Tuesday, December 5, 2006

उलटी पूजा की थाली

होली ईद बड़ा दिन हो या हानुक्का दीवाली
हर उत्सव पर कांधे वाली झोली रहती खाली

पतझड़ के मौसम में उगती नहीं कोई कोंपल
किन्तु सूखती यादों के पल हो जाते बोझल
चौबारे से ले हताश नजरों को आशा लौटे
नहीं आज भी आया आने वाला जो था कल

निर्निमेष सुईयां घड़ियों की ताकें हुईं सवाली
उत्सव है पर क्यों है कांधे वाली झोली खाली

सूने मरुथल का पनघट अक्सर रहता रीता
एकाकीपन की गागर से सन्नाटा पीता
पदचिन्हों को लहर रेत की आत्मसात करती
एक बिन्दु! आगत का भी है, और गया बीता

लगा डिठौना चन्दा को, पूनम होती काली
और रही झोली कांधे की खाली की खाली

दिशा उमड़ती प्रश्नातुर हो निमिष निमिष आगे
सांसों की भिक्षुणी सभी से दो दो पल मांगे
रेखाओं से रिसती हुई, टपकती है धड़कन
सोते नहीं प्रहर अवसादी, सदियों के जागे

छितरी हुई ज़िन्दगी, उलटी पूजा की थाली
एक बार फिर से रह जाती है झोली खाली

1 comment:

अनुराग श्रीवास्तव said...

सूने मरुथल का पनघट अक्सर रहता रीता
एकाकीपन की गागर से सन्नाटा पीता

दिशा उमड़ती प्रश्नातुर हो निमिष निमिष आगे
सांसों की भिक्षुणी सभी से दो दो पल मांगे

मन करता है इन पंक्तियों को बार बार पढ़ूं.