Friday, October 12, 2007

अब न कुछ भी लिखा जा सके

व्यस्तताओं ने जकड़ा है अस्तित्व यों, भाव आते नहीं गीत बनता नहीं
रात की सेज पर लेटता हूँ मगर आंख में कोई सपना संवरता नहीं
गीत दोहे गज़ल सोरठे कुंडली, सबको आवाज़ देते थका हूँ मगर
लेखनी का सिरा थाम कर कोई भी सामने मेरे आकर उतरता नहीं

7 comments:

अनूप शुक्ल said...

बनेगा,बनेगा। लिखिये फिर् से।

Udan Tashtari said...

अरे, आप तो अपनी दिनचर्या भी लिख दें तो वो गीत बन जाये. जारी रहें. शुभकामनायें.

काकेश said...

अरे आपके गीतों के हम दीवाने है. कोशिश करें..गीत तो बन ही जायेगा.

अजित वडनेरकर said...

आप जारी रहें...इसी अंदाज़ में लिखते लिखते खरे सरनेम वाले विष्णु नाम के एक सज्जन बहुत बड़े कवि कहलाने लगे हैं...:)

Unknown said...

भाव आते नहीं....या जो आते हैं उनपर लिखना नहीं चाहते??

Geetkaar said...

अनूपजी,काकेशजी,बेजीजी,अजितजी तथा समीर भाई

कल्प के वॄक्ष की छांह आशीष बन गीत में जब ढली, दिन हवा हो गये
हम घड़ी की सुई से बँधे सोचते,,कल तलक क्या थे हम आज क्या हो गये
बात ये भी नहीं शब्द हैं पास कम या छिनी हाथ से ढालने की कला
बात ये है जो पल धलें गीत में, आज लगता है वे सब कहीं खो गये

कंचन सिंह चौहान said...

वाह! राकेश जी! क्या बात कही! सबके मन की! भाव तो तब आयें जब खाली बैठ कर अपने और समाज के विषय में सोचने का मौका मिले, व्यस्तता कहाँ होने देती है ये सब!
बहुत सुंदर भाव संयोजन।