Thursday, March 29, 2007

मुक्तक महोत्सव-१८ से २२ तक

मित्रों,
आप लोगों के आग्रह पर मुक्तक महोत्सव पुनः प्रारंभ किया जा रहा है. अब यह साप्ताहिक होगा और हर मंगलवार को ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश किये जायेंगे.
आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग हैं.



भोर से साँझ तक मेरे दिन रात में आपके चित्र लगते रहे हैं गले
मेरे हर इक कदम से जुड़े हैं हुए, आपकी याद के अनगिनत काफ़िले
आपसे दूर पल भर न बीता मेरा, मेरी धड़कन बँधी आपकी ताल से
आपकी सिर्फ़ परछाईं हूँ मीत मैं, सैकड़ों जन्म से हैं यही सिलसिले



गुलमोहर, मोतिया चंपा जूहीकली, कुछ पलाशों के थे, कुछ थे रितुराज के
कुछ कमल के थे,थे हरर्सिंगारों के कुछ,माँग लाया था कुछ रंग कचनार से
रंग धनक से लिये,रंग ऊषा के थे, साँझ की ओढ़नी से लिये थे सभी
रंग आये नहीं काम कुछ भी मेरे, पड़ गये फीके सब, सामने आपके



तुमको देखा तो ये चाँदनी ने कहा, रूप ऐसा तो देखा नहीं आज तक
बोली आवाज़ सुनकर के सरगम,कभी गुनगुनाई नहीं इस तरह आज तक
पाँव को चूमकर ये धरा ने कहा क्यों न ऐसे सुकोमल सुमन हो सके
केश देखे, घटा सावनी कह उठी, इस तरह वो न लहरा सकी आज तक



मुस्कुराईं जो तुम वाटिकायें खिलीं, अंश लेकर तुम्हारा बनी पूर्णिमा
तुमने पलकें उठा कर जो देखा जरा, संवरे सातों तभी झूम कर आसमां
प्यार करता हूँ तुमसे कि सिन्दूर से करती दुल्हन कोई ओ कलासाधिके
मेरा चेतन अचेतन हरैक सोच अब ओ सुनयने तुम्हारी ही धुन में रमा.



मेरे मानस की इन वीथियों में कई, चित्र हैं आपके जगमगाये हुए
ज़िन्दगी के हैं जीवंत पल ये सभी, कैनवस पर उतर कर जो आये हुए
चाय की प्यालियाँ, अलसी अँगड़ाईयाँ, ढ़ूँढ़ते शर्ट या टाँकते इक बटन
देखा बस के लिये भी खड़े आपको पर्स,खाने का डिब्बा उठाये हुए



* ** * * ** *


Wednesday, March 28, 2007

चलो घर परिवार की बातें करें

ये न समझें कि घबरा गये या मैदान छोड़ दिया. भाई साहब हमें आता है प्रदर्शन करना और वह हमारा चिट्ठा सिद्ध अधिकार है सो हमने किया. अब यह बात दूसरी है कि आप हमें उकसा रहे हैं कि हम फिर मुक्तकों के तीर चलायें. यों तो हमारा तरकस भरा हुआ है पर हम सारे बान एक साथ अब नहीं छोड़ेंगे. परम पूज्य प्रात:स्मरणीय, वन्दनीय , आदरणीय और श्रद्धेय श्री............जी के आदेशानुसार अब मुक्तकों की फ़ुहारें सप्ताह में एक ही दिन बरसेंगी. इसलिये अब शेष रह गईं है सीधी साधी घर परिवार की बातें

आओ बैठो यार बात कुछ हों घर की परिवार की
पूरी तनख्वाह खर्च हुई पर बाकी बचे उधार की

कोई अंतरिक्ष में उड़ना चाह रहा है उड़ जाये
कोई पथ में जबरन मुड़ना चाह रहा है, मुड़ जाये
कोई बाथरूम में गाना चाह रहा है, तो गाये
कोई लिखना चाह रहा है, लिखे, न समझे, समझाये

बंटी की चाची ने डाला बरनी भरे अचार की
आओ बैठो बात करेंगे, अब घर की परिवार की

किसका बेटा डायरेक्टर है, किसकी अटकी गाड़ी है
कौन तिकड़मी ? कौन कहाँ पर कितना बड़ा जुगाड़ी है
किसके घर स्काच बह रही, और कहां पर ताड़ी है
मंत्रालय का कौन सचिव है, कितना कौन अनाड़ी है

कुछ गंगा की, कुछ पंडों की, कुछ संगम , मंझधार की
आओ यारो बातें कर लें सच्ची अब घरबार की

चलें पान की दूकानों पर, चर्चा करें चुनावों की
गिरते हुए किसी के, कुछ के उलटे हुए नकाबों की
धुले पांव के लिये तरसती राजनीति की नावों की
कौन हवा के साथ बहे, किसके विपरीत, बहावों की

हासिल न हो कुछ तो क्या है ? करें जीत की हार की
आओ दो पल बातें कर लें अपने घर परिवार की

किसके बल्ले में कितना दम, कौन मारता चौका है
कौन दूसरों का दुख बाँटे, कौन तलाशे मौका है
कौन निकलता घर के बाहर, किसको किसने रोका है
और कहाँ किसकी बिल्ली पर किसका कुत्ता भौंका है

डाक्टर की हड़तालों की हों, लावारिस बीमार की
बातें करें आओ हम मिल कर कुछ तो अब संसार की

किसका भाई रिश्वत लेता, कौन गया अमरीका है
किसके जागे हुए भाग से टूटा कोई छींका है
कौन कहां पर बिल्कुल फूहड़, किसमें खूब सलीका है
किसके घर की मीठी नीमें, किसका शर्बत फ़ीका है

आया. आकर निकल गया जो बिना शोर, त्यौहार की
आओ भाई बात करें कुछ हम घर की परिवार की

छोड़ो यारो अगर समस्या, जिसे भुगतना भुगतेंगें
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा शोर शराबा कर लेंगें
दस बारह खबरें छप लेंगी, भाषण वाषण हो लेंगें
फिर किस्मत का खेल बता कर चुप्पी धर कर बैठेंगे

करें विरोधों की कुछ बातें, कुछ हों जयजयकार की
नारदजी की गुंजित वीणा के हर झंकॄत तार की

फ़ुरसतियाजी के जो पंद्रह गज लम्बे, पैगामों की
उड़नतश्तरी ने जो जीते, पिछले बरस, इनामों की
संजय,पंकज, तरकश पर जो खींच ला रहे नामों की
रवि रतलामी की लिनक्स पर जो गुजरी हैं शामों की

नाहरजी के चिट्ठाकारी से नित बढ़े दुलार की
जीतू भाई चलो आज कुछ बातें हों परिवार की

Tuesday, March 27, 2007

मुक्तक नहीं-- प्रश्न

कौन अनुभूतियों को दिये जा रहा शब्द, मेरे, अभी जान पाया नहीं
काव्य के शिल्प में रंग किसने भरा, ये अभी तक मैं पहचान पाया नहीं
भाव को छंद में बाँध किसने दिया, कौन होठों को देकर गया रागिनी
मेरे सुर में कोई और गाता रहा, ये सुनिश्चित है मैने तो गाया नहीं




Monday, March 26, 2007

खेद! महा खेद!! मुक्तक महोत्सव रुका!

कृप्या इस आलेख को पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें.

किन्हीं कारणों से पुराना लेख नारद से खुल नहीं रहा है.

खेद! महा खेद!! मुक्तक महोत्सव रुका!

बड़ी उम्मीदों, मंशाओ और हर्षोल्लास के साथ अभी परसों रात ही तो हमने 'मुक्तक महोत्सव' की घोषणा की थी. बहुत महेनत के साथ पिछले ६/७ माह में तैयारी की थी. हर रोज नित नियम के साथ ५ से ७ मुक्तक तैयार किये यानि कुल मिला कर लगभग १००० मुक्तक. दफ्तर जाने में नागा पड़ा, मगर मुक्तक लेखन में एक दिन भी नहीं. छोटी मोटी नुमाईश होती, तो भी चल जाता कि किसी दिन न भी लिखें मगर हम तो महोत्सव मनाने की तैयारी कर रहे थे-मुक्तक का महाकुँभ-मानो बारह वर्षों में एक बार होना है. बस एक उन्माद सा छाया था.

हाँ साहब, बिल्कुल महाकुँभ सा माहौल याद आ गया इलाहाबाद का. महिनों से हर तरफ कुँभ ही कुँभ. जहाँ नजर पड़े, बस कुँभ और उसकी तैयारी. सड़कें रोक दी गईं, घाट तक पहुँचने के मार्ग परिवर्तित कर दिये गये. हर तरफ विद्युत आपूर्ति में कटौती, ताकि घाट जगमगाता रहे, पूरा शासन तंत्र जूझ पड़ा. बाकि चीजों से मतलब नहीं, बस कुँभ. शहर में पानी की सप्लाई नियंत्रित कर दी गई, सब घाट की तरफ प्रवाहित कर दी गई. आम जनता के लिये, आम जनता की आस्था के लिये, आम जनता को परेशानी में डाल कर, वाह!! क्या पंडाल सजाये जाते हैं!! क्या घाट सजाये जाते हैं!! अब महोत्सव है तो यह सब तो होगा ही. सब को परेशानी भी होगी, मगर फिर भी उत्सव मनाया जायेगा.जनता के सामूहिक रिसोर्सेज यानि की संसाधनों, उनकी सुविधायें, उनके अधिकार सभी कुछ उनके लिये ही खटाई में पड़ जाते हैं मगर आस्था का प्रश्न है, जरुर मनाया जायेगा, मनाना भी चाहिये और हर बार पिछली बार से वृहद स्तर पर.


हर तरफ विद्युत आपूर्ति में कटौती, ताकि घाट जगमगाता रहे, पूरा शासन तंत्र जूझ पड़ा. बाकि चीजों से मतलब नहीं, बस कुँभ. शहर में पानी की सप्लाई नियंत्रित कर दी गई, सब घाट की तरफ प्रवाहित कर दी गई. आम जनता के लिये, आम जनता की आस्था के लिये, आम जनता को परेशानी में डाल कर, वाह!! क्या पंडाल सजाये जाते हैं!! क्या घाट सजाये जाते हैं!! अब महोत्सव है तो यह सब तो होगा ही. सब को परेशानी भी होगी, मगर फिर भी उत्सव मनाया जायेगा.


इसी तरह हमने भी बड़े अरमानों के साथ मुक्तक महोत्सव की तैयारी की और शुरु हो गये परसों से मनाना. जनता की फरमाईशा पर इसका आयोजन किया गया. वही चिट्ठाकार जो लिखते हैं, नारद से होते हुये हम उन तक पहुँचते हैं और पढ़ते हैं. जवाब में वो भी नारद के मार्ग से होते हुये हम तक पहुँचते हैं और पढ़ते हैं. हौसला बढ़ाते हैं, फरमाईशें करते हैं. उसी फरमाईश के चलते इस महोत्सव का आयोजन किया गया.

अभी एक पूरा दिन भी नहीं बीता था कि कनाडा से उड़न तश्तरी घरघराती हुई हमारी छत पर उतरी और कहने लगी, अरे भाई साहब, यह क्या गजब कर रहे हैं? नारद की सामूहिक भूमि पर आप तो पूरा अधिग्रहण कर बैठ गये और पता चला है ऐसा कई माह तक चलेगा. बाकी के लोगों का क्या होगा? वो कहाँ जायें? वो आते हैं और बस आप धकिया दे रहे हैं, यह कैसा उत्सव?

हमने कहा कि "सुनो भई, उत्सव में तो ऐसा ही होता है और उस पर से, यह तो महोत्सव है. जनता की आस्था है और उनकी फरमाईश है, तो तकलीफ तो उठानी पड़ेगी. उनकी तो आदत है, वो तो गैर फरमाईशी में भी रोज उठा ही रहे हैं तो हम तो फरमाईशी महोत्सव मना रहे हैं, इसमें आपको क्या परेशानी है? हद करते हो आप भी. क्या मन का लिख भी नहीं सकते. काहे नियंत्रण की बेड़ियां पहना रहे हो. जितनी बार लिखेंगे, उतनी बार ही तो छपेंगे न!! आप भी लिखो."


एक ही बात सुनी पोस्ट दर पोस्ट दिन भर
हमने कुछ मुक्तक सुनाये तो बुरा मान गये...


ऊड़न तश्तरी सकपका गई. हम समझ गये कि वो नारद की तरफ से आई थी हमें रोकने. जब हमने पूछा तो उगल भी दिये कि "हाँ, नारद से बात तो हुई है आज दिन में." फिर हमने देखा कि नारद के कर्ताधर्ता जीतू भाई भी दिन में आकर अपनी राय जाहिर कर गये हैं.उनकी राय भी काबिले गौर थी.



बाकी सब तो ठीक है, लेकिन ये बताया जाए, कि सारे मुक्तक एक ही दिन काहे पब्लिश के जा रहे हो। अमां यार! एक दिन मे एक करो, दो करो, इत्ते करोगे तो लोग बवाल कर देंगे। कंही ऐसा ही ना हो कि लोग मुक्तक का नाम सुनते ही भाग खड़ें हो।
हम इत्ती मुश्किल से लोगों को पकड़ पकड़ तक नारद पर ले आएं, और भगाएं, ऐसा जुल्म ना करो माईबाप।



उड़न तश्तरी तो घरघरा कर लौट गई और न जाने उस घरघारहट के साथ कितने प्रश्न छोड़ गई. हम आत्म मंथन और चिंतन में लीन हो गये.

लगने लगा कि यह उचित नहीं. नारद एक सामूहिक संसाधन है. एक सार्वजनिक मंच है. सबका इस पर बराबरी का अधिकार है. इसका दुरुपयोग सिर्फ़ अपनी महत्ता जाहिर करने के लिये उचित नहीं है. भले ही कुछ लोग इस बात को समझने से इंकार करें मगर सभी को बराबरी से नारद के प्रथम पृष्ठ पर कुछ समय तक बने रहने का अधिकार है ताकि पाठक उन तक पहुँच सकें और उनकी पोस्ट के विषय में जान सकें. अगर एक ही व्यक्ति अपनी ढ़ेरों पोस्ट एक के बाद एक करता चला जायेगा तो अन्य लोगों को तो मौका ही नहीं मिलेगा, थोड़ी देर के लिये भी नहीं कि वो प्रथम पृष्ठ पर रह पाये. हालांकि नारद ने प्रथम पन्ने पर पोस्टों की संख्या काफी बढ़ा दी है मगर फिर भी एक संख्या तो है ही.


नारद एक सामूहिक संसाधन है. एक सार्वजनिक मंच है. सबका इस पर बराबरी का अधिकार है. इसका दुरुपयोग सिर्फ़ अपनी महत्ता जाहिर करने के लिये उचित नहीं है. भले ही कुछ लोग इस बात को समझने से इंकार करें मगर सभी को बराबरी से नारद के प्रथम पृष्ठ पर कुछ समय तक बने रहने का अधिकार है ताकि पाठक उन तक पहुँच सकें और उनकी पोस्ट के विषय में जान सकें. अगर एक ही व्यक्ति अपनी ढ़ेरों पोस्ट एक के बाद एक करता चला जायेगा तो अन्य लोगों को तो मौका ही नहीं मिलेगा, थोड़ी देर के लिये भी नहीं कि वो प्रथम पृष्ठ पर रह पाये.



इन्हीं सब बातों पर चिंतन करते हुये हम ने निर्णय लिया कि यह महोत्सव, जो कि पाठकों की फरमाईश पर मनाया जा रहा था, उसका स्वरुप उन्हीं पाठकों की सहूलियत और संसाधनों की सीमितता को देखते हुये बदल दिया जाये ताकि सभी को नारद के इस्तेमाल का बराबरी का मौका मिले. अब नये स्वरुप में यह महोत्सव जल्द ही फिर आयेगा आपके सामने. तब तक के लिये इंतजार करिये.

Saturday, March 24, 2007

मुक्तक महोत्सव-१७

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



जाते जाते ठिठक कर मुड़े आप औ' देखा कनखी से मुझको लजाते हुए
दाँत से होंठ अपना दबा आपने कहना चाहा था कुछ बुदबुदाते हुए
वक्त का वह निमिष कैद मैने किया स्वर्ण कर अपनी यादों के इतिहास में
अब बिताता हूँ दिन रात अपने सदा, आपके शब्द सरगम में गाते हुए

मुक्तक महोत्सव-१६

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आप मुस्काये ऐसा लगा चाँद से है बरसने लगी मोतियों की लड़ी
सामने आके दर्पण के जलने लगी, जैसे दीपवली की कोई फुलझड़ी
हीरकनियों से छलकी हुई दोपहर,,नौन की वादियों में थिरकने लगी
रोशनी की किरण इक लजाती हुई, जैसे बिल्लौर की पालकी हो चढ़ी

मुक्तक महोत्सव-१५

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आपने इस नजर से निहारा मुझे, बज उठीं हैं शिराओं में शहनाईयाँ
अल्पनाओं के जेवर पहनने लगीं, गुनगुनाते हुए मेरी अँगनाइयाँ
आपकी चूनरी का सिरा चूम कर पतझड़ी शाख पर फूल खिलने लगे
बन अजन्ता की मूरत सँवरने लगीं भित्तिचित्रों में अब मेरी तन्हाइयाँ

मुक्तक महोत्सव-१४

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



भोर की पालकी बैठ कर जिस तरह, इक सुनहरी किरण पूर्व में आ गई
सुन के आवाज़ इक मोर की पेड़ से, श्यामवर्णी घटा नभ में लहरा गई
जिस तरह सुरमई ओढ़नी ओढ़ कर साँझ आई प्रतीची की देहरी सजी,
चाँदनी रात को पाँव में बाँध कर, याद तेरी मुझे आज फिर आ गई

मुक्तक महोत्सव-१३

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आपने इस नजर से निहारा मुझे, बज उठीं हैं शिराओं में शहनाईयाँ
अल्पनाओं के जेवर पहनने लगीं, गुनगुनाते हुए मेरी अँगनाइयाँ
आपकी चूनरी का सिरा चूम कर पतझड़ी शाख पर फूल खिलने लगे
बन अजन्ता की मूरत सँवरने लगीं भित्तिचित्रों में अब मेरी तन्हाइयाँ

मुक्तक महोत्सव-१२

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



कसमसाती हुई मन की वीरानगी ढूँढ़ती भीड़ में कोई तन्हा मिले
वादियों में गुलाबों की महकी हुई, चाहती है कोई कैक्टस भी खिले
राग,खुशबू,बहारें,मिलन,प्रेम अब दिल को बहला नहीं पा रहे इसलिये
एक इच्छा यही बलवती हो रही, अब जुड़ें दर्द के कुछ नये सिलसिले

मुक्तक महोत्सव-११

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



कामना लेके अँगड़ाई कहती रही, चूम लूँ आपकी चंद अँगड़ाइयाँ
स्वप्न्म के चित्र बनते रहे कैनवस पर सजाते रहे मेरी तन्हाइयाँ
अपने भुजपाश में आपको बाँधकर, कल्पना चढ़ के स्यन्दन विचरती रही
और छाने लगीं मन के आकाश पर, संदली देह-यष्टि की परछाइयाँ

मुक्तक महोत्सव-१०

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आप आये तो पग चूम कर राह की धूल, सिन्दूर बन मुस्कुराने लगी
मावसी थे डगर, कुछ हुआ यूँ असर, बन के दीपावली जगमगाने लगी
आपके केश छू मरुथली इक पवन, संदली गंध लेकर बहकने लगी
आप आये तो आँगन की सरगोशियाँ, बन के कोयल गज़ल गुनगुनाने लगीं

मुक्तक महोत्सव-९

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आप आये नहीं, पथ प्रतीक्षित रहे, वर्ष मौसम बने आते जाते रहे
हम नयन में मिलन के सपन आँज कर रात की सेज पर कसमसाते रहे
राग भी हैं वही, तान भी है वही, बाँसुरी के मगर सुर बदलने लगे
सीप था मन बना, स्वाति के मेघ पर इस गगन से नजर को बचाते रहे

मुक्तक महोत्सव-आभार

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

उड़न तश्तरी और अन्य पाठकों की प्रतिक्रिया पर मुक्तक महोत्सव-८ से मुक्तक का फोंट साईज तो नही बढ़ा पाये मगर बाकि घटा दिया गया है, आशा है अब ठीक लग रहा होगा अगर कोई और सुझाव हो, तो बेझिझक बतायें. आप सबके सहयोग से ही यह महोत्सव सफल हो पायेगा. बहुत आभार.

मुक्तक महोत्सव-८

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.


प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आपके ले के संदेश छत पर मेरी, कुछ पखेरू सुबह शाम आते रहे
साज सब आपकी तान को थाम कर, एक ही राग को गुनगुनाते रहे
द्वैत- अद्वैत, चेतन- अचेतन सभी आपकी द्रष्टि से बिंध बंधे रह गये
आपके ख्याल दीपक दिवाली के बन, मन की मावस को पूनम बनाते रहे.


मुक्तक महोत्सव-निवेदन

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

इस महोत्सव को सफल बनाने के लिये कृप्या अपने विचारों से मुझे जरुर अवगत करायें. आपकी सलाह और मार्ग-दर्शन ही इसकी सफलता का मार्ग तय करेगा. आप सबके सहयोग का आकांक्षी.

मुक्तक महोत्सव-७

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आपके पाँव को चूमने के लिये, राह पथ में नजरिया बिछायी रही
बाँसुरी आपके होंठ को चूमने , कुंज में रास पल पल रचाती रही
लहरें देते हुए दस्तकें थक गईं, आप आये न यमुना के तट पर कभी
और सूनी प्रतीक्षा खडी साँझ में, एक दीपक को रह रह जलाती रही.

मुक्तक महोत्सव-६

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



खनकती पायलों की ताल की सौगन्ध है तुमसे
स्वरों की लहरियों के राग का अनुबन्ध है तुमसे
तुम्हारे ध्यान में डूबा हुआ हूँ इस कदर प्रियतम
मेरे पिछले जनम का भी कोई सम्बन्ध है तुमसे

मुक्तक महोत्सव-५

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



उम्र सारी है बीती, लगा, आज तक बस हथेली पे सरसों जमाते हुए
हम निराशा की चादर लपेटे रहे दस्तकें खंडहर पर लगाते हुए
हमने राहें भी वे ही सजाईं सदा जो न जाती, न आती कहीं से यहाँ
गुत्थियों में नक्षत्रों की उलझे रहे कुंडली पंडितों को दिखाते हुए

मुक्तक महोत्सव-४

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



चित्र आँखों में मेरी बनाते रहे याद के प्रष्ठ कुछ फ़डफ़शाते हुए
रंग ऊदे, हरे,जामनी कत्थई भित्तिचित्रों से मन को सजाते हुए
मेरी पलकों के कोरों पे अटका हुअ चित्र है एक उस साँझ का प्रियतमे
दोनों हाथॊं में पानी लिये अर्घ्य का चौथ के चन्द्रमा पर चढाते हुए

मुक्तक महोत्सव-३

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आपके ख्याल हर पल मेरे साथ थे सोच में मेरी गहरे समाये हुए
मेरी नजरों में जो थे सँवरते रहे चित्र थे आपके वे बनाये हुए
साँझ शनिवार,श्रन्गार की मेज पर भोर रविवार को लेते अँगडाइयाँ
औ' बनाते रसोई मे खाना कभी अपना आँचल कमर में लगाये हुए

मुक्तक महोत्सव-२

मित्रों,
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प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



मुस्कुराने लगीं रश्मियाँ भोर की क्षण दुपहरी के श्रन्गार करने लगे
झूमने लग पडीं जूही चंपाकली रंगमय गुलमोहर हो दहकने लगे
यूँ लगा फिर बसन्ती नहारें हुईं इन्द्रधनुषी हुईं सारी अँगनाईयाँ
रंग हाथों की मेंहदी के, जब आपके द्वार की अल्पनाओं में उतरने लगे

मुक्तक महोत्सव-१

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.


प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.




प्रीत मेरी शिराओं में बहती रही शिंजिनी की तरह झनझनाये हुए
छेड़ता मैं रहा नित नई रागिनी बाँसुरी को अधर पर लगाये हुए
कल्पना की लिये तूलिका आज तक एक ही चित्र में रंग भरता रहा
मैने देखा तुम्हें लेते अंगड़ाईयाँ दूधिया चांदनी में नहाये हुए

Friday, March 23, 2007

गलती हमारी नहीं- ये तो होना ही था

हमारी कोई गलती नहीं है. यह तो आखिर होना ही था. बकरे की माँ कब तक खैर मनाती. जिधर देखो उधर से जब कविताओं के दनादन प्रहार शुरू हो गये; यहाँ तक कि चिट्ठा चर्चा में भाई समीर जी की कुंडलियां , रवि रतलामीजी के व्यंजल, फ़ुरसतियाजी की पसन्द के गीत और रचनाओं के साथ साथ राके्शजी की कवितामय चर्चा और भाई गिरिराज जो अपने नाम के साथ ही कविता की याद दिलाते हैं; तो असर होना स्वाभाविक ही था.

बात अगर यहीं तक सीमित रहती तो शायद बच कर निकल जाना संभव भी हो सकता था. मगर नारद पर जिस दिन देखो उसी दिन कविता की हवा गुलाब की खुशबू से लेकर चन्दन गंधों में लिपटी हुई मह्कती मिले और बेजी, मान्या, मोहिन्दर कुमार, घुघूती बासूती, रंजू ,प्रत्यक्षा,राकेश खंडेलवाल और भावना कुंअर की पोस्टें आमंत्रित करें- आओ और कविता पढ़ो, तो भाई पढ़नी ही पड़ती है. कितने दिन तक माऊस की क्लिक को बचा पाते इनसे.

कहते हैं खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है. रहीम दास भी तो कह गये थे

" जैसी संगत बैठिये तैसो ही फल दीन "

अब जो कुछ नीचे लिखा है --वह हम अन्तर्जाल के मठाधिपति को हाजिर नाजिर मान कर, अंजुरि में एच टी एम एल के कोड ( अक्षत नहीं मिले ) लेकर और सामने ई-पंडित जी को आसीन करके कह रहे हैं,- हमारा लिखा नहीं है. चैट पर आदरणीय जीतू भाई साहब ने जैसा हमसे कहा वह हम ज्यों का त्यों आपके सामने रख रहे हैं :-

तो भाइ ऐसा हुआ कि कल जब प्रोग्रामिन्ग करने को कुंजी पटल को खटखटाना शुरू किया तो खुद ब खुद कविता बनती चली गई. साहित्य वाहित्य तो हमने पढ़ा नहीं. हमें तो बस सीधी साधी कम्प्यूटर की भाषा आती है तो वही भाषा कम्प्यूटर से निकल कर आई सामने.

मेरी कविता

ओ सुमंगले, कमल लोचने, ओ विनोदिनी, ओ सुहासिनी
तुमसे दूर, ह्रैदय के मेरे कम्प्यूटर की मौन रागिनी

बार बार पिंगिंग कर करके मैं तुमको आवाज़ लगाता
कभी आल्ट का, कभी एन्टर, कभी होम स्ट्रोक लगाता
हार्ड डिस्क के हर पार्टीशन में है नाम तुम्हारा प्रियतम
विन्डो का मीडिया प्लेयर, गीत तुम्हारे ही बस गाता

सिस्टम होता है रिस्टोरित, सिर्फ़ तुम्ही पर मधुभाषिणी
तुमसे दूर ह्रदय के मेरे कम्प्यूटर की मौन रागिनी


बेसिक में कोबोल में लिखे, फ़ोर्ट्रान में भी सन्देशे
पीडीएफ़ के फ़ार्मेट में बदल बदल कर तुमको भेजे
डेटाबेस समूचा मेरे दिल का तुमसे भरा हुआ है
साथ तुम्हारे बीते सब पल एक्सेल में हैं सजा सहेजे

गूगल का भी सर्च एंजिन तुम पर अटका हुआ मानिनी
तुमसे दूर ह्रदय के मेरे कम्प्यूटर की मौन रागिनी


मेमोरी अपग्रेड करी है जितनी, चित्र बने हैं उतने
हैक किये जाते हैं आकर ख्याल तुम्हारे, मेरे सपने
कितनी भी डीबगिंग करूँ मैं, बार बार यह क्रैश हो रहा
आईबीएम का प्लेटफ़ार्म ये, मैक लगा है मुझको दिखने

कुछ तो अब इलाज बतलाऒ, मेरी फ़ायरफ़ाक्स वाहिनी
तुमसे दूर ह्रदय के मेरे कम्प्यूटर की मौन रागिनी


डायलाग के बाक्स कभी जो मेरा प्रोसेसर दिखलाता
उसमें से भी उभर उभर कर अक्स तुम्हारा आगे आता
याहू कहता, गाऊं याहू जंगली बना तुम्हारी खातिर
अगर न होता नाम तुम्हारा, सर्वर हर फ़ाईल लौटाता

पेंटशाप में दिखता केवल रंग तुम्हारा एक चाँदनी
तुमसे दूर ह्रदय के मेरे कम्प्यूटर की मौन रागिनी.


शार्प-प्रोग्रामिंग-सी, वाली भाषा भी कुछ काम न आई
विस्टा भी मेरी करता है बिना तुम्हारे अब रुसवाई
एसक्यूएल का बेस दगा दे, रुका लिन्क्सिस वाला राऊटर
लेक्समार्क का प्रिन्टर कहता खत्म हो चुकी उसकी स्याही

मेरा मल्टी जोकि मीडिया, तुम उसकी हो चुकी स्वामिनी
तुमसे दूर ह्रदय के मेरे कम्प्यूटर की मौन रागिनी

काम नहीं आते हैं अब कुछ, लेख लिखे जाते ई-स्वामी
सर के ऊपर से उड़ जाता, जो बतलाते रवि रतलामी
पांडे्यजी, नाहरजी, अपने उड़नतश्तरी वाले गुरुवर
फ़ुरसतियाजी औ’ प्रतीक जी को बातें पड़ती समझानी

कोई जतन करो साईबर की गर्द न मुझको पड़े छाननी
तुमसे दूर ह्रदय के मेरे कम्प्यूटर की मौन रागिनी.



इति श्री कम्प्यूटर भाषाये कवितापाठे सर्व अध्याय: !!!!

Tuesday, March 20, 2007

चुप न रहो- कुछ तो बोलो

अभी अभी आराम के मूड में बैठने का प्रयास किया ही था कि फोने की घंटी ने उठने को मज़बूर कर दिया. ब्लागर भाई साहब का फोने था. हमारे हलो कहते ही दनदना दिये


" मियां गीतकार ! ये क्या कर रहे हो " ?


"क्या" हम असमंजस में पड़ कर पूछ बैठे.


" ये तुम्हें समीक्षा वमीक्षा का भूत कैसे सवार हो गया ? सुनो ये सब टंटे छोड़ो और अपना काम करो ".


कौन सा काम ? हमने पूछा.

वे बोले, भई तुम तो बस हमारी व्यथा सबके सामने पहुंचा दिया करो. वैसे तो हम भी ब्लाग लिखते हैं परन्तु समस्या ये है कि हमारे ब्लाग को हमारे मित्रों के अलावा कोई नहीं पढ़ता और अगर हम अपनी आप बीती लिखदेंगे तो हमारी बीवी तक बात पहुँच जायेगी और फिर हमारी खैर नहीं.


ऐसी क्या बात हो गई भाईजी. आखिर भाभीजी से इतना डर किसलिये ?


तो भाई लोगो, भाई साहब ने अपना किस्सा सुना कर हमसे अनुरोध किया कि हम उसे गीत में ढाल कर आप सब तक पहुँचायें . क्योंकि हमारी हिम्मत भाई साहब का कहा टालने की हो ही नहीं सकती तो उनका दुखड़ा आपके सामने प्रस्तुत है.


हम मानते हैं कि आप में से कई भाई लोगों को यह अपनी आप बीती लग सकती है. इस विषय में हम साफ़ लिख रहे हैं कि भाई साहब ! हमारी मंशा आपकी बात लिखने की नहीं है सिर्फ़ भाई साहब की बात लिख रहे हैं. समझ गये न भाई साहब.


तुम तो सोते रहे रात भर नींद चैन की, ले खर्राटे
रही अनिद्रा प्रश्न उठाती, ये भी तुमने क्यों न बाँटे

सप्त पदी की लगा दुहाई, तुमने हर अधिकार जताया
तुमको जो कुछ लगा हाथ में, सारा ही तुमने हथियाया
पाँच किलो रबड़ी खाने का जब जब मुझको मिला निमंत्रण
आधी घर पर लानी होगी, वरना ! कह कह कर धमकाया

सारे फूल ले गईं चुन कर, छोड़े हैं मुझको बस काँटे
ये बतलाओ आधे आधे, ये सब क्यों न मुझसे बाँटे

मैं ग्वाला मथुरा का वासी, कॄष्ण कन्हैया का आराधक
माखन मिश्री के मेरे भोगों में तुम बनती हो बाधक
सवामनी के जिजमानों ने भिजवाये जो भरे टोकरे
सब के सब डकार डाले हैं चुटकी भर भी लिया न पाचक

मैं कुछ कहता हूँ तो कहती, पड़े अकल पर मेरी भाटे
ये बतलाओ आधे आधे तुमने मुझसे क्यों न बाँटे

कितने दिन तक और सहूँ मैं , कहो तुम्हारी तानाशाही
बीत चुके दस बरस, और तुम अब भी करती हो मनचाही
रसगुल्ले, चमचम, काजू की बरफ़ी सब ही छीन चुकी हो
कम से कम अब एक छोड़ दो मेरी खातिर बालूशाही

एक बार का सौदा करके, रोज उठाता हूँ मैं घाटे
ये बतलाओ आधे आधे, तुमने मुझसे क्यों न बाँटे



Monday, March 19, 2007

आचार संहिता गई तेल लेने ( अचार डालेंगे न )

चिट्ठों की आचार संहिता पढ़ कर सोच रहे थे कि क्या किया जाये. लिखने के लिये शब्द कौन से शब्द कोष से ढूँढ़े जायें. चाचा चिरकिन का दीवान तो मिल नहीं पाया जिसे उद्दॄत कर के छुटकारा मिल जाता.
अब खैर लिखना तो है ही. चिट्ठों के स्वरूप के बारे में भैया चौधरी, रतलामी, समीरानंद जी, बेंगाणी, फ़ुरसतियाजी , नाहरजी आदि ट्रैफ़िक पुलिस बाले सिपाही की तरह हाथ में रुकिये का पट्टा लेकर खड़े हैं और चिट्ठाकारों का ट्रैफ़िक ऐसे चल रहा है : -






अब जो जैसे चल रहा है चलने दें. हम अपनी बात पर आते हैं

पिछले दिनों एक महानुभाव को शिकायत थी कि चिट्ठों की चर्चा के साथ समीक्षा भी होनी चाहिये. अब गुरुजन तो शालीनता का सहारा लेकर खिसक लिये तो यह बीड़ा हम उठाये लेते हैं. सबसे पहले अभी दो तीन दिन् पहले की पोस्ट एक कविता में

छिपकलियां नहीं सरक रही थीं

अब अगर सपनों की छिपकलियां नहीं सरकेंगी तो क्या भुजपाशों के विषधर आपको आलिंगन में लेकर बिच्छू डंकों से चुम्बन प्रदान नहीं करेंगे. भईय़ॆ माना कि पारस्परिक प्रशंसा समिति ( Mutual Admiration Society ) के सदस्य आपकी वाह वाह करने से बाज नहीं आयेंगे पर इसका मतलब यह तो नहीं कि घास छीलने की खुरपी से गुलाब की पंखुरियों को संवारने का प्रयास किया जाये.

अभी हाल में किया गया एक विज्ञापन कि " मुझे गज़ल भी लिखना आता है " में ज़िक्र है कि तथाकथित शायर गज़लें भी लिखते हैं. यह और बात है जो कुछ लिखा गया है उसका गज़ल से बीस किलोमीटर दूर का भी रिश्ता नहीं है. शायद भाई साहब ने कहीं सुन लिया होगी कि दो लाइन में जोड़ तोड़ कर लिख दो, सब उसे गज़ल मान लेंगे. और अगर बाकी के न मानें तो युम्हारे बीस पच्चीस साथी हां में हां तो मिला ही देंगें.

एक और रचना प्रस्तुत हुई है. ईमानदारी की बात है लेखक ने पहले ही चेता दिया- क्या करूँ मुझे लिखना नहीं आता ( तो भाई साहब लिखना सीख लो न- मना किसने किया है ) और सच्ची बात यह कि उन्होने दावा तो नहीं किया कि वे सर्वज्ञ हैं ( अक्षरग्राम वाले नहीं ) और वे गज़ल लिख रहे हैं
अब यह दूसरी बात है कि उन्होने लिखा कि वे जो सबसे शर्माते हैं किसी को नहीं देखते और फिर भी अरमान लिये बैठे हैं कि वे उनसे नजरें मिलायेंगे. ( अजी हुज़ूर. दिन में तारे देखने की कोशिश बेकार होती है )

आप समझ रहे हैं न , हम क्या कह रहे हैं-- क्या कहा ! समझ नहीं आया तो भाई साहब हम क्या करें समीक्षा तो ऐसे ही होती है

एक साहब ने राग अलापा- मैं आपके लिये नहीं लिखता. अब भाई अगर आप हमारे लिये नहीं लिख रहे हो तो नारद पर क्या कर रहे हो ? और अगर नारद पर यह विज्ञापित करना भर है कि आप को लिखने का शौक है तो हमने मान लिया. अब आप जाईये और जब हमारे लिये लिखें तब वापिस तशरीफ़ लाईये.

चलिये हमारी कोशिश हो गई समीक्षा के तलबगार भाई साहब की शिकायत दूर कर दी है. आपको या चाहे जिसको नागवार गुजरे तो गुजरे. ज्यादा गुस्सा हों तो भाई पड़ौसी के खेत में जाकर दो भुट्टे और उखाड़ लेना.

Friday, March 16, 2007

बिना बात की बात

अब ऐसा हुआ कि हम अपना ई मेल का बक्सा खोल कर बैठे हुए थे जो कि एकदम खाली था. अब ऐसा पहली बार तो हुआ नहीं था. सप्ताह में छह दिन हमें अपने ई एल के खाते में कुछ भी नजर नहीं आता था और सातवें दिन कभी भूले भटके जो नजर आता था वह थोक के भाव वाला सन्देशा ही हुआ करता था. समस्या हमने चाचा चौधरी जैसे एक बड़े दिग्गज तकनीकी संगणक विशेषज्ञ को बुला कर बताई तब यह नतीजा सामने आया


अब इसका इलाज कोई सीधे साधे सूझा नहीं तो हमने चिन्तन और मनन शुरू कर दिया. तब उत्तर की ओर से एक उड़ती हुई हवा ने हमें इशारा दिया और हमने एक ही दिन में पन्द्रह चिट्ठों की शुरुआत कर दी. अब क्योंकि हमें अपने आप को व्यस्त तो रखना ही था ( आफ़िस में भी हम काम थोड़े ही न करते हैं ) तो कुछ न कुछ लिख कर छापना शुरू कर दिया

अब बात साफ़ है. आपको समझाने की जरूरत तो है नहीं, आप खुद ही समझ गये होंगे कि हम एक दिन में कैसे दस दस पोस्ट लिख डालते हैं.

आजकल हमने एक नया बीड़ा उठाया है. लोग हमारे चित्ठे को उद्धॄत नहीं करते ( क्योंकि हम सर्वश्रेष्ठ चिट्ठाकार और साहित्यकार हैं - जो कि लोग समझ नहीं पा रहे ) तो हमने शिकायत भी लिखना शुरू कर दिया है. पहले तो हम विरोध करने वाले थे मगर इस मामले में कोई और ही बाजी मार ले गया तो अब शिकायत के अलावा कोई चारा नहीं है

आज कल हम अपने चिट्ठों के लिये नाम तलाशने की जुगाड़ में हैं. गली मोहल्ला, चौपाल, चौराहा आदि आदि हथियाये जा चुके हैं. हम कुछ अलग हट कर नामों की खोज में हैं. अब इतने अलग भी नहीं कि जमीन ही छोड़ दें. वैसे हमने अपने तीन चिट्ठों के नाम तो निर्धारित कर ही लिये हैं
१. कोई नहीं सुनता
२. कोई नहीं पढ़ता
३. कोई नहीं समझता

हाँ समझने की बात पर ध्यान आया कि एक शिकायत कविताओं के न समझने की भी थी, है और शायद आगे भी रहेगी. जी हां कुछ कविताओं में समझने के लिये ही कुछ नहीं होता

इस दौर के सदके क्या कहिये खोटा भी खरा हो जाता है
जिस ठूंठ को तुम छू देते हो, वो ठूंठ हरा हो जाता है.



भाई साहब तलाश करते रहिये इसमेम कविता और कोशिश करते रहिये समझने की

खैर छोड़ते हैं अब खुमारी उतरने लगी है तो कुछ और बात करते हैं

फिर से शोर मचा है नारेबाजी गली मोहल्लों में
फिर चुनाव आये हैं हलचल होने लगी निठल्लों में

फिर है नीलामी कुर्सी की लोकतंत्र की कीमत पर
दाम लगाते आगे बढ़ कर होड़ लगी है दल्लों में

भगवा हरा और केसरिया सबके खुले अखाड़े हैं
द्वंद युद्ध की है तैयारी राजनीति के मल्लों में

सत्य अहिंसा, ईमानों के शब्दों की भरमार बहुत
तुलते लेकिन इक खंजर पर सभी तुला के पल्लों में

ढूँढ़ रहे हो गाँधी जैसा ? आज यहां पर प्रत्याशी
तेल नहीम मिलता है प्यारे, निचुड़ चुकी जो खल्लों में

Friday, March 9, 2007

आपके चित्र- मेरी नजर

महिला दिवस आया और ढेरों बधाईयाँ हवा में उड़ीं. क्या त्रासदी है कि वर्ष के केवल एक दिन ही महिलाओं को याद किया जाता है जबकि एक पल भी महिलाओं के किसी न किसी रूप के बिना असम्भव है. देर से ही सही , अपनी नजर से देखे हुए चित्र:-

मेरे मानस की इन वीथियों में कई, चित्र हैं आपके जगमगाये हुए
ज़िन्दगी के हैं जीवंत पल ये सभी, कैनवस पर उतर कर जो आये हुए
चाय की प्यालियाँ, अलसी अँगड़ाईयाँ, ढ़ूँढ़ते शर्ट या टाँकते इक बटन
मैने बस की कतारों में देखा तुम्हें, पर्स,खाने का डिब्बा उठाये हुए
-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-

गुलमोहर, मोतिया चंपा जूहीकली, कुछ पलाशों के थे, कुछ थे रितुराज के
कुछ कमल के थे,थे हरर्सिंगारों के कुछ,माँग लाया था कुछ रंग कचनार से
रंग धनक से लिये,रंग ऊषा के थे, साँझ की ओढ़नी से लिये थे सभी
रंग आये नहीं काम कुछ भी मेरे, पड़ गये फीके सब, सामने आपके
-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-

मुस्कुराने लगीं रश्मियाँ भोर की
-रंग हाथों की मेंहदी के, जब आपके
द्वार की अल्पनाओं में उतरने लगे
-- -

क्षण दुपहरी के श्रन्गार करने लगे
झूमने लग पडीं जूही चंपाकली
रंगमय गुलमोहर हो दहकने लगे
यूँ लगा फिर बसन्ती नहारें हुईं
इन्द्रधनुषी हुईं सारी अँगनाईयाँ
रंग हाथों की मेंहदी के, जब आपके
द्वार की अल्पनाओं में उतरने लगे
---***************************-----
आपके ख्याल हर पल मेरे साथ थे
सोच में मेरी गहरे समाये हुए
मेरी नजरों में जो थे सँवरते रहे
चित्र थे आपके वे बनाये हुए
साँझ शनिवार,श्रन्गार की मेज पर
-औ' बनाते रसोई मे खाना कभी
अपना आँचल कमर में लगाये हुए--

भोर रविवार को लेते अँगडाइयाँ
औ' बनाते रसोई मे खाना कभी
अपना आँचल कमर में लगाये हुए

Wednesday, March 7, 2007

वे हमें आजमाने लगे


पता नहीं इस बार होली के रंगों में क्या मिला था, या शायद यह होली की स्पेश ठंडाई का असर है कि वाद-विवाद की जोग लिखी पत्री गली मोहल्ले में घूमती रही. अब क्योंकि हर सिक्के और तस्वीर के दो पहलू होते हैं तो हर बात का समर्थन और विरोध होना उतना ही अपेक्षित है जितना कि दिन रात का होना. जहाम तक साहित्य की बात है, जब वह धर्म और राजनीति की चर्चा पर आ जाता है तो विवादास्पद हो ही जाता है. विबाद इस पर भी उठता है कि वह साहित्य है या नहीं . चलें हम इस विवाद में नही पड़ते. आप कहो अपनी और हम कहें अपनी

होंठ खुलते ही वे चुप कराने लगे
यों हमें इस तरह आजमाने लगे

बात हमने जो दो पंक्तियों में कही
आपको उसमें शायद ज़माने लगे

हमने हाथॊं में अपने लिया आईना
आप नजरें हमीं से चुराने लगे

हमने तलवार की ओर देखा ही था
आप कैसे कबूतर उड़ाने लगे

राजपथ पर रखोगे कदम किस तरह
देख रफ़्तार ही लड़खड़ाने लगे

हमने सोचा कि मौसम बदल जायेगा
इसलिये आज गज़लें सुनाने लगे

Thursday, March 1, 2007

ये न थी हमारी किस्मत( होली )

लो कर लो बात.

प्रश्नोत्तरी की गति धीमी पड़ गई है और कल परसों तक यह गाड़ी मालगोदाम के शंटिंग यार्ड में चली जायेगी. बड़े से बड़े धुरंधरों से लेकर नये शहसवार भी इस गाड़ी मेम सवार हो गये और अपना अपना विज्ञापन जोर शोर से बस एक बार करके बैठ गये. इधर हम आस लगाये बैठे थे कि कोई हमसे भी पूछे. प्रत्यक्षा ने स्म्केत भी दिया कि मछलियाम तल कर समीर भाई हमारी ओर निगाहें उठाने वाले हैं पर भाई

ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले प्रश्न होता

जब हमन यह शिकायत की तो उधर से फ़ौरन जवाब आया कि उड़न तश्तरी तो आजकल ओवरहालिंग के लिये गई हुई है लिहाजा आप वायुयान में चढ़ कर टोरांटो आ जायें तभी सारी बातें होंगीं.

अब क्योंकि शायद वे भूल गये कि TSA ( Transport Security Administration ) ने क्या क्या प्रतिबन्ध लगा दिये हैं यात्रा पर, इसलिये याद दिला रहा हूँ

आपके नगर आऊं यान पर चढ़ कर
बता रहा बचा नहीं और अब दम है

शेविंग किट छीनी गई और फिर कहा गया कि पानी वाली बोतल मे छुपा हुआ बम है

शेविंग किट छीनी गई और फिर कहा गया कि
पानी वाली बोतल मे छुपा हुआ बम है
मठरियाम बनाई हुई बीवी की हैं प्लास्टीक
नीबू का अचार कहा गया सीफ़ोर है
भूख खाते प्यास पीते करें अब सफ़र कैसे,
टी एस ए क्या किसी आततायी से कम है.

अब अकेले हमारा हाल यह थोड़े ही था. महिला यात्रियों को भी बख्शा नहीं गया


होठों वाली लाली छिनी, महंगा इत्र जब्त हुआ
मस्कारा फ़ैंका गया झट से कूड़े दान में

होठों वाली लाली छिनी, महंगा इत्र जब्त हुआ
मस्कारा फ़ैंका गया झट से कूड़े दान में
ड्योडोरेन्ट खतरे की घंटियाँ बजाने लगा
रेड फ़्लेग लगा कैरी आन के सामान में
तीस की ज्प युवती थी लगती पचास की वो
ऐसे पढ़े सीक्योरिटी ने कशीदे शान मेम
जिसे देखो वही अब कसमेम उठाता फिरे
अब न करेंगे वो सफ़र वायुयान में

अब क्योंकि सफ़र तो मुमकिन नहीं है इसलिये अपने बारे में पूछा गया परिचय होली की मस्ती घोलकर पीने के बाद दे रहा हूँ

वाशिंगटन एं जब भी कोई मिलता पूछे क्या करते हो ?
कम्प्यूटर के प्रोग्रामर हो या रोगी देखा करते हो
या तकनीकी समझ बूझ में अपनी टाँग अड़ा रक्खी है
या फिर अपना ही कोई व्यवसाय जनाब किया करते हो
इन सब प्रश्नों के उत्तर में एक बात केवल कहता हूँ
चिट्ठा लिखता रहता हूँ जी, मैं कवि हूँ कविता करता हूँ


वैसे मुझको ज्ञान नहीं है कुछ ज्यादा हिन्दी भाषा का फिर भी लिख कर दीप जलाता ताली बजने की आशा का -

वैसे मुझको ज्ञान नहीं है कुछ ज्यादा हिन्दी भाषा का
फिर भी लिख कर दीप जलाता ताली बजने की आशा का
जाने अनजाने में मुझसे तुकबन्दी भी हो जाती है
जो कुछ लिखता, मेरी नजरों में वो कविता कहलाती है
तोड़ फ़ोड़ कर शब्द सदा खिलवाड़ बहुत करता रहता हूँ

शब्द कोष की गहराई से भारी भरकम शब्द तलाशे जिनका आशय समझ न पायेम कुछ भी, श्रोता अच्छे खासे

शब्द कोष की गहराई से भारी भरकम शब्द तलाशे
जिनका आशय समझ न पायेम कुछ भी, श्रोता अच्छे खासे
मैं जिजीविषा की प्रज्ञा के संकुल के उपमान भुला कर
ऊटपटाँग बात करता हूँ अपने पंचम स्वर में गाकर
काव्य धरा की घास मनोहर, मैं स्वच्छंद चरा करता हूँ
चिट्ठा जग में रहता हूँ जी , मैं कवि हूँ कविता करता हूँ

तो ठीक है न आप जान ही गये हमारे बारे में. अब अगर आपको होली की खुमारी ये पढ़ कर न चढ़े तो भाइ समस्या गंभीर है. महाराज जी से इसका इलाज पूछना पड़ेगा और अगर मालूम हो गया हमेम तो अगली बार जरूर बतायेंगें और सच खुमारी उतार कर.

होली की शुभकामनायें