Wednesday, December 12, 2007

कोई अपना यहाँ

अरसे के बाद भारत आना हुआ और महानगर के चौराहों के बीच अपनेपन की तलाश भटकती रही. कुछ सोत्र बँधते रहे और दिलासे की डोर को मज़बूत करते रहे. सन्नाटे की आदत ने शोर को असह्य बनाने की पूरी कोशिश तो की परन्तु अपनेपन के स्पर्श ने उसे असफ़ल ही रहने दिया. ऐसे ही क्षणों में कुछ पंक्तियों का सॄजन हुआ

शोर सीसा है कानों में पिघला हुआ
और गुब्बार बन कर उमड़ता धुंआ
पंक्तियों में ववंडर खड़े धूल के
फिर भी संतोष है कुछ है अपना यहाँ

इस तरफ़ हार्न है, उस तरफ़ चिल्ल-पौं
चीखती सी लगे है हवा बह रही
राह पर धड़धड़ाते हुए इक धमक
शांति दुश्वार है बस यही कह रही
वाहनों में भयंकर है स्पर्धा लगी
किसकी आवाज़ किससे अधिक तेज है
चीखते से सभी आज गतिमान हैं
और सहमी हुई राह चुप हो खड़ी

और विश्राम का पल रुका जो अगर
शोर गुल की बरसती है भीषण अगन
चिपचिपहट गले से लिपटने लगे
फिर भी संतोष है कोई अपना यहाँ

एक चौराहे पर आ खड़ी हो गई
राह चलते हुए, इक भटकती हुई
ज़िन्दगी ले कटोरा खड़ी हाथ में
अर्धविकसित कली सी चटकती हुई
उम्र के पाँव उठने से पहले गिरे
लड़्खड़ाते हुए ठोकरों को पकड़
एक अँगड़ाई झर कर गिरे बँह से
इससे पहले रखी मॄत्यु ने वह जकड़

थाम सावन की उंगली चला तो सही
राह में किन्तु लगता रुका है मदन
कोई सन्देह कोई शिकायत नहीं
क्योंकि संतोष है कोई अपना यहाँ

शर्त थी पार्थ आरूढ़ रथ पर रहे
थाम वल्गाओं को सारथी दे दिशा
जय कुरुक्षेत्र में सत्य की बस रहे
चीर कर अग्निबाणों से पावस निशा
किन्तु वल्गाओं को छोड़ प्रासाद में
सारथी आज सिंहासनों पर मगन
और परछाईयों में घिरे शून्य की
छटपटाते नयन में पले सब सपन

अपना अस्तित्व कर होम जीते हुए
धैर्य की रात दिन दे परीक्षा रहे
फिर भी उम्मीद की इक किरन शेष है
हमको संतोष है कोई अपना यहाँ

चाँदनी हर जगह पर बराबर बँटी
किन्तु इस ओर की बात ही और है
साथ अपनत्व की ले मधुरता मिले
पूर्ण ब्रह्मांड में बस यही ठौर है
जिस जगह पर अपरिचय कपूरी बने
और सम्बन्ध निखरें धुले दूध से
बस यही एक प्रांगण जहां हर घड़ी
यामिनी बात करती मिले धूप से

रोज आशायें हो कर रहें बलवती
फूल झरते रहें और कलियँ खिलें
हो अभावों के साये घिरी वाटिका
किन्तु संतोष है, कोई अपना यहाँ

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