरण जागती

ओ प्राणेश दिशा का अपनी निर्देशन दे मुझको पथ में
दे मुझको भी जगह सूत भर, तू जिसका सारथि उस रथ में
मेरे मन के अंधियारे में बोध दीप को कर दे ज्योतित
कर ले मुझको भी शामिल तू अपने मन के वंशीवट में

तेरे कॄपासिन्धु की लहरें छू लेंगी कब इस मन का तट
लिये प्रार्थना मेरी नजरें रह रह कर बस पंथ ताकतीं.

Monday, July 14, 2008

“बरखा-बहार”....


सूचना

महावीर‘ ब्लॉग पर मुशायरा (कवि-सम्मेलन)

“बरखा-बहार”
वरिष्ठ लेखक, समीक्षक, ग़ज़लकारश्री प्राण शर्मा जीकी प्रेरणा से जुलाई १५, २००८ एवं जुलाई २२,२००८ को ‘इसब्लॉगपर मुशायरे का आयोजन किया जा रहा है।इस ब्लाग पर मुशायरे में शिरकत के लिए कवियों की बड़ी तादाद होने की वजह से मुशायरे कोदो भागोंमें दिया जा रहा है।पहला भाग १५ जुलाईऔरदूसरा भाग २२ जुलाई २००८को दिया जायेगा।

देश-वदेशसे शायरों और कवियों में प्राण शर्मा, लावण्या शाह, तेजेन्द्र शर्मा, देवमणि पांडेय, राकेश खण्डेलवाल, सुरेश चन्द्र “शौक़”,कवि कुलवंत सिंह, समीर लाल “समीर”,नीरज गोस्वामी, चाँद शुक्ला “हदियाबादी”,देवी नागरानी, रंजना भाटिया, डॉ. मंजुलता, कंचन चौहान,डॉ. महक, रज़िया अकबरमिर्ज़ा, हेमज्योत्सना “दीप”, नीरज त्रिपाठी आदि पधार रहे हैं।

आप से निवेदन है कि उनकी रचनाओं का रसास्वादन करते हुए ज़ोरदार तालियों (टिप्पणियों) से मुशायरे की शान बढ़ाएं।
महावीर शर्मा प्राण शर्मा
पत्र-व्यवहार इस ईमेल पर कीजिए :mahavirpsharma@yahoo.co.uk‘
महावीर‘ - http://mahavir.wordpress.com
और अब एक रचना इसी सन्दर्भ में
फिर आई ॠतु बरखा की


फिर आई ॠतु बरखा की

खपरैलों से टपके पानी ज्यों विरहिन की आँखें
छत की झिरियों से रह रह कर काली बदली झांके
दीवारों पर आकर बिजली का चाबुक लहराता
खिड़की के पल्ले खड़काकर पवन झकोरा गाता
फिर आई ॠतु बरखा की

सारा गांव सना कीचड़ में, घर आंगन पगडंडी
हफ़्ते भर से सूख न पाई लालाजी की वंडी
गीली हुईं लकड़ियां सारी, हुआ धुंआसा चूल्हा
सूरज दिखा नहीं परसों से, शायद रस्ता भूला
फिर आई ॠतु बरखा की

सिगड़ी पर भुनते हैं भुट्टे, तलने लगी पकोड़ी
लिये खोमचे दाल बड़े और खस्ता गरम कचौड़ी
हलवाई की तईयों में अंगड़ाई लेते घेवर
आये द्वारे मेघदूत, पी के सन्देसे लेकर
फिर आई ॠतु बरखा की

घर से बाहर निकले आकर छतरी और बरसाती
कागज़ की किश्ती तैराती बाल टोलियां गाती
छत की बंद मोरियां करके पानी का छपकाना
और भीगने पर दादी नानी की झिड़की खाना
फिर आई ॠतु बरखा की.

Monday, July 7, 2008

पीर के तुणीर अक्षय

पीर के तुणीर अक्षय ले खड़ी है ज़िन्दगानी
और हम को युद्ध की फिर से शपथ नूतन उठानी

वक्ष पर सहते रहे हैं कंटकों को फूल करके
राह में चलते रहे हर शूल को पगधूल कर के
हम शिला हैं पीर की रस्सी न चिन्हित कर सकी है
हम बहाते नाव अपनी धार को प्रतिकूल कर के

बात गालिब की हमारी प्रेरणा दायक हुई है
पीर बढ़्ती है अधिक तो और हो लेती सुहानी

हो रहीं खंडित हमारे पांव को छूकर शिलायें
हम नहीं वह, एक पग जो राह में पीछे हटायें
हर चुनौती का दिया हमने सदा मुँहतोड़ उत्तर
हम शिखर हैं लौट जाती हैं जिसे छ्कर घटायें

पीर के इक मंदराचल ने मथा है जो हलाहल
पी उसे संकल्प पर चढ़ती निरंतर नवजवानी

फूल का झरना सुनिश्चित शाख से हम जानते हैं
आदि का हर,अंत होता है इसे भी मानते हैं
किन्तु अपने गिर्द खींचे दायरे के मध्य में हम
हो खड़े जो बात शाश्वत है, कहाँ पहचानते हैं

ढल रही इक सांझ में अक्सर अधूरी रह गई जो
भोर उसको शब्द देकर फिर नयी रचती कहानी

Wednesday, June 18, 2008

स्वीकारो मेरा अभिवादन

चिट्ठा जगत के परम आदरणीय संगणक अभियन्ताओं के पेशे नजर


प्रोद्योगिकी सूचना वाली के इकलौते भाग्य विद्झाता
तेरह घंटों से भी ज्यादा, नित्य काम करने की आदी
अन्तर्जाली दुनिया के तुम राज नगर के हो शहज़ादे
कुंजी वाली एक पट्टिका से कर ली है तुमने शादी

प्रभो संगणक अभियन्ता हे ! स्वीकारो मेरा अभिवादन

कहां सूचना कितनी जाये, ये निर्णय तुम पर है निर्भर
प्रेमपत्र के लिये कबूतर, केवल एक तुम्हारा इंगित
दिल का मिलना और बिछुड़ना या फिर टूट धरा पर गिरना
इसका सारा घटनाक्रम, बस तुम ही करते हो सम्पादित

धन्य तुम्हारा निर्देशन है, धन्य तुम्हारा है सम्पादन

खाना भी तुम जब खाते हो, वह इक दॄष्य निराला होता
एक हाथ में सेलफोन है, एक हाथ में रहता काँटा
कहाँ गया लेटस का पत्ता,या कटलेट कहां खोया है
सिस्टम को एडिट करना भी बहुत जरूरी है अलबत्ता

तुम पर ही तो निर्भर है हर एक फ़ैक्ट्री का उत्पादन

केवल एक तुम्हारा मैनेजर ही बस तुमसे ऊपर है
जिसके आगे नित्य बजाते हो तुम एक हाथ से ताली
यदि वह नर है तो निश्चित ही महिषासुर का है वो वंशज
और अगर नारी है तो वह सचमुच ही है हंटर वाली

एक वही है नाच नचाता, हो कितना भी टेढ़ा आँगन

माईक्रोसाट तुम्हीं से, तुमसे है याहू तुमसे ही गूगल
तुम ही हो पीसी की खातिर, हैकिंग वाले भक्षक राहू
तुम इन्फ़ोसिस, तुम टीसीएस तुम कंसल्टिंग के अवतारी
पूरा अन्तर्जाल काँपता, फ़ड़का अगर तुम्हारा बाहू

यूनीकोड तुम्ही से, मैने आज किया जिससे आराधन
तुमसे सिन्थेसाइज है स्वर, तुम अन्वेषक हो अक्षर के
लौकिक और पारलौकिक भाषा के तुम ही एक नियंता
देवनागरी, रूसी हो या फोरट्रान , सी धन धन वाली
कुछ भी तुमसे शेष नहीं है, हो नि:शेष तुम्ही अभियंता

तुम गिटार की झंकारों में करते हो वीणा का वादन

तुम रहत हो निकट पट्ट के, फिर भी द्र्ष्टा हो वितान के
तुम ही स्वयं पहेली हो इक, तुम ही हर गुत्थी का हो हल
र्तुम्हीं दिशाओं के निर्देशक, तुम अक्षय भंदार ज्ञान के
तुम पर ही सब टिका हुआ है, जो बीता, या आयेगा कल

कीर्ति तुम्हारी सुरभित करती है दफ़्तर औ’ घर का आँगन
स्वीकारो मेरा अभिवादन

Friday, May 23, 2008

अंडे, टमाटर और जूते

पिछले दिनों कुछ ख्वाहिशें पढ़ीं. जिनके दिल की गहराईयों से यह
निकली थीं , उन्हीं महान कवियों के चरण कमलों में मेरी पुष्पांजलि:-

speaker copy

सड़े हुए अंडे की चाहत
गले टमाटर की अकुलाहट
फ़टे हुए जूते चप्पल की माला के असली अधिकारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी

तूने जो लिख दी कविता वह नहीं समझ में बिलकुल आई
"खुद का लिखा खुदा ही समझे" की परंपरा के अनुयायी
तूने पढ़ी हुई हर कविता पर अपना अधिकार जताया
रश्क हुआ गर्दभराजों को, जब तूने आवाज़ उठाई

सूखे तालाबों के मेंढ़क
कीट ग्रसित ओ पीले ढेंढ़स
चला रहा है तू मंचों पर फ़ूहड़ बातों की पिचकारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी

पढ़ा सुना हर एक चुटकुला, तेरी ही बन गया बपौती
समझदार श्रोताओं की खातिर तू सबसे बड़ी चुनौती
तू अंगद का पांव, न छोड़े माईक धक्के खा खा कर भी
चार चुटकुलों को गंगा कह, तूने अपनी भरी कठौती

कीचड़ के कुंडों के भैंसे
करूँ तेरी तारीफ़ें कैसे
हर संयोजन के आयोजक पर है तेरी चढ़ी उधारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी

क्या शायर, क्या गीतकार, सब तेरे आगे पानी भरते
तू रहता जब सन्मुख, कुछ भी बोल न पाते,वे चुप रहते
हूटप्रूफ़ तू, असर न तुझ पर होता कोई कुछ भी बोले
आलोचक आ तेरे आगे शीश झुकाते डरते डरए

ओ चिरकिन के अमर भतीजे
पहले, दूजे, चौथे, तीजे
तुझको सुनते पीट रही है सर अपना भाषा बेचारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी

मानक अस्वीकरण:- अगर मान्य नवयुग के कवि इस रचना को पढ़कर अपनी जेब में से फिर दो दर्जन छुटकुले सुन्नने लगें
तो यह उनकी वैयक्तिक स्वतंत्रता का द्योतक होगा. इस सन्दर्भ में कोई भी दायित्व स्वीकॄत नहीं होगा

Monday, May 12, 2008

मातॄ दिवस- शताब्दी+

मातॄ दिवस एक बार फिर आकर चला गया. फिर इस बार करोड़ो लोगों ने अपनी अपनी मांओं को फूल भेजे, ग्रीटिंग कार्ड भेजे और साथ ही लंच और ब्रंच के साथ मांओं की सराहना की. दिन बीतते न बीतते यह दिन भी एक सौवीं वर्षगांठ के साथ साथ आंकड़ों में बदल गया. कितने टन फूल आयात हुए, कितने गुलदस्ते फ़ेडेक्स- के द्वारा ले जाये गये, रेस्तराओं में कितने प्रतिशत बढोत्तरी हुई, चाकलेट की बिक्री पर क्या प्रभाव पड़ा और बड़े उपभोक्ता सामग्री विक्रेताओं ने इस का कितना लाभ उठाया.

खै्र यह तो आज के पाश्चात्य प्रभाव की त्रासदी है कि इस अमूल्य संपदा की भी मापतोल हो जाती है.
हमारी संस्कॄति और दॄष्टिकोण से

एक शब्द जो " माँ " लिख डला
वह खुद में पूरी कविता है
शब्द इसी में सभी समाहित
इकलौता क्या कह सकता है
कोई उपमा नहीं अलग से
सब उपमायें इससे पूरी
हम सब उसकी परछाईं हैं
बढ़ न सके पल भर भी दूरी.

एक बार फिर नहीं, जितनी भी बार करें कम है नमन.

http://geetkalash.blogspot.com/2008/05/blog-post_11.html

Monday, April 28, 2008

ऑद लूं क्या मौन अब मैं ?

वक्त की कड़कड़ाती हुई धूप में, धैर्य मेरा बरफ़ की शिला हो गया
राह जैसे सुगम हो गई द्वार तक,पीर का अनवरत काफ़िला हो गया
जो कभी भी अपेक्षित रहा था नहीं, शून्य वह ही मेरी आँजुरि में भरा
एक कतरा था टपका जरा आँख से, खत्म जो हो नहीं सिलसिला हो गया------------------------------------------------------------------
भावना सिन्धु में यों हिलोरें उठीं, लग रहा जैसे सच ही प्रलय हो गई
आस के स्वप्न की रश्मि जो शेष थी, बढ़ रहे इस तिमिर में विलय हो गई
पीर के निर्झरों से उमड़ती हुई शब्द की धार ने जब छुआ पॄष्ठ को
अक्षरों को लगाये हुए अंक से लेखनी वेदना का निलय हो गई
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लिख रहा हूँ,लेखनी का कर्ज़ मुझ पर कम जरा हो
शब्द में ढल कर ह्रदय का और हल्का गम जरा हो
अश्रुओं के रंग में डूबी हु इ जो है कहानी
का परस पाकर किसी की आँख पल भर नम जरा हो

Friday, April 25, 2008

हूँ अजीम मैं शायर, मैं हूँ महाकवि

हूँ अजीम मैं शायर, मैं हूँ महाकवि
आप भले मानें इसको या न मानें

मुझको क्या लेना रदीफ़ से, वज़्नों से
किसे काफ़िया कहते हैं ये पता नहीं
बहर नहीं होती कलाम में जो मेरे
इसमें मेरी तो थोड़ी भी खता नहीं
आप इसे समझें चाहे या न समझें
मैं जो लिखता, गज़ल वही बस होती है
और नज़्म की बात आपको क्या बोलूँ
वो तो मेरे पैताने पर सोती है

मेरा हर अशआर लिखा जाता केवल
अकल आपमें कितनी है, ये अजमाने

मुक्तक कहें रुबाई या कताअ कह लें
मुझको कोई फ़र्क नहीं पड़ पाता है
मैं चुटकुले चुरा कर जो लिख देता हूँ
नहीं गांठ से मेरा कुछ भी जाता है
आप अगर न माने मैं हूँ महाकवि
अपनी कलम रहूँगा घिसता कविता पर
आप न जब तक साष्टांग हो करें नमन
रोज आपके पास लाउंगा कुछ लिख कर

मैं उन सब में पहले नंबर पर आया
बुद्धिमता से गईं नवाजी सन्तानें

छंद, गीत, दोहे, कुण्डलियाँ महाकाव्य
सब मेरी छोटी उंगली के हैं अनुयायी
जिसे अकविता कहते, या कविता नूतन
वह तो मेरी प्राण प्रिया है सुखदायी
मैं कवित्त की एक पंक्ति में ले सोलह

दूजी में छत्तीस शब्द बिठलाता हूँ
जिनको नंदन कहा गया बैसाखों के
हर्षित होते हैं, जब जब मैं गाता हूँ

सरगम, घर के पिछवाड़े में रहती है
नित उसको सिखलाता हूँ नूतन तानें

मेरा लोहा जो न माने नहीं कहीं
मुझको देकर फ़ीस, लोग बिठलाते हैं
मांये कहती हैं बच्चों को, चुप होले
देख महाकवि, वरन द्वार पर आते हैं
मैं भाषा का सेवक बिना बुलाये ही
स्वयं पहुंच जाता हूँ हर सम्मेलन में
पिटने की आदत है इतनी, फ़र्क नहीं
दिखता है अंडे, जूते मैं बेलन में

मेरी एक लेखनी में हैं छिपी हुई
लेखन की हर एक विधा की
दस खानें

Monday, April 21, 2008

तुमने मुझसे कहा, लिखूँ मैं गीत तुम्हारी यादों वाले

तुमने मुझसे कहा, लिखूँ मैं गीत तुम्हारी यादों वाले
लेकिन मन कहता है मुझको याद तुम्हारी तनिक न आये

याद करूँ मैं क्योंकर बोलो तीन पौंड का भारी बेलन
जो रोजाना करता रहता था,मेरे सर से सम्मेलन
तवा कढ़ाही, चिमटा झाड़ू से शोभित वे हाथ तुम्हारे
रहें दूर ही मुझसे,नित मैं करता आया नम्र निवेदन

छुटकारा पाया है जिसने टपक रहे छप्पर से कल ही
उससे तुम आशा करती हो, सावन को फिर पास बुलाये

याद करूँ मैं, चाल तुम्हारी, जैसे डीजल का ड्रम लुढ़के
या मुझसे वह बातें करना, जैसे कोई बन्दर घुड़के
रात अमावस वाली कर लूँ, मैं दोपहरी में आमंत्रित
न बाबा न नहीं देखना उन राहों पर पीछे मुड़के

छालों से पीड़ित जिव्हा को आज जरा मधुपर्क मिला है
और तुम्हारा ये कहना है फिर से तीखी मिर्च चबाये

याद करूं मैं शोर एक सौ दस डैसिबिल वाले स्वर का
जिससे गूंजा करता कोना कोना मेरे मन अम्बर का
नित जो दलती रहीं मूंग तुम बिन नागा मेरे सीने पर
और भॄकुटि वह तनी हुई जो कारण थी मेरे हर डर का

साथ तुम्हारे जो भी बीता एक एक दिन युग जैसा था
ईश्वर मुझको ऐसा कोई दोबारा न दिन दिखलाये

तुमने कहा लिखो, पर मैं क्यों भरे हुए ज़ख्मों को छेड़ूँ
बैठे ठाले रेशम वाला कुर्ता मैं किसलिये उधेड़ूँ
जैसे तैसे छुटकारा पाया प्रताड़ना से , तुम देतीं
और तुम्हारी ये चाहत है, मैं खुद अपने कान उमेड़ूँ

हे करुणानिधान परमेश्वर, मेरी यह विनती स्वीकारो
भूले भटके सपना भी अब मुझे तुम्हारा कभी न आये.

Wednesday, April 2, 2008

अमरीका में रहता हूँ जी

पिछले सप्ताह एक समूह पर एक रचना पढी. उस रचना के उत्तर में एक तथाकथित स्वनामधन्य "अमेरिका के महान हिन्दी कवि " की प्रतिक्रिया उलजलूल शब्दों में पढी. हम क्योंकि समझदारी के मामले में थोड़ा तंग हैं इसलिए उनकी रचना समझ नहीं पाए. लिहाजा उन्हें फोन किया, इमेल भेजी और चिट्ठी भी भेजी . जवाब जो अपेक्षित था वह तों मिला नहीं. हाँ उन्होंने जो कुछ इधर उधर की हांक कर समझाया, वह कुछ ऐसे था

अमरीका में जब भी कोई मिलता पूछे क्या करते हो ?
कंप्यूटर के प्रोग्रामर हो या रोगी देखा करते हो ?
या कंसल्टिंग के बिजनेस में अपनी टाँग अडा रक्खी है
या फिर मोटल होटल का व्यवसाय कोई किया करते हो ?
मैं इन सबके उत्तर में बस मुस्ककर इतना कहता हूँ
अमरीका में रहता हूँ जी, मैं कवि हूँ कविता करता हूँ

वैसे मुझको ज्ञान नहीं है ज्यादा कोई भी भाषा का
फिर भी लिखता दीप जलाकर ताली बजने की आशा का
कभी कभी गलती से कोई तुकबंदी भी हो जाती है
जो लिखता हूँ वो मेरी नजरों में कविता हो जाती है
शब्दों के संग उठापटक मैं रोजाना करता रहता हूँ
अमरीका में रहता हूँ जी मैं कवि हूँ कविता करता हूँ

शब्द्कोश की गहराई से भारीभरकम शब्द तलाशे
जिनका समझ न पायें कुछ भी आशय श्रोता अच्छे खासे
मैं जिजीविषा की प्रज्ञा के संकुल के उपमान बना कर
उटपटांग बात कहता हूँ अपने पंचम सुर में गाकर
काव्य धारा की घास मनोहर मैं स्वच्छंद चरा करता हूँ
अमरीका में रहता हूँ जी मैं कवि हूँ कविता करता हूँ

कोई चाहे या न चाहे मैं सम्मेलन में घुस जाता
कथा पीर की मैं दहाड़ कर भरे चुनौती स्वर में गता
कवि सम्मेलन के संयोजक मुझसे कन्नी कटा करते
मेरी बुद्धिमता के आगे अकलमंद सब पानी भरते
मैं हूँ मिट्ठू लाल ढिंढोरा यही सदा पिता करता हूँ
अमरीका में रहता हूँ जी मैं कवि हूँ कविता करता हूँ

Tuesday, April 1, 2008

ये कम्प्यूटर समझदार है

बात् दर असल ये हुई की श्री जी ने शिकायत की की हम उनकी रचनाओं पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे. हमने उन्हें बताया की हम ने तो उनकी कोई रचना पढी नहीं जबकि उनका दावा था की वे हमें लगातार इमेल से भेज रहे थे.काफी जद्दोजहद के बाद हमने पाया की उनकी भेजी हुई सभी रचनाएँ हमारे इमेल के बल्क फोल्डर में सुरक्षित हैं और हमें उन पर निगाह डालने का मौका हमारे कंप्यूटर ने न देकर हमें सरदर्द से बचा रखा था तों निश्चित है की हम कंप्यूटर की शान में कसीदे पढ़ें

यह जो मेरा कम्प्यूटर है, मुझसे ज्यादा समझदार है

बे सिरपैरी, बिना अर्थ की मिलती ऊटपटांग कथायें
तो यह उनको लेजाकर के जंकबाक्स में रख देता है
और कसौटी पर जो इसकी उतरें खरी बिना संशय के
सिर्फ़ उन्हीं को यह आगत की श्रेणी में घुसने देता है

नया उपकरण इसने ओढ़ा, सुनी वक्त की जो पुकार है

जो ये समझ नहीं पाता है, कभी उन्हें दे देता नम्बर
कभी शब्द का असली जो है विकॄत रूप दिखाने लगता
मैने यों तो कई सयाने ओझा अपने पास रखे हैं
उनके मंत्र अगर सुनता है कभी कभी खुद गाने लगता

तेली को यह दिखला देता, कहाँ तेल की बही धार है

संचालक भी सारे कितने जतन किये पर आखिर हारे
कब इसकी क्या मर्जी होगी, केवल यही बता पायेगा
लेकिन इतना हुआ सुनिश्चित, यह मर्मज्ञ श्रेष्ठता का है
छाँट छाँट कर अभिव्यक्ति को लेकर के सन्मुख आयेगा

डाल रखा है अपने काँधों पर इसने खुद बड़ा भार है
ये कम्प्यूटर समझदार है

Thursday, March 27, 2008

कविता पढ़ने की कीमत

एक समाचार पढ़ा ( अंश नीचे लिखे हैं ) और उस समाचार ने सीधे साधे शब्दों को विद्रोह करने पर उतारू कर दिया. मचलते हुए शब्द पंक्ति बना कर आपके समक्ष आ गये हैं--

"April 11 Kavi Sammelan. This is clearly mentioned that only those people will get opportunity to present their poetic work who are registered and paid the fees. "

अभी नैट पर खबर पढ़ी यह, नया चलन लो शुरू हुआ है
कवियों को कविता पढ़ने की अब से फ़ीस चुकानी होगी

दोहों के दो, तीन हायकु, चौपाई के चार लगेंगे
आठ नज़म के, दस मुक्तक के और गज़ल के पन्द्रह डालर
और गीत की फ़ीस बीस से लेश मात्र भी कम न होगी
दुगनी कीमत देनी होगी अगर सुनाना चाहें गाकर

और किसी का केवल एक सुना देना नादानी होगी
कवियों को कविता पढ़ने की अब से फ़ीस चुकानी होगी

सौ डालर अर्नेस्ट मनी के बिना न छू पायेंगे माईक
बिना छंद की रचनाओं का जुर्माना है अस्सी प्रतिशत
और अगर यह बिना कथ्य के, बिना तथ्य के थोथी निकली
तो जितनी अर्नेस्ट जमा है वो सारी हो लेगी गारत

काली सूची में होने की जहमत और उठानी होगी
कविता पढ़ने की कवियों को कीमत बहुत चुकानी होगी

ताली अगर आप चाहें तो दें अतिरिक्त बहत्तर डालर
वाह वाह की बहुत खूब की कीमत मात्र चुनी है नव्वे
वन्स मोर की और मुकर्रर की आवाज़ें सुनना चाहें
तो कीमत के साथ लाईये काजू की कतली के डब्बे

नया चलन है इसकी चर्चा आगे बहुत बढ़ानी होगी
कवियों को कविता पढ़ने की कीमत यहाँ चुकानी होगी



Wednesday, March 26, 2008

मौसम का बदलाव

कैलेन्डर कहता बसन्त है, किन्तु न ज़िद्दी मौसम माने
भोर हाथ में अब भी पहने हुए माघ के ही दस्ताने
खिड़की के पल्लों पर बैठी, दोपहरी की धूप अनमनी
और सांझ की सारंगी पर नहीं गूँजते प्रेम तराने

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यह मौसम का बदलाव सुनहरी यादों को देता निखार
रंगीन रात अंगड़ाई ले, यूँ लगे लुटाती मादकता
वह धीमी सी दस्तक कोई आती वंशी के स्वर जैसी
उसका स्वर मेरे अंतर में भर रहा बेकसी आकुलता

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फ़ागुन की रंगीनी ओढ़े, चैती की धूप गुनगुनी सी
भुजपाशों में भरती है तन कुछ और कसमसा जाता है
नव-दुल्हन सा घूँघट ओढ़े, संध्या आकर अँगनाई मे
गाती है उस पल हर सपना शिल्पित होकर आ जाता है

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Monday, March 24, 2008

अब होली की उमंग थी या तरंग

रूप वर्णन --दूसरा पहलू.

अब होली की उमंग थी या तरंग. पता नहीं कैसे एक परछाईं सी बनी कल्पना आ गई और हाथ में कलम देकर लिखवा गई. जो कुछ उस कल्पना ने कहा, बिना किसी तोड़ मोड़ के प्रस्तुत है

कलाकार हे, शिल्पकार हे, नमन करो स्वीकार हमारा

बाद रामलीला के उखड़े पड़े हुए ढेरे में तम्बू
ले खराब इंजन को पथ में खड़े हुए टूटे बुलडोजर
तुम अमोनिया वाली खादों के इक फ़टे हुए बोरे से
जमा गैस के लिये किया जो गया कुंड में, तुम वो गोबर

तुम अनंग के उबटन के अवशेषों की कोई प्रतिमा हो
नमन करो स्वीकार हमारा

यज्ञकुंड में बाद हवन के बचे हुए कोयले के चूरे
जमे पतीली के पैंदे में जल जल कर, तुम हो वो छोले
पड़ी हजारों बार शीष पर, घिसी हुई चप्पल के तलवे
और तुम्ही हो चुल्लू भर पानी में भीग बुझे जो शोले

तुम कीचड़ से भरे कुंड में खड़ी भैंस का इक सपना हो
नमन करो स्वीकार हमारा

तुम ड्राउअर के लिन्ट त्रैप में जमा हुई दस दिन की पूँजी
बदला गया तेल के संग जो, गाड़ी के इंजन का फ़िल्टर
अरे मदन-सुत ! शब्द नहीं हैं करूँ रूप का कैसे वर्णन
जो पथ की कर रहा मरम्मत, बिट्यूमैन का तुम्ही बायलर

तुम हो अतुल तुम्ही अपरिम हो,ऐसी सॄष्टा की रचना हो
नमन करो स्वीकार हमारा

Tuesday, March 18, 2008

आज सौंवी पोस्ट है यह

आज सौंवी पोस्ट है यह

पर नया कुछ भी नहीं जो ये लगे मुझको हुआ है
या किसी नव भाव ने आ छंद गीतों का छुआ है
न बंधा सपना नया कोई सपन की डोर से ही
न किरन कोई नई आई निकल कर भोर से ही
और न बोली नदी ही ताल से आ साथ में बह
आज सौंवी पोस्ट है यह

शब्द वोही, है कलम वह, और वो ही भाव मेरे
ज्योति के पल भी वही,हैं बस वही छाये अंधेरे
न कोई परिचय बदल पाया, न बदला है अपरिचय
और वो ही संशयों की धुन्ध में लिपटा हुआ भय
साथ केवल पल जिन्हें अपना कहूँ हैं चार या छह
आज सौंवी पोस्ट है यह

क्या करूँ मैं, सोचता हूँ नाम को अपने बदल लूँ
रंग कलियों में भरूँ या पत्थरों के रुख मसल दूँ
या न कुछ भी मैं करूँ, हो मौन फिर से बैठ जाऊँ
या कहें जो आप अपना गीत अगला गुनगुनाऊँ
आज शायद लेखनी का जो पला भ्रम जायेगा ढह
आज सौंवी पोस्ट है यह

Sunday, March 9, 2008

ज्योति अंगड़ाई में टूटती रह गई

जिस डगर पर चले थे कदम सोचकर
मंज़िलों की दिशा उनको बतलायेगी
हो गई है दिशाहीन खुद वो डगर
एक ही चक्र में घूमती रह गई

थे चले अनवरत हर घड़ी के कदम
भोर में सांझ में दोपहर के तले
उग रहे सूर्य की रश्मियां थाम कर
साथ छोड़ा नहीं जब तलक वो ढले
नीड़ के हर निमंत्रण की अवहेलना
कर के पाथेय अक्सर नकारा किये
अपनी रफ़्तार को तेल करते हुए
प्रज्वलित कर रहे नित्य गति के दिये

काल ने पथ पे लेकिन लिखा और कुछ
थी निराशा जिसे चूमती रह गई

यामिनी के गगन से उतर चाँदनी
राह की धूल का करती श्रंगार थी
नभ की मंदाकिनी से उमड़ती हुई
हर लहर यूँ लगा एक उपहार थी
किन्तु परछाईयों के धुंधलके सघन
बिम्ब आकर नयन के मिटाते रहे
और कंदील की हर निगल रोशनी
बस अंधेरा उगल कसमसाते रहे

इसके पहले कि बांहों में लौ बन उठे
ज्योति अंगड़ाई में टूटती रह गई

हर कदम के परस से रही राह में
फूटती कोंपलें दुधमुंही आस की
चाह की ले संवरती हुई पांखुरी
शायिका बन सकें एक मधुमास की
किन्तु विषधर बना पतझड़ों का कहर
स्वप्न के हर सुमन को निगलता रहा
और ऐसे ही दिन जो उगा भोर में
सांझ की गोद में नित्य ढलता रहा

नैन में ले अधूरे से इक प्रश्न को
सांस हर द्वार कुछ पूछती रह गई

Wednesday, March 5, 2008

गीत कोई सुरों में सँवरता नहीं

रात की छत पे आकर ठहरता तो है, चाँदनी से मगर बात करता नहीं
जाने क्या हो गया चाँद को इन दिनों, पांखुरी की गली में उतरता नहीं
ये जो मौसम है, शायद शिथिल कर रहा, भावना,भाव,अनुभूतियाँ, कल्पना
शब्द आकर मचलते नहीं होंठ पर, गीत कोई सुरों में सँवरता नहीं
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कल्पना के अधूरे पड़े पॄष्ठ पर, नाम किसका लिखूँ सोचता रह गया
एक बादल अषाढ़ी उमड़ता हुआ, और एकाकियत घोलता बह गया
घाटियों में नदी के किसी मोड़ पर, राह भटकी हुई एक मुट्ठी हवा
साथ दे न सकी एक पल के लिये, पंख, पाखी ह्रदय तोलता रह गया
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एक कोरा रहा सामने

रंग सिमटे रहे तूलिका में सभी, कैनवस एक कोरा रहा सामने
जुड़ सका कोई परिचय की डोरी नहीं, नाम जो भी दिया याद के गांव ने
भावनाओं की भागीरथी में लहर,अब उठाते हैं झोंके हवा के नहीं
लड़खड़ाते हुए भाव गिरते रहे, शब्द आगे बढ़े न उन्हें थामने
इसलिये गीत शिल्पों में ढल न सका, छैनियां हाथ में टूट कर रह गईं
और सीने की गहराई में भावना, अपनी परछाईं से रूठ कर रह गई
गुनगुनाती हुए कल्पना थक गई, साज कोई नहीं साथ देने बढ़ा
और पलते हुए भ्रम की गगरी सभी, एक पल में गिरीं, टूट कर बह गईं

Friday, February 29, 2008

लगा हूँ पलक मींचने

अतीत के झरोखों से

एक अनुभूति है जिसको चीन्हा नहीं
पर लगा हूँ उसे बाँह में भींचने

मेरे अहसास के दायरे में कहीं
हैं छुपे आप आते नहीं सामने
ढूँढते ढूँढते हैं निगाहें थकीं
पर बताया नहीं कुछ पता गाँव ने
एक आभास जैसे चली हो हवा
एक खुशबू कि जिसने मुझे है छुआ
एक सपना खडा नींद की कोर पर
एक मुट्ठी भरी धूप लाई उषा

रंग पानी से लेकर क्षितिज पर कहीं
रूप के चित्र फिर से लगा खींचने

कल्पना की सुराही से छलकी हुई
पी रहा हूँ मधुर ज्योत्सना की सुधा
चेतना का मेरी हर निमिष, आपके
ध्यान के सिन्धु में प्राण! डूबा हुआ
फूल की पाँखुरी में रही खोजती
चित्र बस आपके चांदनी की किरन
हर दिशा को रही खटखटा कामना
आरजुओं की कर प्रज्वलित इक अगन

फिर मिलन की उगें बेल कुछ, द्वार पर
दे के सौगन्ध उनको लगा सींचने

भोर की वीथियों में उगे ओस कण
आपके पाँव की हैं महावर बने
मोतियों सी सुघर एक पदचाप से
छन्द नूतन कई सरगमों के बने
आपके कुन्तलों से उठी इक घटा
नभ में बरखा के छींटे उडाने लगी
ओढनी के किनारे से पुरबा चली
वादियों में गज़ल गुनगुनाने लगी

आपका रूप आँखों से हो न विलग
दोपहर से लगा हूँ पलक मींचने


Wednesday, February 27, 2008

शब्द छिन गये

आज समय ने चलते चलते कुछ ऐसे करवट बदली है
खेल रहे थे जो अधरों पर मेरे, सारे शब्द छिन गये

इन्द्र धनुष पर बैठ खींचता रहता है जो नित तस्वीरें
बुनता वह रेशम के धागे, वही बांध देता जंज़ीरें
अपने इंगित से करता है संयम काल चक्र की गति को
कभी रंग भरता निर्जन में, कभी मिटाता खिंची लकीरें

साहूकार! लिये बैठा है खुली बही की पुस्तक अपनी
और सभी बारी बारी से उसे चुकाते हुए रिन गये

कब कहार निर्धारित करता कितनी दूर चले ले डोली
कब देहरी या आंगन रँगते खुद ही द्वारे पर रांगोली
कठपुतली की हर थिरकन का होता कोई और नियंत्रक
कब याचक को पता रहेगी रिक्त, या भरे उसकी झोली

जो बटोर लेता था अक्सर तिनके खंडित अभिलाषा के
वही धैर्य अब प्रश्न पूछता रहता मुझसे हर पल छिन है


यों लगता है चित्रकथायें आज हुई सारी संजीवित
अंधियारों ने बिखर बिखर कर, सारे पंथ किये हैं दीपित
कलतक जो विस्तार कल्पना का नभ के भी पार हुआ था
कटु यथार्थ से मिला आज तो, हुआ एक मुट्ठी में सीमित

कल तक जो असंख्य पल अपने थ सागर तट की सिकता से
बँधे हाथ में आज नियति के, एक एक कर सभी गिन गये

Wednesday, February 13, 2008

एक पागल बदरिया बरसती रही

कलेंडर बता रहा है कि कहीं बसन्त के दिन हैं. खिड़की से बाहर झांकने पर सब कुछ सुरमई दिखता है और दरवाज़ा खोलते ही बर्फ़ीली रजाइयां लपेटे हुए हवा सीधी अन्दर तक तीर की तरह चीरती चली जाती है. अब इसे बसन्त कहें, या फ़ागुन की अगवानी . जाते हुए माघ्का प्रकोप या आने वाले सुखद दिनों की कल्पना की गरमाहट. असमंजस, उथल पुथल और अनिश्चय के क्षण कलम को भी भटका देते हैं. ऐसे ही भटकते भटकते राह में मिलते हुए शब्दों को पकड़ पकड़ कर एक लाइन में बिठा कर आपके सामने.


न था सावन, न भादों न आषाढ़ ही
एक बदली नयन से बरसती रही

भोर की गुनगुनी धूप में घुल गये
स्वप्न आंखों के सब उड़ गये इत्र से
दर्द सीने से मुझको लगाये रहे
एक बचपन के बिछुड़े हुए मित्र से
पर कटा, बन कबूतर गई कल्पना
छटपटाती रही एक परवाज़ को
उंगलियां थक गईं छेड़ते छेड़ते
तार से रूठ बैठे हुए साज को

एक गमले की सीमाओं में मंजरी
शाख से टूट कर नित्य झरती रही

शंख की गूँज से जाग पाया नहीं
भाग्य सोया हुआ, जाने कब का थका
आरती की खनकती हुई घंटियों
का विफ़ल स्वर, स्वयं साथ में सो गया
कोष आशीष के काम आये नहीं
अर्चना की बिखर रह गईं थालियाँ
रात थी दूर से मुँह चिढ़ाती रही
दिन उड़ाता रहा रोज ही खिल्लियाँ

वक्त की मेज पर एक गुलदान में
पंखुड़ी फूल की थी सुबकती रही

खटखटाते हुए थी हथेली छिली
द्वार प्राची ने खोला नहीं तम घटे
कोई आई इधर को नहीं चल किरण
जिससे छाया हुआ ये कुहासा छँटे
नाव टूटी लिये चल दिये सिन्धु में
बाँध संतोष, पी घूँट भर चाँदनी
स्वप्न लेकिन तरल, सोख कर ले गईं
आ उमड़ती हुई इक घटा सावनी

भग्न इतिहास की एक प्रतिमा, मेरे
आज को प्रश्न का चिन्ह करती रही

Tuesday, February 5, 2008

लुढ़का हुआ हाशिये पर

ऐसा अक्सर होता है कि लिखने के लिये किसी बहाने की जरूरत होती है. कई बार तो यह बहाना ईज़ाद भी किया जाता है. परन्तु कभी कभी ऐसा भी होता है कि लिखने के लिये जिन चीजों की आवश्यकता होती है उनमें से किसी एक के भी पास न होने पर एकाएक विराम सा लग जाता है. लगभग ऐसी ही समस्या पिछले कुछ दिनों रही जब साथ के लेखक जिनका लेखन प्रेरणादायक होता था ऐसे नदारद हो गये जैसे भोर के आते ही अंधेरे का झुटपुटा. लेकिन अभी अभी कोहरे को चीरती हुई किरन जैसे अवतरित हुए हमारे मित्र की रचना पढ़ कर कलम सहसा स्वयं ही मचल उठी यह लिखने को:-

शब्द, शिल्प, अनुभूति और है कौशल भी
लेकिन कोई गीत नहीं बन पाता है

होठों पर आते आते अक्षर बेसुध
उंगली अपनी छुड़ा शब्द से बिखर रहे
पंक्ति बुलाती रही पास रह रह उनको
अपनी ज़िद पर अड़े हुए, हो तितर रहे
खो बैठे पहचान अकेले रह रह कर
कोई अर्थ नहीं छू पाया तन मन को
एकाकीपन के अजगर की कुंडलियां
रही निगलती उदासीन सी सरगम को

लुढ़का हुआ हाशिये पर जो, दीवना
बार बार मुझको आवाज़ लगाता है

जाने कितनी बार फ़िसल कर चेह्रे से
गिरती है, फिर रह रह उठती एक नजर
जैसे प्रश्नचिन्ह संबोधन बनने की
कोशिश में करता है सीधी झुकी कमर
उत्तर लेकिन उठते हुए सवालों के
एक बार फिर दूर नजर से रहते हैं
और चक्र ये उठते गिरते रहने के
फिर से द्रुतगति होकर बहने लगते हैं

कुछ तलाश है, ये होता महसूस मगर
क्या तलाश है ? समझ नहीं आ पाता है

चाह रहा था मैं मेघों के उच्छवासों
को रंगीन बना कर फ़ागुन बरसा दूँ
बाहों में सतरंग लपेटे वनफूलों को
कर छंद, द्वार पर लाकर बिखरा दूँ
आंखों में बो दूँ मैं सरगम खुश्बू की
भर दूँ ला सांसों में गंधों की छाया
रंगूँ तूलिका सिन्दूरी अहसासों से
कर दूँ पूनम सा हर रजनी का साया

किन्तु तुम्हारे बिना, चना मैं एकाकी
और भाड़ फिर से साबुत रह जाता है

Wednesday, January 16, 2008

ओस की बून्द ने

हर दिवस हो गया हीरकनियों जड़ा, मोरपंखी हुई मेरी हर शाम है
ओस की बून्द ने फूल की पंखुड़ी पर लिखा धूप से जब तेरा नाम है

रात भर थी टपकती हुई चाँदनी
को पिरोती रही भोर की धूप में
गंध को घोल कर स्याहियां फिर बना
थरथराते अधर की कलम में भरा
रोशनी की पिघलती हुई इक किरण
पांव को चूमने के लिये बिछ गई
जब बही धूप ने था कलम से निकल
नाम चुम्बन से इक पंखुड़ी पर जड़ा

एक पल वह सपन का शिलालेख बन, नैन के पाटलों पर सुबह शाम है
ओस की बून्द ने फूल की पंखुड़ी पर लिखा धूप से जब तेरा नाम है

झील में से उठी इक उनींदी लहर
राग नूतन अचानक लगी छेड़ने
सात रंगो भरा भोर का बिम्ब तब
पंखुड़ी बन गई जिस निमिष आईना
नरगिसी हो क्षितिज लीन होने लगा
सूर्य के चक्र की रुक गई फिर गति
जगमगाती हुई दीप्ति से जो घिरा
नाम उठ कर खड़ा हो गया आँगना

अंत-आरंभ-सुध-बुध बिसर कर गये नाम के पास ये मेरा अनुमान है
ओस की बून्द ने फूल की पंखुड़ी पर लिखा धूप से जब तेरा नाम है

तारकों की सघन छांह में थे उगे
कल्पना के हठीले निमिष रात भर
एक खाके को आकार करते रहे
चाँदनी में भिगो, बदलियां कात
एक मुट्ठी हवा, गुनगुनाती रही
बाँसुरी पे मचलती हुई रागिनी
और प्राची की उंगली पकड़ थी खड़ी
तूलिका आतुरा और उन्मादिनी

स्वर्ण का एक प्रासाद जो बन गया, क्यारियों में वही पांचवा धाम है
ओस की बून्द ने पंखुड़ी पर लिखा, धूप से जब प्रिये ये तेरा नाम है