Sunday, December 31, 2006

उड़नतश्तरी-२००६

नये वर्ष में जब चुनाव हों
प्रश्नों के हासिल जबाव हों

एक नाम केवल आता है
कभी हँसाता,विगत दिखाता
कभी गुदगुदा भी जाता है

आओ मिलकर नारे बोलें
एक नहीं हम सारे बोले
सर्वश्रेष्ठ चिट्ठाकारों में
होंगे कौन हमारे बोलें

उड़नतश्तरी उड़नतश्तरी
जी हाँ केवल उड़न तश्तरी

पहला वोट मेरा है- जी हां उड़न तश्तरी
और दूसरा भी है मेरा उड़नतश्तरी
तीजा चौथा और पाँचवां,उड़नतश्तरी,उड़नतश्तरी
छठवें से दसवें तक केवले उड़नतश्तरी

इसके आगे वोट नहीं है
क्योंकि नियम् ये गया बनाया
फिर भी हर इक बार नाम्ये
मेरी लेखनी ने दोहराया

आप सभी मिलकर दोहरायें
उड़नतश्तरी
दो हज़ार छह की संरचना
उड़नतश्तरी

Monday, December 18, 2006

बीती हुई बहार के

खुली आँख से मैने देखे जब जब सपने प्यार के
पलकों पर आ बैठ गये दिन बीती हुई बहार के

पांखुर बनती फूल, फूल फिर कलियों में ढल जाता है
धुन में सजा बांसुरी-स्वर फिर अधरों पर आ जाता है
फिर उछाल लेती कालिन्दी, बढ़ कर पग नख को छूले
डाल नीम की, अमरलता के डाला करती है झूले

आते द्वार मधुप सन्देसे लेकर ॠतु-संहार के
पलकों पर उगने लगते हैं दिन, जा चुकी बहार के

आलावों से उठ कर बाली लगे मेंड़ से बतियाने
गोरा -बादल गाने लगते आल्हा-ऊदल के गाने
लंगड़ा हापुस, अमराई मे दें कोयल को आवाज़ें
साध मयूरी ले कर नभ पर बादल आ छम छम नाचें

रंगें केतकी के रंग बूटे शर्मीली कचनार के
खुली आँख से मैने देखे जब जब सपने प्यार के

शपथ साथ की तरल, आंजुरि फिर से कर जाती गीली
महके सरसों के फूलों सी छाप हथेली की पीली
उड़ती चूनर ले अलगोजे, थाप चंग पर दे जाते
छेड़ा करती है कंगन को सारंगी आते जाते

मांझी गीतों के स्वर आते हैं नदिया के पार से
पलकों पर उगने लगते पल बीती हुई बहार के

Tuesday, December 12, 2006

नये वर्ष की मंगलकामना

फिर नया वर्ष आकर खड़ा द्वार पर,
फिर अपेक्षित है शुभकामना मैं करूँ
मांग कर ईश से रंग आशीष के
आपके पंथ की अल्पना मेम भरूँ
फिर दिवास्वप्न के फूल गुलदान में
भर रखूँ, आपकी भोर की मेज पर
न हो बाती, नहीं हो भले तेल भी,
कक्ष में दीप पर आपके मैं धरूँ

फिर ये आशा करूँ जो है विधि का लिखा
एक शुभकामना से बदलने लगे
खंडहरों सी पड़ी जो हुई ज़िन्दगी
ताजमहली इमारत में ढलने लगे
तार से वस्त्र के जो बिखरते हुए
तागे हैं, एक क्रम में बंधें वे सभी
झाड़ियों में करीलों की अटका दिवस
मोरपंखी बने और महकने लगे

गर ये संभव है तो मैम हर इक कामना
जो किताबों में मिलती, पुन: कर रहा
कल्पना के क्षितिज अर उमड़ती हुई
रोशनी मेम नया रंग हूँ भर रहा
आपको ज़िन्दगी का अभीप्शित मिले
आपने जिसका देखा कभी स्वप्न हो
आपकी राह उन मोतियों से सजे
भोर की दूब पर जो गगन धर रहा.

Tuesday, December 5, 2006

उलटी पूजा की थाली

होली ईद बड़ा दिन हो या हानुक्का दीवाली
हर उत्सव पर कांधे वाली झोली रहती खाली

पतझड़ के मौसम में उगती नहीं कोई कोंपल
किन्तु सूखती यादों के पल हो जाते बोझल
चौबारे से ले हताश नजरों को आशा लौटे
नहीं आज भी आया आने वाला जो था कल

निर्निमेष सुईयां घड़ियों की ताकें हुईं सवाली
उत्सव है पर क्यों है कांधे वाली झोली खाली

सूने मरुथल का पनघट अक्सर रहता रीता
एकाकीपन की गागर से सन्नाटा पीता
पदचिन्हों को लहर रेत की आत्मसात करती
एक बिन्दु! आगत का भी है, और गया बीता

लगा डिठौना चन्दा को, पूनम होती काली
और रही झोली कांधे की खाली की खाली

दिशा उमड़ती प्रश्नातुर हो निमिष निमिष आगे
सांसों की भिक्षुणी सभी से दो दो पल मांगे
रेखाओं से रिसती हुई, टपकती है धड़कन
सोते नहीं प्रहर अवसादी, सदियों के जागे

छितरी हुई ज़िन्दगी, उलटी पूजा की थाली
एक बार फिर से रह जाती है झोली खाली

Monday, December 4, 2006

ओ प्रवासी

उग रहे आकार अम्बर में मरुस्थल के भ्रमों से
कल्पना की हर छुअन, पर हो गई रह कर हवा सी
कब तलक यों पीर की अंगनाईयों में कसमसाता
दूर हो परिवेश से अपने रहेगा ? ओ प्रवासी

ज़िन्दगी की इस चकई का खींचता है कौन धागा
कौन दे सन्देस छत पर भेजता है रोज कागा
कौन सी कठपुतलियों के हाथ की रेखा बना है
उलझनों में और उलझा जा रहा है मन अभागा

साध उलझे केश सी पगडंडियों में छटपटाता
मिल सके छाई अमावस को किसी दिन पूर्णमासी

उंगलियों को कौन थामे ही बिना देता दिशायें
कौन कहता है घटित जो है करे वह मंत्रणायें
संकुचित कर दायरों में दॄष्टि को बन्दी बना कर
कौन कहता है क्षितिज के पार हैं संभावनायें

घेरती हैं एक ऊहापोह में सुईयां घड़ी की
क्या भरेगी आंजुरि में आस की चुटकी जरा सी

धार के प्रतिकूल जाती नाव पर नाविक अकेला
थक रहा है बाऊलों के गीत को दे रोज हेला
चाहता है छोड़ना पतवार पर घेरे विवशता
फिर थमाता हाथ में चप्पू प्लावित कोई रेला

चक्र में आरोह के अवरोह के आधार खोकर
चल रही है, सांस पल पल पर हुई है अनमनासी

खुल रही पुस्तक दिवस की पॄष्ठ रहते किन्तु कोरे
संचयों को शब्द दें, पहले उड़ा लेते झकोरे
सांझ की पठनीयता के भाग में बस शून्य रहता
और कहती चल पुन: तू आस्था अपनी संजो रे

पौष की चौथी निशा में घिर रहे गहरे कुहासे
की घनेरी चादरों में कामना जाती समा सी

कट चुकी हैं जो पतंगें, कौन उनकी डोर थामे
स्वप्न होवे स्नात कोई भोर की धुंधली विभा में
आगतों के प्रश्न का उत्तर, विगत ही सौंप जाये
ज्योत्सना उगती रहे, हर बार की घिरती अमा में

आस बोती बीज, यद्दपि जानती उनकी नियति है
उग चुके दिन के दिये की बुझ रही धूमिल शिखा सी