Tuesday, February 27, 2007

होली-और हो ली

आजकल गली मोहल्ले में इधर उधर की चर्चायें, वाद- विवाद ज्यादा चल रहे हैं कुछ परेशानी का वायस भी है कि मौसम को भूल कर एक दूसरे की टाँ ग खींची जा रही है. कई साथी चिट्ठाकारों ने चिल्ला चिल्ला कर कहा, भाई होली है होली. और होली पर सब कुछ भूल कर उमंगों में नाचो, रंगों में नहाओ और हमारे लाल साहब की तरह शिव बूटी की तरंगों में हिचकोले लो.

हम सोच में थे कि कैसेइन सभी को होली के रंगों में रंगा जाये कि सुबह सवेरे फ़ुरसतियाजी ने दनदनाया कि जीतू भाई ने नारद पर होली के छींटे लगा दिये है और हमें अब गीत वीत छोड़ कर होली की ही बात करनी होगी.

अब हमारी मजाल कहाँ कि अग्रजों की बात टाल सकें ( वैसे हम अनुजों की बात भी नहीं टालते- कोई कहे तो सही हमें लिखने को ) अब होली के मौके पर श्रोता भी अच्छे खासे मूड में रहते हैं तो हम आदेशानुसार. होली के अवसर पर तीन घनाक्षरी लेकर हाजिर हैं:-

पूर्णिमा की रात देख चाँदनी में डूबा जग
जागा रोमांस कुछ श्री जी के मन में
प्रेमिका को भुजपाश बाँध कर वे कहने लगे
साथ पा तुम्हारा फूल खिल उठे अरन में
झांक कर देखो मेरी आँखों में दिखेगा प्यार
जो कि है तुम्हारे लिये जागा मेरे मन में
प्रेमिका ने कहा मुझे प्यार व्यार नहीं कुछ
केवल नाईट मैटर ही दिखता नयन में

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-२-
सरकिट सिटी में वो जाके बोलीं एक दिन
सेल्समैन से कि हमें कम्प्यूटर दिखाईये
सस्ता टिकाऊ और देखने में शानदार
मैमोरी और काफ़ी कैपेसिटी वाला चाहिये
गलतियां जो मैं करूँ वो उनका सुधार करे
समझे इशारे,बिना उंगलियां हिलाये ही
सेल्समेन मुस्कुराया और बोला देखियेजी
आपको कम्प्यूटर नहीं हसबेन्ड चाहिये

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-३-

पार्किंग में श्रीजी को पुलिस ने दबोच लिया
ईव टीजिंग कर रहे हो शर्म नहीं आई है
पढ़े लिखे इज़्ज़तदार देखने में लग रहे हो
फिर बोलो कैसे ऐसी धूर्तता उठाई है
श्रीजी ने हाथ जोड़ कहा, सुनें आफ़ीसर
ईव जिसे कह रहे हो, धर्म पत्नी मेरी हैं
शापिंग से ये लौटी, मुझे पहचान पाईं नहीं
चेहरे पे मेरे क्योंकि दाढ़ी बढ़ आई है

अब होली है तो है ही

Wednesday, February 21, 2007

ये खलिश कहाँ से होती

चिट्ठाकारिता में आजकल एक तूफ़ान सा आया हुआ है. जिसे देखो वही अपना रोजनामचा खोल कर बैठा हुआ है. क्या, क्यों , कहाँ कैसे, किसने, कब, किसलिये जैसे ढेर सारे कंकर लगा है शान्त झील में डाल दिये गये हैं और लहरें उठ उठ कर सबको सराबोर किये दे रही हैं. अब हम शिकायत तो करेंगे ही. भाई लोगों ने एक दूसरे को टेग कर लिया और ऐसे किया कि अंधा बाँटे जैसे रेवड़ी. अरे भाई लोगो- हम भी इधर खड़े हैं लाईन में और गूँज रहा है

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीमकश को
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता


अब खलिश तो हो ही रही है. किसी के टग का तीर अभी नीम कश हुआ ही नहीं, वरना हम बताते कि मियाँ हमसे पूछो अपने सवाल. खुदा कसम ऐसे जवाब देंगे कि दोबारा सवालों से तौबा करके आप जवाब पहले दे दोगे जैपर्डी की तरह और गुजारिश करोगे हुज़ूर जब वक्त मिले तो एकाद सवाल इधर हमारी ओर उछाल दो. हालांकि प्रत्यक्षा के सांभा ने सुन भी लिया थी कि बहुत नाइंसाफ़ी है ये. पर फिर भी.... और तो और ऐसी आपाधापी मच रही है कि जिसे देखो वही घूम फिर कर बेचारे समीर भाई को टग किये जा रहा है और वे बेचारे पशोपेश में पड़े हैं

इस दिल से प्रश्न हजार हुए, अब किस किसको मैं उत्तर दूँ
मैं सोच रहा हूँ बेहतर है अब चुप ही होकर मैं रह लूँ

खैर छोड़िये, भुगतने दीजिये महारथियों को अपने अपने सवालों से. हम अपनी अप्र आते हैं. चिट्ठा चर्चा में समीरजी ने लिखा कि कविताओं की संख्या बढ़ रही है (और साथ साथ ही कविता न समझने वालों की भी ). बहरहाल जो भी हो, थोड़ी बहुत कविता हम भी समझने लगे हैं ( जीतू भाई की तरह ) और इस तरह हर कविता को अपने अनुसार समझते हैं. अब जैसे कल गीत कलश पर कविता थी चाँदनी रात के . हमने पढ़ा और समझा भी फिर सोचा कि जो हमने समझा है आपको भी बता दें, तो असल कविता तो यह थी :-
कोशिशें कितनी कीं ,थक चुके पर कहाँ
मानते बात हैं भूत जो लात के

इसलियेये चढ़े थे गधे पर नहीं
वक्त आने पे उसको बनाया पिता
काम पूरा हुआ फिर किसे पूछना
अपनी परछाईं को भी बताया धता
गिरगिटों के ये शागिर्द हैं मतलबी
रेत की एक नदिया से हैं मौसमी
इनके क्या क्या विशेषण हैं क्या क्या कहें
इनको कुछ भी कहो, ये नहीं आदमी

रात दिन शह पे शह उए लगाते रहे
वैसे मोहरे हैं ये पिट चुके मात से

खोटे सिक्के से ज्यादा भरा खोट है
पर कहें खुद को हैं टंच सौ ये खरे
इनका विस्तार इतना बढ़ा इसलिये
क्योंकि बैलून हैं ये हवा से भरे
ये दिवाली के टेसू हैं, बाकी बरस
तान चादर अँधेरे की सोते रहे
कट चुकी जब फ़सल, तब उठे नींद से
बात की बारिशों से भिगोते रहे

पेड़ की फ़ुनगियों सी लिये ख्वाहिशें
हैं ये अवशेष पर झर चुके पात के

अब ये सब बैठे ठाले की चीज हैं. अगर आप अन्यथा लेना चाहें तो लें हमें कोई ऐतराज नहीं है

Thursday, February 15, 2007

सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार वितरण

खबर छपी है कि हिन्दी ब्लागर्स का एक बार फिर चयन हुआ है चुनाव के लिये. लगता है कि फ़िल्म इन्डस्ट्री का प्रभाव अब हिन्दी ब्लाग पर चढ़ने लग गया है. जैसे अमेरिका में गोल्डन ग्लोब, आस्कर, पीपल्स चायस, पब्लिशर्स चायस, व्यूअर्स चायस और भी कई नामों से ये पुरस्कार दिये जाते रहे हैं तो भला हिन्दी ब्लागर्स क्यों पीछे छूटें. अभी तरकश ने दिये. फिर हिन्दी युग्म ने एक घोषणा की. अब इन्डी ब्लागर्स की बारी है.

अब यह तो सुनिश्चित था कि इस बार यह पुरस्कार हमें ही मिलेगा. यह दूसरी बात है हमने औपचारिक रूप से नम्रता वश इसे लेने से इंकार कर दिया है और अपने अन्य ब्लागर भाईयों को आगे आने का मौका प्रदान कर दिया है. अब हम यह सोच रहे थे कि हमारे अतिरिक्त अब किस का अनुमोदन किया जाये और सार्वजनिक तौर पर यह घोषणा की जाये. इसी उधेड़-बुन में हम सोफ़े पर बैठे बैठे लुढ़क गये

पुरस्कार वितरण समारोह में हमें आमंत्रित किया गया है. मुख्य अतिथि श्रीमान फ़ुरसतिया जी हैं मंच संचालन का जिम्मा उड़नतश्तरी वाले भाई साहब ने तालियां बजवा कर अपने हाथ में ले लिया है. उनके साथ उनके परम शिष्य अपनी टोली के साथ अपने नये छम्दों के प्रयोग को तत्पर हैं

हमें मंच पर बुलाया गया है और सर्वश्रेष्ठ चिट्ठाकार को पुरस्कार देने का आग्रह करते हुए फ़ुरसतियाजी ने हमें इस अवसर पर लखनऊ आने पर प्राप्त प्रथम अनुभव को बखान करने का आदेश दिया. हम पुरस्कार वितरण हेतु १९ घंटों की हवाई यात्रा के पश्चात विगत संध्या को ही पहुँचे थे. अतएव हमने आदेश का पालन करते हुए कहा

नींद आइ नहीं एक पल के लिये
एक कुत्ता रहा रात भर भौंकता
कुछ अजीबोगरीबाना आवाज़ थीं
मैं रहा था निमिष दर निमिष चौंकता
गाड़ियों,ट्रेन रिक्शों की खड़ खड़ बड़ी
बजतीं मंदिर की,सायकिल की भी घंटियां
और रसोई में लगता था जैसे कोई
हर घड़ी हो रहा सब्जियां छौंकता

था बदलता रहा करवटें रात भर
लेटे लेटे मैं बिस्तर पे उल्टा पड़ा
एक जलकाक आवाज़ करता रहा
खिड़कियों के परे झाड़ियों में खड़ा
रोशनी कोई छन छन के आती हुई
मेरी पलकों पे दस्तक लगाती रही
और टपटप की आवाज़ थी इस तरह
जैसे जल का लुढ़कता हो मटकी भरी

एक टूटी घड़ी लट्की दीवाल पर
घूरते घूरते , थक गई थी मुझे
यों लगा वक्त काँटों के संग में रुका
जो नहीं सूत भर भी थे आगे बढ़े
चाय काफ़ी का था दूर तक न पता
कोई बस लाठियाँ ठकठकाता रहा
और दीवार पर खिड़कियों से छना
रंग बस भोर का आता जाता रहा.

अभी हम आगे भी कहने वाले थे कि पुरस्कॄत चिट्ठाकार ने इशारा किया और देखते ही देखते ताली पुराण शुरू हो गया और हम नींद के आगोश से बाहर निकल आये. अब प्रतीक्षा में हैं कि सपना सच हो और हम पुरस्कॄत चिट्ठाकार का सम्मान करने के लिये कानपुर, लखनऊ,रतलाम और हो तो दुबई या कुवैत जायें

Wednesday, February 7, 2007

वे फ़ल और सब्जी-ए-मशरिक कहाँ हैं

सुबह सवेरे खिड़की से झांका तो बाहर बर्फ़ की चादर बिछी हुई थी. काफ़ी की चुस्कियाँ (यह धॄतराष्ट्र से नहीं सीखा, अपनी भी आदत है ) लेते हुए सोचने लगे कि आफ़िस न जाने के लिये क्या बहाना बनाया जाये कि आवाज़ आई

"सुन:

इधर देखा, उधर देखा. कमरे में कोई नहीं और खिड़की के बाहर सफ़ेद कंबल ओढ़े खड़ी कारों के सिवा कुछ नहीं. समझे कि शायद भ्रम था, परन्तु आवाज़ फिर आई

" सुन. यहां वहां मत देख और केवल सुन "

असमंजस की सी स्थिति थी. फिर सोचा सुन ही लिया जाये, जो कोई भी कह रहा है क्या कहना चाहता है.

हमने कहा " फ़रमाईये "

आवाज़ आई, गीत वीत कविता वविता तुम बहुत कर चुके. बहुत लिख चुके हो प्यार व्यार, याद, आंसू, मिलन, श्रंगार, रूप, मौसम वौसम पर. जानते हो लेखन में क्रान्ति आ रही है. अब नये विषय तलाशो. देखो चोटी के चिट्ठाकार भी अब चोटी ( बालों वाली )
की बात लेकर चिट्ठा लिखते हैं. तुम अब कुछ हट कर लिखो. "

बात में दम है. हमने सोचा. पर विषय कहाँ से लायें. इसी उलझन में डायनिंग टेबल पर पड़ी फ़लों की टोकरी देखने लगे और सीडी का अलर्म बजना शुरू हो गया. साहिर लुधियानवी का गाना बज रहा था

ये कूचे ये नीलामघर

फ़लों की टोकरी देखते देखते और गाना सुनते सुनते हमने चिट्ठावाणी का आदेश माना इस तरह

ये अंगूर, ये संतरे और केले
ये स्ट्राबरी और कीवी गदेले
बढ़ा हाथ अपनी प्लेटों में लेले
यहाँ हैं यहाँ हैं यहाँहैं यहाँ हैं

मगर वे कहाँ मौसमी वे पपीते
कहाँ घर के बाहर मिलें, वे सुभीते
लिये याद हम रसभरी की ्हैं जीते
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं

वो नाजुक सी शै, जैसे लैला की उंगली
हुई जिसपे कुर्बान मजनू की पसली
लुटा जिसपे महुआ, लुटी जिसपे देहली
हरी लखनवी ककड़ियां वे कहाँ हैं

वो शहतूत जिनसे शहद था टपकता
वो बैंगन बनाते थे जिसका कि भरता
कहाँ फ़ालसे जिनसे शरबत निकलता
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं

कहाँ आम लँगड़े ? कहाँ हैं दशहरी
कहाँ धान की बालियाँ वे सुनहरी
खड़ी खेत में ज्वार चंचल छरहरी
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं

यहाँ पीच औ नैक्ट्रीनें भी मिलतीं
औ" अंजीर ऐसी कि मुंह में हो घुलती
मगर याद फिर खिन्नियों पर फ़िसलती
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं

वे फ़ल और सब्जी-ए-मशरिक कहाँ हैं ?