Tuesday, January 30, 2007

मौन की अपराधिनी

कल संध्या को दफ़्तर से आकर आराम की मुद्रा मेम चाय का प्याला हाथ में लेकर हम सोफ़े पर पसर गये. टीई का रिमोट हाथ में उठाया और खबरें सुनने के लिये पावर का बटन दबाने ही वाले थे कि फोन की घंटी बजी. दूसरी ओर लाल साहब थे

" भाईजी क्या हो रहा है ? " प्रश्न आया.

" जनाब, चाय पी जा रही है. " हमने कहा

" सुनिये ये चाय वाय छोड़िये और देखिये कि क्या दंगल हो रहा है. कैसे छींटाकशी की जा रही है. लगता है चिट्ठाकारों की रचना प्रक्रिया अब एक ही दिशा में जा रही है. "
उन्होने बताया

" अब हम क्या कहें. हमारी निगाह में तो सभी समझदार हैं हमारी तरह. हमें तो कोई भी कुछ समझाता है, हम आसानी से समझ जाते हैं. "

अरे नहीं भाई. उन्होने कहा. अब कभी कभी टिप्पणियां भी पढ़ो. सलाह दी जा रही है कि रचनात्मक लेखन में ही लगे रहो.


ठीक है हमने कहा और उनका अनुसरण करते हुए हम लिखने में लग गये

शब्द की अँगनाईयों में गीत अब भटके हुए हैं
अलगनी पर नैन की बस अश्रु ही अटके हुए हैं

जानता हूँ मौन की अपराधिनी तो रागिनी है
जो न उसके बंधनों को गूँज देकर खोल पाई

और पग पत्थर बने, यह पायलों को श्रेय जाता
जो न पल भर थाम उनको नॄत्य में थी झनझनाई

अनलिखे हर गीत का दायित्व ढोती लेखनी ये
बाँझ होकर दे न पाई ज़िन्दगी कोई गज़ल को

पॄष्ठ जिम्मेदार हैं इतिहास के, पंचांग के भी
जोड़ पाये न गुजरते आज से आगत सकल को

किन्तु है आक्षेप का बोझा उठाये कौन बोलो
पोटली को सब पथिक अब राह पर पटके हुए हैं

क्या विदित तुमको अँधेरा ही नहीं दोषी तिमिर का
दीप की लौ भी ,उसे जो रोशनी दे न सकी है

हर लहर जिसने डुबोयी नाव, है सहभागिनी उस
एक ही पतवार की ,धारा नहीं जो खे सकी है
कूचियों के साथ शामिल व्यूह में हैं रंग सारे
जो क्षितिज के कैनवस को चित्र कोई दे न पाये

पुष्प की अक्षम्यता का ज़िक्र करना है जरूरी
प्रिय अधर के पाटलों पर जो न आकर मुस्कुराये

पांव जिनके पनघटों की राह पर थिरके हमेशा
आज उनके पथ तॄषाऒ के सघन तट के हुए हैं.

Friday, January 26, 2007

ढलती हुई उमर के

अभी अभी जब नारद महाराज खबर लाये कि चढ़ती हुई उमर की निशानियां लेकर गीत कलश छलक रहा है तो हम जानकारी प्राप्त करने के लिये बढ़्ना ही चाहते थे कि सामने से लाल साहब मुंह में चुरूट दबाये आते दिखाई दिये. आते ही दनदनाते हुए गोला दागा,

" भाई गीतकारजी ! ये क्या " ?

क्या ? हम असमंजस में थे

" अरे, ये देखिये, पनघट की गागर से ज्यादा छलक रहा है गीतकलश और
वे सब बातें बता रहा है जो कि हमारे लिये इतिहास हो चुकी हैं. भाई साहब,अब यह आपका जिम्मा है कि हमें भूत से वर्तमान में लेकर आयें. "

हम सोच में पड़े कि क्या जबाब दें, कि उन्होंने अपनी बात के समर्थन में श्रीमान फ़ुरसतियाजी का प्रमाणित पत्र भी थमा दिया जिसमें उन्होने भी इसी बात का अनुमोदन किया था..

चूंकि दिग्गजों की बात टालने की सामर्थ्य हमें ढूँढ़ने पर भी प्राप्त नहीं हुई तो हमने शब्द्कोश में डुबकी लगा कर जो हासिल किया, वह प्रस्तुत है:-


बच्चे हंसने लगें ठठाकर,बात अनसुनी जब कर कर के
मॄत्तिमूर्तिके ! निश्चित हैं ये लक्षण ढलती हुई उमर के

जब दर्पण में दिखती है बस आंखों के नीचे की झांई
बिचकाती है अपने मुंह को जब उस पार खड़ी परछाई
प्रश्न निगाहों के रह रह कर चश्मे के शीशों को पोंछें
शायद नजर कहीं पड़ जाये जो खो गई कहीं लोनाई

प्रेमगीत की जगह याद जब रहते अफ़साने दफ़्तर के
ओ भ्रमग्रसिते ! ये सब लक्षण हैं,सच ढलती हुई उमर के

तन की बिल्डिंग की छत पर जब उग आयें पौधे कपास के
बिस्तर पर जब गुजरें रातें, करवट लेकर खांस खांस के
जब हिमेश रेशमिया की धुन, लगे ठठेरे की दुकान सी
याद रहें केवल विज्ञापन जब झंडू की च्यवनप्राश के

बाहर से ज्यादा अच्छे जब दॄश्य लगें घर के अंदर के
सपनों के यायावर, ये हैं लक्षण ढलती हुई उमर के

विस्तारित होने लगती हैं जब सीमायें कटि-प्रदेश की
फ़ैशन की अग्रणी लगें जब, भूषा स्वामी अग्निवेश की
भूसी ईसबगोल बने जब संध्या के भोजन का हिस्सा
निर्णय की घडियां सारी, जब बन जाती हैं पशोपेश की

वक्त गुजारा जाता सारा, जब केवल चिट्ठा लिख कर के
अब तो मानो बात, कि लक्षण हैं ये ढलती हुई उमर के.

Tuesday, January 23, 2007

शब्द हैं अजनबी

शब्द आते नहीं होंठ पर अब मेरे,
भावना सो गई शाल इक ओढ़ कर
कंठ में स्वर अटकते हुए रह गये,
आये बाहर नहीं मौन को तोड़ कर
कुछ कहा न गया, कुछ लिखा न गया,
वाणी चुप हो रही, शब्द हो अजनबी
और वह इक कलम जिसको अपना कहा,
वो भी चल दी मेरे हाथ को छोड़ कर

Thursday, January 18, 2007

बिन दुल्हन लौटे बाराती

आज सुबह नारद पर देखा तो गुरुओं की कथाओं की बाढ़ सी आई हुई थी. अभी हम सोच ही रहे थे कि इसका क्या इलाज तलाशा जाये, कि तथाकथित राजकवियों के गुरु सामने नजर आ गये. उनकी ओर हमने प्रश्न उछाला :

मान्य श्री तथाकथित गुरुदेव, इस नश्वर चिट्ठा जगत में आजकल छाई हुई गुरु-गाथाओं का क्या कारण है ,कॄपया हमारे ज्ञानवर्धन हेतु इस पर प्रकाश डालें

उन्होने तुरंत कहा- "तुम्हें पता नहीं चुनाव चल रहे हैं. लगता है पिछले सप्ताह के चिट्ठे नहीं देखे."

" प्रभो . चुनाव से गुरुओं का क्या लेना देना "

उन्होने फौरन सूतजी के अंदाज़ में कहा " अरे भक्त. जो जितना बड़ा गुरु साबित होता है , जितने विशेषणों का अधिकारी होता है, वह उतना ही पूज्य होकर चुनाव जीतता है. "

इतना कह कर उन्होने गुरुमंत्र की तरह कुछ नये अलंकार, उपमायें और विशेषण हमारे झोले में डाल दिये और कहा कि अब तुम अगर इन अलंकारों के साथ कविता करोगे तो इस पोस्ट में समस्त सुखपूर्ण टिप्पणियों के हकदार होकर आगे की जाने वाली पोस्टों में भी सफ़लता को चूमते रहोगे.

अब उन्ही के आशीर्वाद के फलस्वरूप, उन्ही के चुनाव के लिये समर्पित रचना:-

ओ चरखी से निचुड़े गन्ने
फटे हुए पुस्तक के पन्ने
टूटे हुए मुखौटे लेकर कब तक हमको बहलाओगे
पत्थर हो, सिन्दूर पोत कर, कितने दिन औ' पुज पाओगे
बुझे हुए दीपक की बाती
बिन दुल्हन लौटे बाराती
बोलो तो इस बार कौन सा वेश बदल कर के आओगे
मायावी मॄग और कहां तक पंचवटी को छल पाओगे
फिसले हुए चाक से कुल्लड़
पशुमेले के पागल हुल्लड़
चढ़ा चाशनी एक निबोली कितनी मीठी कर पाओगे
फटे कैनवस पर अब कितना बायस्कोप दिखा पाओगे
गिरी हुई बिल्डिंग के मलवे
छिले हुए पत्थर पर तलवे
जाग चुकी आँखों को फिर से मूरख नहीं बना पाओगे
कितना भी सिन्दूर पोत लो, और नहीं अब छल पाओगे

Tuesday, January 16, 2007

आधी लिखी रुबाई सा

आँखों में रहता था मेरी, पलकों की परछाईं सा
आँखों से वो चला गया, चौराहे की रूसवाई सा

यादों के चिथड़ों में भी है कुछ अवशेष नहीं बाकी
जिसका नाम बसा था लब पर तुलसी की चौपाई सा

सोच रहा हूँ अपने दिल के तहखाने को खोलूँ मैं
शायद कोई नाम मिल सके सावन की पुरबाई सा

जाने कौन इशारा करता, जाने कौन बुलाता है
घोल रहा है कौन हवा में अपना सुर शहनाई सा

अहसासों की उमड़ी आँधी में कोई ऐसा भी है
जिसका ख्याल जहन में रहता, आधी लिखी रूबाई सा

Friday, January 12, 2007

मिलती नहीं गज़ल

आज डायरी के पन्नों पर दिखती नहीं गज़ल
जाने क्या हो गया कलम को लिखती नहीं गज़ल

देते हैं आवाज़ गली में आकर सौदागर
बिकते हैं ईमान, एक बस बिकती नही गज़ल

मिलतीं लंतरानियां किस्से और लतीफ़े खूब
बज़्म बज़्म में जाकर देखा मिलती नहीं गज़ल

सोज भरे लम्हों में दिल को बहलाती तो है
यादों की पर फटी कबा को सिलती नहीं गज़ल

बहर रदीफ़ काफ़िये की हैं बन्दिश बहुत कड़ी
सुबह शाम कोशिश करता पर निभती नहीं गज़ल

अश्कों से लफ़्ज़ों को सींचा, बोकर दर्द नये
गुलदस्ते लेकर बैठा, पर खिलती नहीं गज़ल

Wednesday, January 10, 2007

मुस्कुराते रहें

दे रहे इम्तिहां, अर्थ ये पर नहीं, आप जब चाहें तब आजमाये रहें
ज़िन्दगी ये कोई टिप्पणी तो नहीं, जिस भी चिट्ठे पे चाहें लगाते रहें

दौर ऐसा है पाये बिना भेंट कुछ पत्तियां भीं नहीं हिलतीं अब शाख पर
आतीं गुलशन में चल कर बहारें नहीं, आप जितना भी चाहें बुलाते रहें

बेतुकी है गज़ल, काफ़िया न बहर, न रदीफ़ों से कोई रखा राफ़्ता
दाद इस पर न देगा कहीं कोई भी, आप जितना भी चाहें सुनाते रहें

आरजू-ए-गुहर लेके अब कोई भी, देखियेगा सराफ़े नहीं जायेगा
ख्वाहिशें पूरी होंगीं गली में इसी, आप दिल खोल कर खिलखिलाते रहें

तख्ते ताऊस पर जो बिठाये गये, उनकी ताकीद हम आदमी न रहें
उनकी नजरों में हम है सिरफ़ झुनझुने, जब भी चाहें हमें वे बजाते रहें

दौरे तकनीक में ये चुनावी सिले,दिल बहलता रहे हैं महज इसलिये
मोहरे पहले ही सब चुन लिये है गये, आप ठप्पा कहीं भी लगाते रहें

फूल जब भी जुदा हो गये डाल से, गिनतियां गिन रहे सांस लेते हुए
कल रहेंगे नहीं आंख खोले हुए शीश पर आप चाहे चढ़ाते रहें