Friday, December 14, 2007

नहाते हुए चाँदनी

प्रासाद के आंगनों में खिली, फूल सी खिलखिलाते हुए चाँदनी
रात की खिड़कियों पे थिरकती रही, दीप सी झिलमिलाते हुए चाँदनी
कल्पना की सुचिर वीथियों में मगर, एक ही आस है, एक ही प्यास है
आपकी देह की रंगतों से धुले, पूर्णिमा में नहाते हुए चाँदनी

-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-

भाव आते नहीं चाँदनी रात में, गीत कैसे लिखूँ तुम कहो प्यार के
एक हल्की सी नाज़ुक सी पागल छुअन का हुआ धमनियों में जो संचार के
उंगलियां काँपती हैं उठाते कलम, शब्द के चित्र बनते नहीं पॄष्ठ पर
कोशिशें करते करते थका भोर से, राग सँवरे नहीं वीन के तार पे

-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-

No comments: