Tuesday, October 23, 2007

ये बनिये का बिल हो लेंगे

आज सुबह गीत कलश पर पढ़ा


आज नयन के पाटल पर जो चित्र बने जाने अनजाने
कल तक इतिहासों के पन्नों में वे सब धूमिल हो लेंगे

तो एकाएक कल्पना उड़ने लगी और सोचा कि अगर इस कल्पना के गीत को यथार्थ के धरातल पर उतरना पड़े तो क्या होगा और चूंकि यह भी तय था कि अगले कुछ दिनों तक समय की मारामारी रहेगी तो उस कल्पना ने सहज ही शब्दों में ढल जाने का निर्णय ले लिया. अब क्योंकि यह कल्पना का निर्णय था और मेरा इसमें कोई योगदान नहीं है तो लिहाजा कल्पना को अपने आप पोस्ट करने से भी तो नहीं रोका जा सकता. तो लीजिये मुलाहिजा फ़रमाईये



जो कागज़ तुम लिये हाथ मेम सोच रहे हो प्रेम पत्र हैं
आंख खुलेगी, सारे पन्ने तब बनिये का बिल हो लेंगे

आज मूँछ पर ताव दिये तुम उड़ा रहे हो रबड़ी पुए
चढ़ती हुई उमर का पीछा बन कर ये मधुमेह करेंगे
गुटक रहे जो काजू पिस्ते औ’ बदाम की भरी प्लेटें
शायद विदित नहीं है कल ये रक्त-चाप का रूप धरेंगे

होकर आज शरीके महफ़िल साथ तुम्हारा निभा रहे जो
लेकर जाम-सुराही कल तक ये सब ही गाफ़िल हो लेंगे

खोल टाप कनवर्टिबिल की अस्सी की गति भगा रहे हो
इन्टर्स्टेटों पर, तुमको निश्चित एक टिकट मिल जाना
अभी ज़ुल्फ़ जो लहराती है उड़ी हवा के साथ गाल पर
कोर्टहाउस में वेटिंग करते कल होगा इनको उड़ जाना

वालेट में जो आज तुम्हारे अपनी गर्मी दिखा रहे हैं
कल दिन ढलते तक वकील को ये सब ही हासिल हो लेंगे

Friday, October 19, 2007

टिप्पणियों की ख्वाहिश

शाम को श्री जी आये और आते ही हुकुम दनदनाया, " चलो काफ़ी पिलवाओ बहुत परेशान हैं हम"
हमने पूछा परेशानी की वज़ह क्या है तो बोल पड़े कि इतने दिन हो गये , रोज दफ़्तर में बास की नजर बचाकर, घर में बीबी से झगड़ा करके बिला नागा पोस्ट पर पोस्ट लिखे जा रहे हैं दनादन पर कोई आता ही नहीं टिप्पणी करने को.. कई बार तो हमने एग्रीगेटर के माध्यम से अपने चिट्ठे का कई बार दरवाज़ा खटखटाया ताकि लोग क्लिक की संख्या देख कर ही आ जायें और हमारे चिट्ठे पर टिपिया जायें.

फिर एक पल को ठहर कर बोले, सुनो. हम तुमको अपना मित्र और हितैषी समझे थे पर तुम भी सारे ज़माने की साजिशों में शरीक हो गये हो तभी तो तुम भी हमारे चिट्ठे पर टिप्पणी करने नहीं आते.

हमने श्रीजी को समझाने की कोशिश की :-


प्रतिक्रियायें लोग दें अथवा नहीं उनका चयन है
लेखनी का कार्य है कर्तव्य को अपने निभाना

आप तो लिखे जाईये, सार्थक होगा तो लोग अपने आप आयेंगे टिपियाने के लिये और आपको धमाकेदार, सनसनीखेज शीर्षक भी नहीं ढूँढ़ने पड़ेंगे, जिनके सहारे आप पाठकों को न्यौता भेजते रहें.

लेकिन हमारी बात उनके गले के नीचे नहीं उतरी. हमें लगा कि वे झगड़ा करने पर उतारू हैं तो हमने फिर कहा, " सुनिये आप जानते हैं न कि कुछ प्रविष्टियां ऐसी होती हैं जो न चाहते हुए भी टिप्पणी स्वत: ही करवा लेती हैं और कुछ पर आप चाह कर भी टिप्पणी नहीं कर पाते. "

उन्होने समर्थन में अपना सिर हिलाया तो हमारे हौसलों को थोड़ा मज़बूती मिली. हमने फिर कहा, देखिये हम भी जब जब चिट्ठा जगत में प्रवेश करते हैं, अपने साथ टिप्पणियों का थैला लेकर चलते हैं. परन्तु जानते हैं क्या होता है?

वे बोले, बताओ क्या होता है.

तो हमने कहा लीजिये:



टिप्पणियां हम लिये हाथ में चिट्ठा चिट्ठा घूम रहे हैं
कोई ऐसा मिला नहीं हम जि्स पर जाकर इन्हें टिकाते

यों तो टिप्पणियों की ख्वाहिश लिये हुए था हर इक चिट्ठा
कहता था हर इक पुकार कर आयें आप इधर को आयें
देखें हमने कितनी मेहनत से यह सारे शब्द संजोये
इन पर एक बार तो आकर प्रियवर अपनी नजर घुमायें

उन पर जाकर पढ़ा बहुत कुछ , कुछ तो समझे, कुछ न समझे
लेकिन ऐसा एक नहीं था जिस पर चिप्पी एक लगाते

हां फ़ुरसतिया और पुराणिक या सुबीर के भी चिट्ठे हैं
उड़नतश्तरी, रवि रतलामी, पर सब नजर टिका बैठे हैं
सब बराबरी करना चाहें इनके जितनी मिलें टिप्पणी
ईमेलों से भेज निमंत्रण, पलकें पंथ बिछा बैठे हैं

लेकिन उड़नतश्तरी वाले, हम, समीर से नहीं हो सके
जो हर इक चिट्ठे पर जाकर अपना अनुग्रह सहज लुटाते

अस्सी मिनट सिरफ़ गिनती के, जिनमें पढ़ना है लिखना है
और रोज चिट्ठों की संख्या को भी तो बढ़ते रहना है
चाहा सब पर करें टिप्पणी , लेकिन उपजी नहीं प्रेरणा
दो दर्जन न समझ आ सके, उफ़ बाकी का क्या कहना है

प्रत्यक्षा काकेश सभी ने हमको समीकरण समझाया
लेकिन हमें न कुछ मिल पाया हम जिसको जाकर लौटाते

बस साहब, अब आप ही बतायें कि हम क्या करें ?


Friday, October 12, 2007

अब न कुछ भी लिखा जा सके

व्यस्तताओं ने जकड़ा है अस्तित्व यों, भाव आते नहीं गीत बनता नहीं
रात की सेज पर लेटता हूँ मगर आंख में कोई सपना संवरता नहीं
गीत दोहे गज़ल सोरठे कुंडली, सबको आवाज़ देते थका हूँ मगर
लेखनी का सिरा थाम कर कोई भी सामने मेरे आकर उतरता नहीं

Wednesday, October 3, 2007

क्या क्या न किया तेरे लिये ओ----

अब क्योंकि एक नाम से पोस्ट करे तो लोग पढ़ें या न पढें यह समस्या रहती है. समाधान ये कि एक ही पोस्ट को अलग अलग नामों से किया जाये तो कोई न कोई तो पढ़ेगा ही. देखें

http://vikashkablog.blogspot.com/2007/10/blog-post_02.html

और

http://iitbkivaani.wordpress.com/2007/10/02/%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%8c%e0%a4%b8%e0%a4%ae/

जी हाँ रचना एक ही है एक विकास के नाम से और दूसरी वाणी के नाम से. दोनों नारद पर एक ही दिन थोड़ा आगे पीछे आईं हैं. इसका मुख्य कारण तो शायद टिप्पणियों की तलाश ही है जिसके बारे में कई बार लिखा जा चुका है परन्तु सोये हुए पाठकों की उंगलियों में हरकत नहीं होती कीबोर्ड पर ठकठकाने के लिये.

अब हर कोई लाला समीर लाल तो हैं नहीं कि अपनी टिप्पणी लिये हमेशा इन्टर्नेट पर दौड़ता रहें और जैसे ही कोई पोस्ट हो उस प अपनी टिप्पणी का ठप्पा मार दें. जी यह काम भी बड़े जिगर वालों का है ( वैसे बड़े जिगर से परेशानियां भी होती हैं पर उनका ज़िक्र यहाँ जरूरी नहीं है )

कई बार तो बाकायदा निमंत्रनभेजा जाता आपको कि कोई आयें और अपनी टिप्पणी से नवाज़ें. पर हाय री किस्मत ! कुम्भकर्णी नींद में सोये पाठक की चेतना में जुम्बिश का प्रवेश नहीं हो पाता और बिचारी पोस्ट विधवा की मांग की तरह सूनी पड़ी रह जाती है टिप्पणियों के इन्तज़ार में.

अब आप सोच रहे होंगे कि भाई अब तो टिप्पणी करनी ही पड़ेगी लेकिन फिर यह जरूर सोचियेगा कि किस वाली पर करनी है. दोनों पर भी की जा सकती है क्योंकि केवल एक पर करने से डिसक्रिमिनेशन के भागी बन सकते हैं. अब देखिये न टिप्पणी के इन्तज़ार में हमने भी यह सब लिख डाला


नहीं इक प्रेरणा पाई थके हम पोस्ट कर कर के
हुए हैं बेवफ़ा वे भी जिन्हें समझा था हैं घर के

किसी की पोस्ट पर होतीं तिरेपन टिप्पणी देखो
यहां पर एक की खातिर कटोरा हाथ में थामा
न बदले में मिले हमको महज दो बोल आशा के
लुटाईं रिश्वतों में पास की हर एक थी उपमा

लगाई आस बोलेगा कभी तो कोई चढ़ सर पे
हुए हैं बेवफ़ा वो भी जिन्हें समझा था हैं घर के

लिखीं ईमेल पिच्चासी, किये फिर फोन दो दर्जन
नहीं पर हो सका फिर भी किसी के मन का परिवर्तन
रहे हम ताकते, बैरंग खत बन कर सभी लौटे
हमरी पोस्ेट बन कर रह गई गोपाल बस ठनठन

न भूला रास्ता कोई, लगाये दस्तकें दर पे
हुए हैं बेवफ़ा वे भी जिन्हें समझा था हैं घर के

उमीदे टिप्पणी अपनी सभी बस टुट कर बिखरीं
न शुक्लाजी, न प्रत्यक्षा न नारद की कोई तिकड़ी
गई जो पार नभ के तश्तरी, लौटी नहीं उड़ कर
बिचारी पोस्ट देखो रह गई तूफ़ान में छितरी

लिखा कीबोर्ड को हमने ये आँसू में डुबो कर के
मिलेगी दाद जैसे पात कोई पेड़ से झर के



भाई अब तो टिपिया दो नहीं तो हमें भी यही पोस्ट अलग अलग नामों से दस- बारह बार डालनी पड़ेगी