Friday, July 6, 2007

कल कहीं मन कबीरा भी हो कि न हो

लग रही सांझ ये नेह की आखिरी
कल को शायद सवेरा भी हो कि न हो
आज जी भर के आराम कर लेने दो
कल कहीं पर बसेरा भी हो कि न हो

मैने नापी हैं जो राह की दूरियां
उनके मीलों को अब तक गिना ही नहीं
मैने उपलब्धियां मान कर ही उन्हें
है सहेजा, निराशा जो मिलती रहीं

हर घड़ी एक दीपक जलाये रखा
कल को शायद अँधेरा भी हो कि न हो

मोड़ अनगिन मिले, मैं भटकता रहा
किन्तु संकल्प मन के न टूटे मेरे
मैं उठाता रहा हर कदम पर उन्हें
राह में ठोकरें खा के जो गिर पड़े

मैं लुटाता रहा अपना दिल इसलिये
कल को मौसम लुटेरा भी हो कि न हो

आस्था के दिये प्रज्ज्वलित तो किये
रोशनी से कभी जगमगाये नहीं
गीत लिखता रहा रोज ही मैं मगर
वह किसी ने कभी गुनगुनाये नहीं

इसलिये खाके मैं बुन रहा याद के
चित्र सुधि ने चितेरा भी हो कि न हो

जो धरोहर मिली है मुझे कोष में
धीरे धीरे उसे मैं गंवाता रहा
टूटती सांस के तार को छेड़ कर
स्वर अधूरे गले में सजाता रहा

कह रहा हूँ सभी साखिया आज मैं
कल कहीं मन कबीरा भी हो कि न हो

4 comments:

Udan Tashtari said...

आस्था के दिये प्रज्ज्वलित तो किये
रोशनी से कभी जगमगाये नहीं
गीत लिखता रहा रोज ही मैं मगर
वह किसी ने कभी गुनगुनाये नहीं

इसलिये खाके मैं बुन रहा याद के
चित्र सुधि ने चितेरा भी हो कि न हो


---बहुत खूब, गीतकार जी. छा गये, वाह!!

Pratyaksha said...

बहुत बढिया ! हमेशा की तरह

Reetesh Gupta said...

कह रहा हूँ सभी साखिया आज मैं
कल कहीं मन कबीरा भी हो कि न हो

बहुत खूब राकेश जी ...अच्छा लिखा है ..बधाई

Divine India said...

राकेश जी,
आपकी प्रत्येक रचना मुझे पूजा-प्रार्थना की तरह लगती है…।
और आप का मन तो संवेदना की गंगा है तो मन कबीरा होगा ही…।